"दुनिया पूरी"
मेरी पत्नी का देहांत हुए पांच वर्ष बीत गए थे। ऐसे दुःख कम तो कभी नहीं होते, पर मन पर विवशता व उदासीनता की एक परत सी जम गई थी। इससे दुःख हल्का लगने लगा था।जीवन और परिवार की लगभग सभी जिम्मेदारियां पूरी हो चुकी थीं। नौकरी से सेवानिवृत्ति, बच्चों की नौकरियां और विवाह भी।ज़िंदगी एक मोड़ पर आकर रुक गई थी।दोबारा घर बसाना मुझे बचकाना ख़्याल लगता था। चुकी उमंगों के बीज भला किसी उठती उमंग में क्यों बोए जाएं? और अगर सामने भी चुकी उमंग ही हो तो दो ठूंठ पास आकर भी क्या करें।मुझे याद आता था कि एक बार पत्नी और अपनी ख़ुद की नौकरी में अलग - अलग पोस्टिंग होने पर जाने के लिए अनिच्छुक पत्नी को समझाते हुए मैंने ये वचन दे डाला था कि मैं जीवन में कभी किसी दूसरी औरत से शरीर के किसी रिश्ते के बारे में होश रहने तक सोचूंगा भी नहीं।पत्नी का निधन इस तरह अकस्मात दिल का दौरा पड़ने से हुआ कि दोबारा कभी अपने वचन से मुक्ति की बात ही न आ सकी।उसके जाने के बाद ये वचन मेरे लिए पत्थर की लकीर बन गया। मैं तन मन से दुनिया भर की स्त्रियों से हमेशा के लिए दूर हो गया।कुछ साल बीते, शरीर में एक अजीब सा ठहराव आ गया। एक जड़ता ने घर कर लिया।किताबों में पढ़ा कि इंसान के लिए किसी दूसरे इंसान का जिस्म केवल ज़रूरत ही नहीं बल्कि एक औषधि है। हर बदन में एक प्यास बसती है जिसका सावन कहीं और रहता है। एक दूसरे को छूना, किसी से लिपटना जीवन की एक अनिवार्य शर्त है, पथ्य है, मौत को पास आने से रोकने के लिए एक इम्युनिटी है। ये घर्षण एक जीव - वैज्ञानिकता है।और तब मुझे लगता कि मैं हर कहीं, हर किसी को छूने की कोशिश करता हूं। मुझे महसूस होता कि किसी समय पति के जीवित न रहने पर किसी स्त्री को उसके साथ ही सती होने के लिए विवश करना, या उसका पति के साथ ही जल मरना क्या रहा होगा।वो पितृसत्तात्मक समाज था, इसलिए मरने की शर्त केवल स्त्री के लिए थी, पुरुष तुरंत दोबारा विवाह कर लेते थे।मैं अपने वचन के चलते इससे उबरना चाहता था।जल्दी ही मुझे लगने लगा कि महिलाओं से दूर रहते हुए भी मुझे किसी इंसान से बात करते हुए उसे छू देना, जरा सी पहचान पर उसे गले लगा लेना, घूमते हुए हाथ पकड़ लेना, बैठते हुए आत्मीयता से उससे सट जाना बहुत जीवन भरा लगने लगा। मेरे शरीर में इससे स्पंदन आ जाता। जीने की इच्छा बलवती होती। बदन में एक लय आ जाती। अच्छी तरह रहने का मन होता।मैं न जाने क्या - क्या सोचने लगा।क्या मैं किसी मंदिर में खड़ा होकर संकेत रूप में ही पत्थर के ईश्वर को साक्षी मान कर अपना वचन तोड़ दूं? नहीं। यदि मेरी पत्नी जीवित होती तो मैं शायद ऐसा करने का साहस भी जुटा लेता पर अब उसके जाने के बाद नहीं। ये अपराध है।मैं पुरुष शरीर का ही सान्निध्य और साहचर्य पाने में भला- भला सा महसूस करने लगा।अब मैं इस दिशा में सोचता। इसमें किसी तरह की अन्तरंगता मुझे भाती।लेकिन मेरे मन के स्वाभाविक तर्क़ मुझे रोकते।अपने हमउम्र लोगों का साथ मुझे खीज भरा लगता। वे हमेशा ऐसी बातें करते कि मेरी आमदनी कितनी है, मेरी जायदाद की कीमत कितनी है। मेरे पास भविष्य निधि के स्रोत क्या हैं। मेरे मकान या ज़मीन का बाज़ार मूल्य कितना है। इन सवालों से उकता कर मैं उनसे दूरी बना लेता।मेरा ध्यान बच्चों की ओर जाता। लेकिन उनसे किसी किस्म की आत्मीयता पनपने से पहले मैं सोचता कि ये इनके ज़िन्दगी बनाने, करियर बनाने के दिन हैं, इनका ध्यान भविष्य बनाने पर ही रहे और ये सोचता हुआ मैं उनसे पर्याप्त दूरी रखता।लेकिन जल्दी ही मैंने देखा कि अठारह से लेकर पच्चीस साल तक की उम्र के लोगों में मेरी दिलचस्पी रहती है। ये वर्ग मुझे एक विवश, असहाय सा वर्ग नज़र आता।इसकी विवशता मुझे कई कारणों से आकर्षित करती।ये उम्र ऐसी थी कि माता - पिता से अपने ख़र्च के पैसे मांगना भाता नहीं और अपनी आमदनी का कोई जरिया होता नहीं।ये उम्र ऐसी थी कि किसी साथी की ज़रूरत महसूस होती थी और शादी की बात घर में इसलिए नहीं चलती थी कि अभी कोई नौकरी नहीं।एक दिन मैं शाम के समय खाना खाने के बाद सड़क पर अकेला ही टहल कर घर लौट रहा था कि गेट के पास मैंने एक लड़के को खड़े देखा।लड़का एक पेड़ के नीचे अपनी बाइक खड़ी कर के उसी के सहारे खड़ा था। लड़के की उम्र लगभग इक्कीस-बाईस वर्ष होगी और वो बार - बार घड़ी देखते हुए शायद किसी के इंतज़ार में वहां खड़ा था।मैं दरवाज़े से भीतर दाख़िल होने ही लगा था कि हल्की बूंदा - बांदी शुरू हो गई।पेड़ के नीचे खड़े होने पर भी बारिश से पूरी सुरक्षा नहीं थी, लड़का कुछ भीगने लगा।मैंने इंसानियत के नाते उससे कहा - भीग क्यों रहे हो, भीतर आ जाओ।लड़का झट से मेरे पीछे - पीछे चला आया।कमरे का ताला खोल कर मैंने भीतर की लाइट जलाई तो लड़के ने कुछ संकोच से पूछा - अकेले रहते हैं अंकल?- हां, कह कर मैंने लड़के को सोफे पर बैठने का इशारा किया तो लड़का कुछ सहज होकर उत्साहित हुआ।फिर बोला - मैं सामने वाली बिल्डिंग में एक आंटी को डांस सिखाने आता हूं।- अच्छा। मुझे उसकी बात दिलचस्प लगी।- उन्होंने मुझे सात बजे का समय दिया हुआ है, पर कभी समय पर घर नहीं आ पातीं। वह कुछ मायूसी से बोला।- क्या तुम किसी डांस स्कूल में नौकरी करते हो? मैंने पूछा।- नहीं अंकल, मैं तो कॉलेज में पढ़ता हूं, पर जहां से मैंने ख़ुद डांस सीखा था, उन्हीं कोच सर ने मुझे ये ट्यूशन दिलवाई है। मेरा थोड़ा ख़र्च निकल जाता है। डांस स्कूल का समय दिन का है, तब ये आंटी आ नहीं पातीं। वो बोला।- वो आंटी क्या जॉब करती हैं जो रोज़ देर से घर आती हैं? फ़िर उन्होंने तुम्हें ये समय दिया ही क्यों? मैंने सहज ही कहा।- जॉब नहीं करतीं। हाउसवाइफ हैं। देर तो उन्हें वैसे ही हो जाती है। कभी शॉपिंग में, तो कभी सोशल विजिट्स में। लड़का बोला।
मैंने देखा कि लड़का पर्याप्त संजीदा और शिक्षित था। स्मार्ट भी।
लड़का उस दिन तो थोड़ी देर बाद चला गया, किंतु अब वो कभी - कभी मेरे पास आने लगा। जब भी वो फुरसत में होता, चला आता। एक दूसरे के बारे में काफ़ी कुछ जान लेने के बाद हमारे बीच काफ़ी बातें होती।
वो मुझसे कहता - अंकल, पहले पंद्रह सोलह साल की उम्र में लोगों की शादी हो जाती थी, और अब देखिए, तीस - तीस साल तक के लड़के- लड़कियां कुंवारे घूम रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इस उम्र तक शरीर को दूसरे किसी शरीर की चाहत तो रहती ही होगी? क्या शरीर ये बात समझता है कि अभी हमारे मालिक की नौकरी नहीं लगी है तो मुझे दब - सिकुड़ कर रहना है, सूखे ठूंठ की तरह।
मैं उसकी बात अच्छी तरह समझ गया क्यों कि ये वही बात थी जो मेरे मन में भी आती ही थी।
क्या ये हमारा अपराध है? वह कहता।
मैं उसकी बात से सहमत होते हुए भी उसे समझाने लगता, लेकिन शादी के विकल्प भी तो हैं?
लड़का अब एकाएक थोड़ा खुल गया, बोला - अंकल, कौन सा विकल्प ऐसा है जिसे समाज गलत या अपराध नहीं मानता, बताइए कोई एक! शरीर में मल, मूत्र, लार, कफ बनते हैं तो निकाल कर फेंकने ही पड़ते हैं!
बात करते करते हम दोनों और नज़दीक आ जाते।
मैं अपने अकेलेपन से त्रस्त तो था ही, एक दिन बैठे बैठे मेरे मन में आया कि क्यों न मैं भी डांस सीख लूं? ठीक है कि अब इस उम्र में मुझे कोई करियर नहीं बनाना, कहीं प्रस्तुति नहीं देनी, पर अपने मन की ख़ुशी और तन की व्यस्तता का एक उपाय तो ये है ही।
दो - चार दिन बीते होंगे कि लड़के को डांस का एक ट्यूशन और मिल गया। ये ट्यूशन मेरा ही था। अब वो सप्ताह में दो दिन मुझे भी डांस सिखाने लगा। फ़िर रोज़ दरवाज़ा बंद करके तेज़ संगीत की आवाज़ में मैं लगभग एक घंटे तक अकेले ही उसके सिखाए स्टेप्स दोहराता। एक ही कॉलोनी में पास - पास दो स्टूडेंट्स होने का ये लाभ उसे भी हुआ कि उसका समय अब इंतजार में खराब नहीं होता था। उसकी आमदनी भी दुगनी हो गई। दोनों में से जिसके घर की लाइट्स उसे जली दिखाई देती थीं, वहां वो पहले चला जाता था।इस उम्र के मेरे जैसे नए विद्यार्थी के साथ उसे बहुत मज़ा आता। दोनों झूम कर नाचते। नाचते- नाचते दोनों इतना थक कर चूर हो जाते कि... सारी थकान उतर जाती।
डांस के बाद थक कर हम दोनों गुरु शिष्य निढाल हो जाते और दस - पन्द्रह मिनट तक दोनों एक दूसरे में लिपटे पड़े रहते।
एक दिन इसी अवस्था में पड़े हुए देख कर उसने मेरी ओर अचरज से देखा और बोला - क्या ढूंढ रहे हैं अंकल? लगता है जैसे आपका कुछ खो गया है। कहता हुआ वो चेहरे पर कोई रहस्यमय मुस्कान ले कर उठ गया। कुछ देर में वो वापस चला गया।
कभी - कभी वह कहा करता था कि डांस की क्लास खत्म होते ही हमारा गुरु चेले का रिश्ता खत्म हुआ, आप बड़े हैं, थक गए होंगे, लाइए आपके पांव दबा दूं? मैं कहता - तुम भी तो दिनभर की मेहनत के बाद थक जाते होगे, लाओ तुम्हारी क़मर को कुछ आराम दूं!
पहले - पहले लड़के को इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ था कि मैं अब इस उम्र में डांस सीखूंगा! लेकिन जल्दी ही उसने समझ लिया कि बुढ़ापे में आदमी परवश हो जाता है। उसे कोई नचाने वाला हो तो कितना भी नाच लेे।
एक दिन एक चमत्कार हुआ। मैं बैठा ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो सामने एक महिला खड़ी थी। एकाएक मैं उसे पहचाना तो नहीं किंतु ऐसा लगा जैसे शायद ये वही हैं जो मेरे डांस टीचर से डांस सीखती हैं। मैंने अक्सर सड़क पर आते- जाते उन्हें देखा ज़रूर था। अभिवादन के बाद मैंने उन्हें बैठाया। वो इधर - उधर देखते हुए कुछ संकोच से बोलीं - अभी अभिनव का फ़ोन आया था... मुझे कुछ अचंभे में देख कर वो बोल पड़ीं - वही कोरियोग्राफर सर...
- ओह अच्छा, मुझे पता नहीं था कि उनका नाम अभिनव है। मैंने कहा।
- जी उन्होंने कहा है कि आज उन्हें कुछ देर हो जायेगी, तो ...
- क्या वो नहीं आयेंगे? मुझे लगा कि महिला कुछ झिझक रही है।
- नहीं नहीं.. वो देर से आ जायेंगे पर उन्होंने कहा कि मैं तब तक कुछ ऐसे वो स्टेप्स आपको सिखा दूं जो वो मुझे सिखा चुके हैं, क्योंकि वास्तव में वो दो लोगों के युगल डांस के स्टेप्स हैं इसलिए अकेले- अकेले समझ में नहीं आते। उन्होंने कुछ संकोच से कहा।
ये मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। कुछ मिनट बाद मैं और वो अपरिचित महिला एक तेज़ धुन पर एक साथ डांस कर रहे थे। मैं जल्दी ही उनके बताए स्टेप्स सीख गया था और अब हम दोनों ही सुविधाजनक ढंग से साथ में नाच रहे थे।
मुझे महिला की अगवानी की हड़बड़ी में शायद ये भी ध्यान नहीं रहा था कि मैंने दरवाजा बंद नहीं किया है।
हम नाचते नाचते मनोयोग से घूम कर पलटे तो देखा कि अभिनव, हमारा डांस टीचर सामने खड़ा ताली बजा रहा था।
- वाह वाह एक्सीलेंट! उसने कहा तो हम अचकचा कर रुक गए।
हम तीनों ने एक साथ चाय पी, जिसे वो महिला ही मेरी रसोई में जाकर बना कर लाई थी।
अभिनव ने मुझे बताया कि डांस मन की ख़ुशी का प्रदर्शन भी है, आप दोनों इतने नज़दीक रहते हुए भी एक दूसरे से मिले नहीं, जबकि दोनों को ही डांस का शौक़ है। अबसे मैं आपको सिखाऊंगा अलग- अलग, पर दिन में एक बार किसी भी समय आप लोग एक साथ प्रैक्टिस किया करेंगे।
मानो अब से हमारी ज़िंदगी ही बदल गई। अब हम समाज से शिकायतें नहीं करते थे, कि अकेले समय ही नहीं कटता था। हम अब ऐसे मित्र बन गए थे कि दिन में एक बार आधे घंटे के लिए मिलते थे, पर उस आधे घंटे की प्रतीक्षा कई घंटों तक रहती। ऐसा लगता था कि तन - मन में बने बांध में अब ठहरा पानी हमें तंग नहीं करता था। बह कर न जाने कहां ओझल हो जाता था।
मुझे बरसों पहले मुंबई के एक मुशायरे में सुनी पंक्तियां अक्सर याद आ जाती थीं - "दूर सागर के तल में, बूंद भर प्यास छिपी है, सभी की नज़र बचा कर, वहीं जाता है पानी...।
अब कभी - कभी रात को सोने से पहले मैं सोचता था कि अगर रात को सपने में मेरी पत्नी आई और उसने ये पूछा कि आपके साथ दोपहर को कौन होता है? तो मैं उसे बता दूंगा कि उससे मेरा कोई लेना -देना नहीं है, वो तो मेरी क्लास फैलो है, हम साथ में एक ही टीचर से पढ़ते हैं, और होमवर्क में एक दूसरे की मदद करते हैं।