jindagi ka aakhiri din in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | ज़िन्दगी का आखिरी दिन

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ज़िन्दगी का आखिरी दिन

अरे, सुबह के चार बजे का अलार्म बजा,चलो उठती हूं, लेकिन आज कुछ अजब सा एहसास हो रहा है,उम्र जो हो गई है, साठ कि जो हो गई हूं,चल धार्मिणी उठ और शुरू कर आज का दिन।
चल पहले fresh होकर walk पे जाते हैं , फिर आज दिन भर क्या करना है, फिर सोचते हैं ,बिस्तर से उतर कर ,पति की फोटो को प्रणाम किया।
‌ धार्मिणी आज बहुत खुश थी, पीने के लिए पानी गुनगुना किया, और उबालने के लिए आलू चढ़ा दिए,आज सबको अपने हाथों के आलू-प्याज के परांठे खिलाऊंगी,सब बहुत दिन से कह रहे हैं, खासकर मेरा पोता आगमन, अभी पिछले साल ही बारहवीं पास की है,इस साल कालेज में है,इसी साल अप्रैल में अठारह का हुआ है, बड़ा प्यारा है, कालेज की सारी बातें शेयर करता है,उसने जब पहली बार सिगरेट पी थी, तो मुझे बताया था और शराब पीने का भी, लेकिन मैं ने उसे प्यार से समझाया,बेटा सब कभी कभार ठीक है, लेकिन आदत मत बना लें ना, उसनेे प्यार से कहा दादी भरोसा रखो,ऐसा कुछ मैं कभी नहीं करूंगा कि आप सबको को मेरी वजह से शर्मिन्दा होना पड़े।
धार्मिणी यह सब सोच रही थी कि कुकर की सीटी बज पड़ी,इतने में धारा आंखें मलते हुए, अपने बेडरूम से बाहर आई और बोली,
अरे मां !आप की तबियत ठीक नहीं है और आप किचन में, आप को जो खाना है आप बताओ , मैं बना दूंगी, आप के जैसा तो नहीं बना सकती , लेकिन खाने लायक़ तो बना सकती हूं ना।
आज सोचा कि मैं तुम सबको अपने हाथों के बने परांठे खिलाती हूं, धार्मिणी बोली।।
आपकी तबियत तो ठीक नहीं है, अभी पिछले हफ्ते ही एडमिट थी,चलिए छोड़िए,धारा ने कहा।।
‌ करने दे ना धारा! बस आज आखिरी बार फिर किचन में आने की ज़िद नहीं करुंगी, धारा उनका चेहरा देखकर मना नहीं कर पायी,बस इतना कहा,आपका तो यही है कि थोड़ी तबियत ठीक तो ये कर लूं,वो कर लूं, लेकिन धार्मिणी को पता है कि धारा उसकी कितनी चिंता करती है।
पिछले हाँस्पिटल में थी तो सब उसी ने सम्भाला ,घर भी और हाँस्पिटल भी, मेंरे लिए कभी आलस नहीं करतीं और बाहर का तो कुछ भी खाने नहीं देती, बहुत ख्याल रखती है, बचपन में मां नहीं रही, फिर पिता कि तबियत ठीक नहीं रहती थीं और धारा के पापा और सुजलाम के पापा, सुजलाम यानी मेंरा बेटा,एक ही आफिस में थे जब धारा अठारह की और सुजलाम इक्कीस था ,धारा ने बाहरवी पास की थी और सुजलाम का इंजीनियरिंग का पहला साल था , हमने दोनों की शादी करा , लेकिन समाज और रिश्तेदारों ने जबरदस्त विरोध किया कि इतनी कम उम्र में कौन करता है बच्चों की शादी, थोड़ा समझदार हो जाने दो ,देखना ये शादी ज्यादा नहीं चलेगी, लेकिन हमने किसी की नही सुनी और शादी हो गई, धारा हमारे घर बहु बनकर आ गई,विदाई के समय धारा के पिता ने कहा कि भाभी जी आप ने अपने कन्धों पर मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी लें ली ,अब मेरी तबियत कैसी भी रहे, चिंता नहीं है।
‌‌ धारा में बहुत बचपना था, हमेशा मेरे साथ सोने की ज़िद करती और सुजलाम भी और दोनो मेरे अगल-बगल लेट जाते,दोनों झगड़ते कि ये तो मेरी मां है, किसी कारणवश मैं दोबारा मां नहीं बन पाई तो, धारा ने आकर बेटी की कमी पूरी कर दी, फिर उसका कालेज और पढाई ।
लेकिन सुजलाम और धारा पति पत्नी की तरह नहीं रहते थे, धारा हमेंशा मेंरे साथ सोती और सुजलाम अपने कमरे में,और सुजलाम के पापा स्टडी रूम में,दोनों में पति-पत्नी वाली भा्वनाये ही नहीं आ पा रही थीं , मुझे डर था कि कहीं लोगों की कही बातें सच ना हो जाए , फिर मैंने सुजलाम को हाँस्टल भेजने का फैसला किया, मैंने सोचा दूरियां बढ़ने से शायद प्यार पनपे और ऐसा ही हुआ, मैंने कहा सुजलाम तुम्हारा दो घंटे जाने में और दो घंटे आने में समय बर्बाद होता है, ऐसा करो तुम हाँस्टल में रहो सुजलाम चला तो गया लेकिन सबसे ज्यादा बुरा मुझे लगा ।
सुजलाम वीकेंड में घर आ जाता तो धारा खुश तो रहतीं लेकिन अपने कमरे में ना जाती, मेरे पास सोती, मैंने सोचा शायद अब ये संकोच वश एक कमरे में नहीं रहते, शादी को दो साल हो गए थे , मैंने सोचा इस विंटर वेकेशन में दोनों को अंडमान घूमने भेजते हैं,जब मैं नहीं हूंगी वहां तों खुद ही सम्हालेगे एक दूसरे को।
और ऐसा ही हुआ , अंडमान से लौटने के एक महीने बाद धारा ने खुशखबरी सुनाई और पोते के आगमन पर हमने इसलिए पोते का नाम आगमन रखा।
अचानक , धारा ने आवाज़ दी, मां चलिए साढ़े पांच हो गये है, मैं आपके साथ वाँक पे चलती हूं, फिर वापस आकर आपको परांठे भी बनाने हैं, धारा को देखते ही, धार्मिणी ने धारा को गले लगा लिया, क्या हुआ मां? कुछ नहीं पुरानी बातें याद आ गई,तू कितनी पगली थी। मां मुझे छोड़ कर मत जाना, नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी , मां तो बचपन में ही चली गई थी, और पापा आगमन के पैदा होने के एक साल बाद, आप ही हमारी सबकुछ हो, धारा रो पड़ी , इतना कहकर।
दोनों सास - बहु वाँक के लिए निकल गई और सात बजे तक वापस आकर दोनो ने मिलकर नाश्ता बनाया ,सभी खुश थे आलू के पराँठे खाकर ,खासकर आगमन,
दादी आज त़ो मजा आ गया,आगमन बोला।।
सभी ने नाश्ता किया,सुजलाम और आगमन ने धारा से कहा कि आज lunch मत बनाओ,यही तीन चार परांठे रख दो , बूंदी का रायता और टमाटर की तीखी हरी चटनी तो है ही,
धारा ने कहा ठीक है,
आगमन तू तो lunch ले नहीं जाता, कहता अब मैं school में थोड़े ही पढ़ता हूं,अब मैं college जाता हूं, धार्मिणी ने कहा,
अरे दादी ,आप के बनाये परांठे है ना इसलिए,आगमन इतना कहकर चला गया और सुजलाम भी आफिस के लिए निकला।
धारा ने कहा मां अब आप अपने कमरे में जाकर आराम करिए, दोपहर में क्या खाएंगी,बता दीजिए तो मैं तैयारी कर लूं,अब ज्यादा heavy नहीं खाया जाएगा, कुछ हल्का बना लें, ऐसा कर गोभी और मटर रखें है तो नमकीन चावल बना लें, चटनी और रायता तों है ही, ठीक है मां, धारा बोली और अपने काम में लग गयी।
धार्मिणी ने सोचा,चलो रिश्तेदारों से बात कर लेते हैं,तो उसने अपने मायके फोन लगाया,भाइओ से बात की, भाभियों से बात की और उनके बच्चों से बात की, कुछ इधर-उधर की बातें ,सबकी तबियत और खैरियत पूछकर फोन रख दिया, मां बाबूजी तो रहे नहीं, तो मायके भी ज्यादा जाने का मन नहीं करता, मां से ही मायका होता है।
खैर, फिर मैंने सरला को फोन लगाया, नाम सरला ज़रूर है लेकिन है बड़ी कठिन, मेंरी देवरानी।
मैं- हैलो
सरला- हैलो, अरे जीजी कैसी हो? तबियत तो ठीक है ना?
मैं- हां, ठीक हूं।
सरला- बड़े नसीब वाली हो, जीजी,जो ऐसा बेटा- बहु मिले हैं,जो आपकी सेवा के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं,एक हमारी किस्मत , जो ऐसे बेटा- बहु है कि पानी भी नहीं पूछते, खैर और क्या कहें,बस चल रहा है।
सरला हमेशा ऐसी ही बातें करती थी, लेकिन अब तो वो बहुत बदल गई है,जब शादी होकर आई थीं तो बहुत अजीब स्वभाव था उसका,
खैर ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारी आशा के विपरीत होता है, जो हम चाहते हैं या सोचते हैं, वैसा नहीं होता, और ज़िन्दगी अपने तरीके से चलती रहती है, जिन्दगी के अपने अनुभव होते हैं,जो हमें हमेशा अच्छे - बुरे का सबक दे जाते हैं, कुछ यादें इतनी कड़वी होती है कि मन कड़वा हो जाता है,कुछ यादें इतनी मीठी कि मन तरोताजा हो जाता है,एक गुदगुदी सी उठने लगती है।
ऐसे ही सोचते - सोचते धार्मिणी अपने अतीत में जा पहुंचीं कि कितनी दुलारी थी, वो अपने परिवार में ,दादा के यहां और ननिहाल में,सब उसकी खिदमत में लगे रहते थे, ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से चल रही थी। दिनभर उछल कूद ,गांव भर में इस घर से उस घर घूमना, खेतों में से ज्वार के भुट्टे तोड़ना,ताजी-ताजी मूंग दाल की फलियां तोड़कर खाना और सर्दियों में हरे चने और गेहूं के खेत, बेरों से लदे पेड़,सारा दिन दादा-दादी के साथ खेतों में रहना, मां भी सुबह से काम निपटा कर खेतों में भी काम करती थीं , और शाम को ठंड के मौसम में घर जल्दी आकर कुएं से बहुत दूर से पीने का पानी भरकर लाती, नहाने के पानी के लिए तो घर के सामने कुआं था लेकिन उसका पानी मीठा नहीं था,दाल सब्जी नहीं पकती थी और गेहूं धोने और भारी - भरकम कपड़े धोने वो नहरपर जाती थीं।
बहुत काम करती थी मां,शाम को खेतों से आकर पानी भरना फिर गाय-बैल की सानी बना ना फिर खाना बनाना, सर्दियों में , मैं तो चूल्हे पास आग तापते हुए ही खाना खाती थी। मां मुझे खाना खिलाते वक्त ही मेरे ऊपर सारा दुलार लुटाती थी क्योंकि दिन में तो बेचारी को मेरे लिए समय ही नहीं होता था,रात में उनके साथ भी कम ही सो पाती थी, कभी बुआ के साथ तो कभी दादी के साथ सो जाती थीं,मां के पास बहुत काम होते थे ,सुबह तीन या चार बजे उठती थी,घर की पत्थर की चकरी मे गेहू पीसना ,वो भी शाम और सुबह के लिए,पहले गांव मे गेहू पीसने की चक्कियां नही होती थी,अमीर लोग तो काम करनेवालियो से पिसवा लेंते थे लेकिन गरीब लोगो को खुद पीसना पड़ता था।
गेहूं पीस के मां , गाय-बैल का गोबर उठाती,घर के पीछे के मैदान में कण्डे बनाती, फिर गोशाला की सफाई करती, जानवरों को दाना-पानी डालती,गाय का दूध दुहती, फिर दूर के कुऐ से पीने का पानी लाती, फिर चूल्हा जलाती और ढेर सारा खाना बनाती,घर में इतने सारे सदस्य जो थे, मेंरे पांच चाचा,एक बुआ और दादा - दादी और मैं, बाबूजी तो दूसरे शहर में रहते थे, मां और बाबूजी की शादी तो बचपन में हो गई थी, लेकिन गौना दोनो के बालिंग होने के बाद हुआ।।
मेंरे पैदा होने के पहले बाबूजी शहर में पढ़ते थे,तब भी कभी-कभार आते थे, फिर मेरे जन्म के बाद उनको नौकरी करने के लिए दूसरे शहर में रहना पड़ा, लेकिन वो महीने भर में हम लोगों से मिलने आ ही जाते,बाबूजी के आने पर घर में रौनक रहती, फिर मैंपढ़ने लायक हो गई तो बाबूजी मुझे , मां और चाचा को शहर ले आए,मेरा एडमिशन हो गया स्कूल में और चाचा का नौवीं में, लेकिन चाचा पढ़ते नहीं थे, बाबूजी को गुस्सा आता था तो चाचा के कमरे की मच्छरदानी का डण्डा निकाल के उनकी पिटाई करते थे।
जिन्दगी ऐसे चलते चली गई,इसी बीच मेंरे दो भाई हो गये चाचाओ की शादी हो गई और बुआ भी पराये घर चली गई,जब मैं चौदह की हुई तो दादाजी जी नहीं रहे, बारहवीं पास करते अठारह की हो गई, सबको मेरी शादी की चिंता सताने लगी,जैसे ही काँलेज में एडमिशन लिया तो बाबूजी कहीं ना कहीं रिश्ता ढूंढने लगे और दादी भी चाहती थीं कि उनके रहते मेंरे हाथ पीले हो जाएं, फिलहाल वो मेरी शादी के पन्द्रह साल बाद मरीे और आखिरी समय में उन्हें किसी बहु ने नहीं रखा, सिवाय मेंरी मां के।
फिर बी.ए. प्रथम वर्ष में मेंरी शादी हो गई, फिर नयी- नयी गृहस्थी , ज्यादा कुछ आता भी नहीं था, सुबह पांच बजे से रात ग्यारह बजे तक सिर्फ काम, दो देवर और एक ननद , वो भी आग लगा ने वाली,जरा -जरा सी गलती को ,सास से बढ़ा -चढा कर कहती, वहीं रोज के ताने,उस घर में ना कोई हंसता था ना बात करता था, कैदियों की तरह जीवन था वहां का,देवव्रत भी ऐसे ही थे यानि मेंरे पति, अपनी मां के श्रवण कुमार ,अगर उन्होंने कह दिया कि धर्मा ने ऐसा किया है तो किया है, फिर मैं चाहे जो भी सफाई दूं, मानते ही नहीं थे और कभी-कभी तो हाथ भी उठा देते थे।
फिर देवव्रत की नौकरी लग गई और मेरा सुजलाम भी तीन साल का हो गया तो मैं भी देववृत के पास चली गई फिर दूसरी बहु आई यानि सरला , फिर उसने अपने हिसाब से घर चलाना शुरू कर दिया, मां जी की मनमानी कम हुई,वो अपने पति के साथ भी नहीं जाती थीं , जहां वो नौकरी लग ने के बाद रहता था,बस वो घर ही रहना चाहती थी,ना जाने कितने नौकर लगा रखे थे,आराम से टी . वी देखती ,दिनभर सोती, और बच्चे को दिनभर मां बाबूजी सम्भालते,मेरे बच्चे को कभी नहीं सम्भाला मां बाबूजी ने, बच्चे के बाद घर का सारा काम भी करती थीं और कोई नौकर नहीं था घर में,तब भी मां बाबूजी को कोई दया नहीं आई,ना मेरे ऊपर ना मेरे बच्चे के ऊपर।
मेरा तो कभी तीज-त्योहार पर ही घर जाना होता था, लेकिन सारा काम करने के बाद भी सरला लड़ ने को तैयार रहती थीं,ना मां बाबूजी उसके रोकते ना प्रकाश मेरा देवर, और देवव्रत तो घर में किसी से कुछ नहीं कहते ,सरला को हमेशा मुझसे जलन रहती,कोई मेरी तारीफ करें तो उसे अच्छा नहीं लगता था, मां जी से कुछ ना कुछ वो मेरे खिलाफ कहती रहती,उस घर में मुझे भी जाने में अच्छा नहीं लगता था,सबका व्यवहार देखकर, लेकिन सरला का बेटा था ना सुफलाम जिसका मैंने नाम रखा था,उसे देखने चली जाती थी,बड़ी मां कहकर हमेशा मेरे पास ही रहता।
ननद ने तो अपनी पसंद से काँलेज के समय ही शादी कर ली थीं, उस को जुड़वां बच्चे हुए, लड़की - लड़का, फिर छोटे देवर की शादी हुई, उसने एक क्रिस्चियन लड़की से शादी कर ली, अपनी पसंद से, और अलग घर ले कर रहने लगा, क्योंकि लिली से सरला की नहीं बनी,अब पूरे घर पे सरला का राज था,अब मां जी को मेरी याद सताती, लेकिन दिल से उन्होंने कभी नहीं कहा,सरला तो सबसे ज्यादा मां जी की पसंद थी, वो जब उसे पसंद करने गयी थी ,तो मुझे और देवव्रत को भी नहीं बताया था, चुपचाप सगाई करके चली आई। बाद में बताया, शादी में बुलाया जब काम की जरूरत हुई, फिर दीपक यानि छोटे देवर को बेटा हुआ, मैंने उसका नाम गतिज रखा,लिली का व्यवहार मेंरे लिए अच्छा थी, वो बहुत इज्जत देती थी, फिर कुछ दिनों बाद उसे बेटी हुई,मैने उसका नाम ऊर्जा रखा, लेकिन पांच साल बाद एक बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई, गतिज का फोन आया और वो रो रहा था, बड़ी मां आपने ये क्या किया,मैं तो डर गई कि ऐसा मैंने क्या कर दिया, उसने कहा आपको पता है, मुझे और ऊर्जा को सब लोग kinetic energy बुलाके चिढ़ाते हैं यानि की गतिज ऊर्जा, मैंने तो ये कभी सोचा ही नहीं था, फिर दीपक ने फोन लिया और कहा भाभी कुछ नहीं मैं इन्हें समझा दूंगा, फिर बाद मैं भी खूब हंसी, और मैंनें सबको बताया और सब भी खूब हंसे।
‌‌ ऐसे ही सब अपने-अपने परिवार के साथ तालमेल बैठा रहे थे लेकिन सरला नहीं बैठा पाई तालमेल ना बच्चें के साथ ना पति के साथ और ना हम देवरानी, जेठानी से, मेरी और लिली के बीच जो प्यार था, उसे वो भी नहीं सुहाता था, फिर बाबूजी भी नहीं रहे लेकिन मां तो बाबूजी के बाद कई सालों तक रही, लेकिन एक दिन वो भी भगवान को प्यारी हो गई,मां के जाने के बाद सब लोग उस घर में तीज-त्योहार भी मना ने नहीं जाते थे, क्यों कि सरला का व्यवहार अच्छा नहीं था सबके लिए।
फिर आगे ऐसे ही चलता रहा, सुजलाम का ब्याह और सुफलाम का ब्याह तो, काफी समय बाद हुआ, इसलिए सुफलाम की बेटी अभी दस साल की है और गतिज ने अपनी पसंद की लड़की से सगाई कर ली है, गतिज ने कहा पहले ऊर्जा की शादी होगी, बाद में मेरी।
दो साल पहले देवव्रत भी मुझे छोड़कर चले गए,उसी समय उनका रिटायरमेंट कुछ एक हफ्ते पहले हुआ था, खूब धूमधाम से रिटायरमेंट की पार्टी हुई,सारे रिश्तेदार आए थे, पार्टी के एक हफ्ते बाद हम लोग शाम की चाय पी रहे थे, एकाएक कुछ हंसी की बात निकल आई और देवव्रत ठहाका मारकर हंस पड़े और उनकी सांसें उखड़ गई, अचानक दिल का दौरा पड़ा, इससे पहले हमलोगो को कुछ समझ आता,वे हमें छोड़ कर चले गए, वो कहा भी करते थे कि भगवान हंसते-खेलते बुला ले, बिना किसी कष्ट के तो अच्छा है,धार्मिणी की आंखे भर जीवनसाथी का दूर चले जाना बहुत कष्टदायक होता है,साथ बैठकर सुख-दुख की बातें करना, लड़ना-झगडना , बुढ़ापे में जीवनसाथी ही सबसे अच्छा दोस्त होता है, इतने में धारा ने आवाज़ दी, मां lunch ready है।
क्या हुआ मां? आप इतनी उदास क्यों लग रही है?धारा ने पूछा,
धार्मिणी बोली, तेरे पापा की याद आ गई, मटर वाले चावल तेरे पापा को भी, बहुत पसंद थे।
धारा ने बात पलटते हुए कहा, पता है मां अभी सरला चाची का फोन आया था,कह रही थी जब से तू आई है जीजी तो राजरानी की तरह रहती है,कुछ काम उनसे भी कराया कर नहीं तो बैठे बैठे और तबियत खराब रहेगी।
धार्मिणी हंसी और बोली,उसकी छोड़, वो तो ऐसी ही है,अच्छा, ये बता lunch के बाद क्या करेंगी?सोएगी या कहीं चले घूमने,
धारा बोली , लेकिन आपकी तबियत,
अरे वो ठीक है, परसों तेरा जन्मदिन है ना, तेरे लिए कुछ लेकर आते हैं, धार्मिणी बोली।
ठीक है चार बजे तक चलते हैं,तब तक धूप भी कम हो जाएगी,अच्छा शाम के लिए खाने की क्या तैयारी कर लूं,धारा ने पूछा।।
अरे, आज खाने के चक्कर में मत पड़,शाम को बाजार में गोलगप्पे और चाट, और dinner में पीज़ा ,आज की party मेंरी तरफ से, धार्मिणी बोली।
अरे, मां आप बाहर का कुछ नहीं खाएंगी, धारा बोली।
आज बस खाने दे,कल तू करेले का juice भी पिलाएगी , तो पी लूंगी, और तू मेरी मां मत बना कर, मैं तेरी मां हूं,समझी,धार्मिणी बोली।।
अच्छा समझी,धारा बोली।
और चार बजते ही,दोनो सास-बहु निकल पडी shopping पे, सहेलियों की तरह,पहले दोनों ने shopping की, फिर चाट खायी, धार्मिणी ने जी भरकर गोलगप्पे खाए, फिर आते समय समोसे और गर्म जलेबी खरीदी, सात बजे तक दोनों घर आ गयीं।
तब तक आगमन और सुजलाम भी आ गये, फिर चाय के साथ सबने समोसे और जलेबी खाएं, धारा परेशान थी कि मां की तबियत ना बिगड़ जाए बाहर का खाने से,बस।
इतने में लिली का फोन का फोन आया कि कल हम लोग आ रहे हैं, आप के यहां, ऊर्जा के लिए लड़का देखने , लड़का आप के शहर का है। कुछ इधर-उधर की बातें ,सब की खैर-खबर पूछकर फोन रख दिया।
फिर नौ बजे तक पिज़ा order किया गया, सबने पिज्ज़ा खाया, और ग्यारह बजे तक सब बातें करते रहे।
तब धारा ने कहा मां आप आराम करो, आप की तबियत ना बिगड़ जाए, फिर सब सोने चले गए।
सुबह के आठ बज गए, धार्मिणी जागी, अरे आज आठ बज गए, इतनी देर हो गई, किसी ने जगाया भी नहीं, लेकिन अचानक धार्मिणी को कुछ शोर सुनाई दिया, अरे जा कर देखूं क्या बात है?
वहां जाकर देखा तो,
अरे ये तो मेरा बेजान शरीर है, और सब लोग रो रहे हैं,धार्मिणी बोली।।

समाप्त___
सरोज वर्मा____