सूर्यबाला
अधबूढ़ी-सी मैं...।
सोचा था, हवेली भी अधबूढ़ी ही मिलेगी। उखड़ी-पखड़ी, झँवाई, निस्तेज। पर वह तो जैसे बरसों-बरस की बतकहियों वाली पिटारी लिए, आकुल-व्याकुल बैठी थी मेरी प्रतीक्षा में, खोलकर बिखेर देने को बेचैन।
धुँधलाया था तो बस मेरी शादी में, कोहबर की दीवार पर लिखा, 'श्री गणेशाय नमः' और मेहराबों से बँधी पतंगी कागजों वाली झंडियों की कतरनें। हवा की हलकी सिहरन के साथ फुसफुसाती हुई... देखा। हम हैं, अभी भी... समयातीत की यादों को नन्ही-नन्ही कतरनों में सहेजती।
पोते-पोतियों की एक पूरी छापामार फौज साथ है। हवेली का कोना-कोना छानती हुई।
कुतूहलों और जिज्ञासाओं का कोई अंत नही।
"आप यहीं रहती थीं? ...इसी हवेली में अम्मू दादी? ...जब हमारे जित्ती थीं?"
"ओ... आपके डैडी की है ये हवेली।"
('थी' नहीं, 'है' अभी तक तो...)
"बहुत-बहुत सारे साल हो गए न तब से?"
"मैं बताऊँ? हंड्रेड... न अम्मू दादी।"
सबसे छोटे चिल्लू सबसे ऊँची गिनती का रोब मारना चाहते है।
"दुत्त, हंड्रेड की तो अम्मू दादी भी नहीं है।"
सारे बच्चे हो-हो करके हँस पड़े। हँसी से बेहाल, एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते।
"आप फिफ्टी एट की हैं न अम्मू? कक्षा तीन में पढ़ने वाली 'सीनियर मोस्ट' मौली दीदी ने अपने ज्ञान से छुटकैयों को चमत्कृत कर दिया। फिर अपनी विजयिनी बाँहें गले में डाल झूल लीं।
"तब कितने इयर हुए अम्मू दादी?"
मुश्किल सवाल। ... मुश्किल हिसाब...
(इसीलिए फौज शोर मचाती हुई वापस छापामारी पर निकल जाती है।) सालों-साल का हिसाब...
इतने कि एक पूरी सदी गुजर जाए। एक पूरी उम्र बीत और रीत जाए...।
'चल झूठी' हवेली ठमककर मेरे गालों पर ठुनकी देती है - 'ना कुछ बीता, कुछ रीता-सब कुछ तो कंदील-सा जगर-मगर...'
'तेरे अंदर?' मैं हवेली से पूछती हूँ।
'नहीं तेरे भी - यह पूरा शहर, यह पूरी गली, यह पूरी हवेली...'
अतीत और वर्तमान को एक-दूसरे में से डुबो-डुबोकर निकलती हुई हमजोलियों-सी ठिठोली वाली हवेली।
आँगन के उस कच्चे वाले कोने में एक हरसिंगार हुआ करता था। बाकी पूरा आँगन पक्का।
गलियोर के ऊपर बीचोबीच एक शमादान जला करता था। जब कभी नहीं जलता तो हमें भूत-प्रेतों का डर लगता।
- "होते थे क्या?"
चिल्लू गोल-गोल आँखें झपकाकर पूछते हैं। 'अरे पगलू' छोटी-सी मौली दीदी अपनी ही हथेलियों में उसका सिर पकड़कर किश्शू करती है।
अहाते में एक नीम थी।
है तो अभी भी।
वो क्या रही। गच्च पर ढेर सारी निमकौरियाँ टपकाती।
असल में पूरा का पूरा अहाता आढ़तियों के शेडों से इतना ढक गया है न कि लगता ही नहीं कि यह वही अपने अहाते वाली नीम है।
नुक्कड़ वाले मंदिर का चबूतरा भी आगे तक बढ़ाकर पीला-लाल पेंट करा दिया गया है।
बस हनुमान जी जस के तस।
हर मंगल की शाम आरती होती थी।
अब होती है कि नहीं, क्या मालूम...।
तब के पुजारी जी घंटी की टुनुन-टुन के साथ हनुमान जी के चारों तरफ आरती घुमाते जाते, घुमाते जाते। ...प्रकाश के बनते वलय, जगमगाती जोत। उस जोत में झलमलाते ढेर-ढेर सारे चेहरे। आरती पूरी होने के बाद पुजारी जी हर किसी की तरफ आरती की थाली बढ़ाते हुए लगातार उचारते जाते -
सकल गुण निधानम् वानराणाम् धीशम्
रघुपति वर दूतम् वात् जातम् नमामि...
शनि, मंगल का प्रसाद केवड़े-इलायची से महमहाता होता। जो कोई भी प्रसाद करवाता, चाहे अमृत-भोग के लड्डू, चाहे गुसाइयों के लाल पेड़े...।
'जरा ये प्रसाद इनके हाथ से चढ़वा दीजिए पुजारी जी। ...फर्स्ट डिवीजन से पास हुए हैं इंट्रेंस के इम्तहान में। ...पैर छुओ बेटा पंडीजी के।'
आरती की लौ ठहरती है। सकुचाई आँखें। शरमाया चेहरा।
कल्याण हो बेटा। ...कल्याण हो। सदा फूलो-फलो। उन्नति करो। ...यशस्वी भव' -प्रकाश की आभा दप्-दप् हिलती है।
और चेहरा है कि झेंपे, शरमाए जा रहा है।
आरती के लिए जुटे लोगों में से बहुतों ने आगे बढ़कर शाबाशियाँ दीं। पीठ थपथपाई।
लोगों की भीड़ से गर्दन उचकाकर झाँका था मैंने। जरा देखूँ तो, यह दूसरा फर्स्ट आने वाला कौन है? नहीं... जानती तो नहीं। इस गली के नहीं लगते। फिर भी तुम-आप भी फर्स्ट आए हो न अपनी क्लास में? ...तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। जरूर अच्छे लड़के होओगे। ...इस गली के सारे लड़के तो गावदी हैं। ...हाँ तो मैं भी सेकेंड आई हूँ। फर्स्ट वाली सुनयना से बस तीन नंबर कम। सिर्फ गणित की वहज से। बड़ा रोना आया, लेकिन सबसे छुपा ले गई।
क्या करूँ। मेरा मन ही नहीं लगता गणित में। अरे, अब तो बड़ी हो गई हूँ न तो जबरदस्ती बैठकर सवाल हल करने की कोशिश करती हूँ। लेकिन जब छोटी थी न, मन्नू चाचा चिढ़ा-चिढ़ा के रुला डालते थे - देख मद्धू। मैं तुझे पहाड़े रटने का फार्मूला बताता हूँ। अब जैसे तेरह के पहले तीन ताल का ठेका ठीक रहेगा - जैसे तेरह के तेरह, तेरह दूनी छब्बीस, तेरातियाँ उनतालीस से पहले, माधुरी मिश्रा, बनाम पूरियाधना श्री बनाम पूरी खांड सारी...
एकदम बुद्धूपने की बात, लेकिन सब लोग हँस देंगे तो मैं रोऊँगी नहीं क्या?
तब छोटी थी ना...।
अब?
अब उटंग होती फ्रॉकें। लंबी होती चोटियाँ। सलवार-कुर्ते सिलवाओ, घुटन्ने दिखते हैं इसके। मँझले ताया का निर्देश। माँ ने सिलवा दिए, चुन्नी भी उढ़ा दी लंबी-सी। मन्नू चाचा ने फिर चिढ़ाया -
बित्ते-भर की लिल्ली घोड़ी
डेढ़ बित्ते की पूँछ -
'अरे हट। ताया जी की सनक। अभी मधुरिया है ही कित्ते बरस की? ढाई गज की चुन्नी उढ़वा दी।'
'यह न कहो सुनयन बीबी' - संदीले वाली मामी थीं -
'इसी उमर की हमारे मुहल्ले की एक लड़की मुसलमान के साथ भाग गई।'
'अरे, वो तो उठा ले गया होगा अपना धरम कबुलवाने। ऐसे बहुत-से किस्से सुने हैं आपसी रंजिश के।ʼ
'कहीं नहीं...' जीजी चुन्नी का फेंटा कसने में हुशियार हो गई थीं - 'आप लोगों के दिमाग में शक के सींग उगा करते हैं - हिंदू कौन-से दूध के धुले हैं? मुसलमान हिंदुओं से ज्यादा शरीफ होते हैं।ʼ
'चुप भी कर, बिना पूछे, जाँचे, लगी हिंदु-मुसलमान धोने-पछारने-बात तो इस उमर में लड़कियों को सँभालने की हो रही है।'
'लड़कों को सँभालने की क्यों नहीं...?'
'तु बेबात जबान लड़ा रही है बिट्टो, जाकर कहती क्यों नहीं लड़कों के माँ-बाप से -हाँ, तो तब क्यों हुआ मामी? संदीले वाली की रसवार्ता में विघ्न पड़ रहा था।
'तब क्या, कालिख नहीं, डामर, डामर पोत गई माँ-बाप के चेहरों पर - बेइज्जत हो गए सरेआम। अब कोई कानी-कौड़ी के भाव नहीं पूछता संदीले में उन्हें...'
'सो तो है ही अरे उसे बाम्हन, छत्री, बैसों में नहीं मिला भला कोई...?'
'अम्मू दादी। अम्मू दादी।' बच्चों का झुंड शोर मचाता आया है - 'बड़े पापा, बड़ी मम्मी ने कहा है, वे लोग फिर बारह जा रहे हैं।'
बेटे-बहू लगातार दौड़-भाग कर रहे हैं। कोर्ट, कचहरी, खदीदार, दलाल, इकरारनामा, बैनामा, स्टैंप, दस्तावेज - बड़े ने ही जिद की - 'अम्मा, चली चलो तुम भी। वैसे भी यह सब तुम ज्यादा समझोगी। ...छोटा चल नहीं पा रहा। अपनी पलटन अलबत्ता साथ किए दे रहा है। दलाल खरीदार भी शायद तुम्हारी उम्र का थोड़ा लिहाज करें।'
हाँ-हाँ अम्मू दादी, चलिए ना, हम सब चलेंगे साथ-साथ' ...बच्चों ने जिद की थी।
आगत, अतीत, वर्तमान
छुटपन, बचपन और बुढ़ापा -
अँधेरे गलियारे के शमादान से लेकर कचहरी के इकरारनामे तक... सब साथ-साथ...
हट्ट... गलत-तुम्हारी बात मैं थोड़ी कर रही। तुम क्यों रहोगे मेरे साथ-साथ।
तुम्हारी गली भी मेरी वाली गली से कहाँ मिलती है।
जरूर पीछे वाली ही कोई गली होगी।
होगी... मुझे क्या जरूरत...?
तुमने भी तो मेरी हवेली नहीं देखी। नहीं जानते न।
'हूँ सब यही समझते हैं।'
लेकिन मैं जानती हूँ, तुम्हें मालूम है, मेरी वाली गली -
बताऊँ कैसे?
एक दिन जब मैं स्कूल से लौट रही थी न, तो तुम भी पीछे-पीछे अपने किसी दोस्त से बतियाते चले आ रहे थे। शायद इसी गली से फुटबॉल के स्टेडियम जाना रहा होगा उस दिन और क्या वजह हो सकती थी भला।
तो, जब मैं अपने दरवाजे से जरा पहले दौड़कर घुसी न, तभी मैं समझ गई कि तुमने मेरी तरफ न सही, मेरी हवेली की तरफ देखा जरूर है।
मेरी तरफ क्यों देखते भला? तुम भी तो एक अच्छे लड़के हो। क्लास मे फर्स्ट-सेकेंड आने वाले। और मैं भी तो, हम क्यों देखें, एक-दूसरे की तरफ?
नहीं देखना चाहिए। ... न!
क्योंकि मंजुला भाभी की बहनों के लिए भी ताई-चाची आज कह रही थीं - 'सबकी सब छम्मक-छल्लो हैं। जब देखो पाउडर-बिंदी, सुरमे-काजल से लैस, हर किसी से मुस्की मारती रहती हैं। दीदेवार ठहाके लगाती हुई। देख लेना, मंजुला की बहनें देर-सवेर माँ-बाप का नाम डुबाएँगी जरूर। ...जब देखो तब खिड़की-झरोखे से सान-मटक्की करती बात-बेबात खिखियाती रहती हैं...।'
अरे कोई जाए, कोई आए, लड़की जात को दीदे काढ़कर टकटोरने की जरूरत?
तुम्हीं बताओ, यह छिछोरापन नहीं तो और क्या है?
मैंने सुना और सहमकर जोर से आँखें भींच लीं। जिससे तुम्हें न देख पाऊँ...।
लेकिन अब प्यारे मोहन की दुकान पर मैं क्या करती, बोलो?
चार्ट पेपर लेने गई थी। पैसे गिनकर देने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दुकान के शोकेस में रखी तेल-क्रीम की शीशियों के बीच-बीच में रखे छोटे-बड़े शीशों में तुम... एक-दो-तीन-दसियों-प्यारे मोहन से ज्योमेट्री बॉक्स माँगते हुए...।
हाँ - मैंने ठीक-ठीक देखा - मतलब तुम दिख गए - तुम मुस्करा भी रहे थे, मुझसे नहीं, प्यारे मोहन से बातें करते हुए...।
मुझे कुछ नहीं सुझा तो मैं भाग ली। पर मुझे लग रहा था, तुम मंद-मंद मुस्कराए जा रहे हो मेरी पीठ पर लहराती चोटियों को देखकर।
कितना अच्छा हुआ जो तुमने सामने, सीधे मुझे नहीं देखा।
जरूर तुमने भी अपनी बलरामपुर वाली चाची या रानीखेत से आई बुआ के मुँह से सुन लिया होगा...।
'भोपाल वाली के बेटे को देखा? जब देखो, तंग मोहरी की पैंट पहने, कंघी से बुलबुली सँवारता, सड़कों पे सीटी मारता, चप्पलें लटकारता घूमता रहता है। गए तीन सालों से फेल हो रहा है बारहवीं में। अब पढ़ चुका वो। ...इंदौर वाली का बेटा पढ़ाई में तो खैर ठीक-ठाक है, पर मिजाज खासा आशिकाना, पूछो जरा, कल के छोकरे का अभी से विलायती सैंट लगाए घूमने का मतलब! ये कोई भले घर के लड़कों के लच्छन हैं। पढ़ने-लिखने वाले लड़कों को इस सबकी कहाँ फुरसत कि कहाँ किस गली में किस लड़की का मकान है...'
हाँ, बिलकुल सही बात है। मेरी हवेली वाली बात तो मैंने इसलिए कही थी न क्योंकि गली से गुजरता हर आदमी एक नजर हमारी हवेली पर डालकर साथ वाले से कह पड़ता है - 'शुक्ला जी की हवेली है। रच-रचकर बड़े शौक से बनवाई लेकिन बनवाने के चार-छह महीने के अंदर यों ही सोए-सोए गुजर गए। ...मातबर आदमी थे। रसूख वाले। - उमर कहाँ थी। छोटे-छोटे बच्चे। कच्ची, गृहस्थी।...'
बड़े-छोटे ताया-चाचाओं के बीच गृहस्थी चल रही हैं।...
सीढ़ियों पर पैरों की आहट बढ़ती जाती है।
क्या किया अम्मू दादी और बच्चों ने सारे दिन...?'
'बताएँ? ...खुफियागीरी? बच्चे चहकते हैं।
मैं चौंककर बेतरतीब होने लगी हूँ।
बेटा-बहू परेशान हैं। काम बनता नहीं नजर आ रहा। ...(यानी हवेली बिक नहीं पा रही)
सोचा था, एकबारगी सब कुछ निपट जाएगा। पर खरीदार हमें गरजमंद समझकर काँइयापन से पेश आ रहे हैं। ...एक ही रट, कीमत घटाइए साहब। पुरानी हवेलियों पर मरम्मत में बहुत खर्च आता है। सारा ढाँचा ही आउटडेटेड जो ठहरा। ...रिहाइश के लिए पुरानी हवेलियों की पूछ नहीं रही अब। ये मेहराबें और शमादान बस जज्बाती खानापूरी के लिए हैं।
'बड़े पापा! बड़े पापा! अम्मू दादी बताती हैं, नीचे गलियारे में लालटेन जलती थी... और अँधेरे में भूत-प्रेत आते थे।'
'कैसे भला? तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था...' बेटे ने चिल्लू के गालों पर चपत लगाई। बस, बच्चे चिल्लू को भूत-भूत कहकर चिढ़ाकर भागने लगे...।
'चोऽऽप्प! ... इतना शोर... और कहते हो, अच्छी तरह रहे?'
'नही, हम सारे दिन अच्छे बने रहे... अम्मू दादी से पूछ लीजिए। सारे दिन नहीं, सारी उम्र...।
पता है? एक दफे अचानक बाहरी मुँडेर पर खड़ी थी कि फक्क! देखा, तुम चले आ रहे थे नीचे गली में। विश्वास ही न हो। जरूर तुम-सा कोई और... लेकिन तुम्हीं थे... इस रास्ते, इस गली से कैसे गुजर रहे हो तुम? देखूँ तो, आखिर किस तरफ जाते हो?
लेकिन अरे-अरे यह क्या? तुम-तुम तो मेरी हवेली के ही फाटक में घुस रहे हो। मेरी साँसें बदहवास होने लगीं। तो क्या अब कुंडा भी खटखटाओगे तुम?
कुंडा सचमुच खटका... घर के सब सिविल लाइन शादी में गए थे। माँ ने कहा - 'मध्धुर! जरा देख तो बेटी - '
मैं सनसनाते पैरों से सीढ़ियाँ उतरती गई हूँ... दरवाजा खोलती हूँ ओैर... मेरे ठीक सामने तुम खड़े हो...!
तुम... हाँ तुम ही तोऽऽ, क्या करना चाहिए मुझे?
कुछ कहना चाहिए...? लेकिन मैं तो स्तंभित हूँ... अविचल... आँखें झुकाए सिर्फ जमीन देखती हुई। ...भला जमीन में तुम कैसे दीखोगे?
'यह मेरे बड़े भइया की शादी का निमंत्रण... पिता जी ने यहाँ देने के लिए... भेजा है...।'
मैंने निमंत्रण-पत्रिका थाम ली है। ...अब? कुछ तो बोलूँ - जरा तो देखूँ... कुछ भी नहीं हो पाया। खड़ी भी न रह पाई। बस आँखें तरतरा आईं और कुछ न सूझा तो अचानक मुड़कर वापस भाग चली, घर के अंदर... तेज-तेज सीढ़ियाँ फलाँगती हुई मैं, जैसे खुद भी अपने पीछे भागती, खुद को रोकती भी जा रही थी ...पागल! रुक न! वापस क्यों भागती जा रही है? ...रुक मद्धू। ...लेकिन मैं हाँपते हुई ऊपर पहुँच गई।
एक अच्छी लड़की की तरह!
तुम कब तक खड़े रहे, विस्मित या उदास... नहीं जानती।
लेकिन तुम उदास क्यों होगे भला?
कोई तुम मेरे लिए थोड़ी न एकदम से भाग आए थे।
वो तो तुमने बड़े भाई की शादी के कार्ड बाँटने में पिताजी की मदद के खयाल से अगल-बगल की गलियों का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था, बस।
एक अच्छे लड़के की तरह!
लेकिन मेरी मूर्खता देखो -
नाम तक नहीं पूछा तुम्हारा!
क्यों? ...घर आए अजनबियों का पूछते नहीं?
ऊपर आकर कार्ड माँ के हाथों में रख दिया चुपचाप।
सीढ़ी चढ़ने से साँस फूल रही थी।
माँ ने पूछा - 'कौन दे गया?'
'ए-क ल-ड़-का...।
'क्या माथुरों का?'
'क्या मालूम, पूछना भूल गई।
'अरे पूछना, बिठाना था बेटे। ...तुझसे कैसे ऐसी गलती हो गई। ...खैर, तू शगुन लेकर चली जाना...' (लोग जानते हैं कि बाबूजी की मृत्यु के बाद माँ किसी समारोह में नहीं जाती)
माँ ने मुझे कानों में बुंदे पहनाए। शादी-समारोह में पहना जाने वाला शरारा-कुर्ता। गलें में मोतियों की माला और हाथों में शगुन के रुपए।
आज छोटी-सी बिंदी लगाने की इजाजत भी मिल गई।
मैं चुपके से शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई। देखा तो एकदम शरमा गई।
फिर सहमकर शीशे से ही पूछा, 'इसमें तो कोई बुरी बात न? मैं अभी भी एक अच्छी लड़की ही हूँ न?'
शीशे ने दुलारकर कहा, 'बिलकुल... सभी लड़कियाँ सजती हैं। नाचती-कूदती, हँसती-खेलती हैं शादियों में। तुम भी नाचना-गाना, हँसना-खिलखिलाना उनके घर शादी में। इसमें कोई बुरी बात नहीं।
शीशे ने ठीक कहा था। सचमुच जाजम पर ढोल-मँजीरे लिए बैठी, छोटे-बेड़े घूँघटों और सलमें-सितारे जड़ी साड़ियों तथा साटनी शरारों वाली लड़कियों ने मुझे जबरदस्ती खड़ा कर, मेरे पैरों में घूँघरू बाँध दिए।
'ऐ मध्धुर! कलंगी के छैयाँ-छैयाँ, नदिया के तीरे-तीरे वाला... अच्छा!' और एक दूसरे से बोली - 'बहुत बढ़िया नाचती है, एकदम रबड़ की गुडिया-सी कमर लचकाती।
धन्नाक्-धिन्न... ढोलक की थाप के साथ तान खींच दी लड़कियों ने -
कलंगी के छैयाँ-छैयाँ नदिया के तीरे-तीरे
अपनी नगरिया हमें ले चल बन्ने धीरे-धीरे।
और मैं घूमर लेकर छमा-छम्म नाच रही थी। ढोलक की टनक पर अब तालियों की समवेत थाप भी पड़ने लगी थी। जाते-जाते लोग भी रुककर ताल देने लगे थे। समाँ बँध गया था। घर की बड़ी-बूढ़ियाँ दादन मेरे ऊपर रुपए वारने लगीं।
और तुम! ...मैंने नाचते-नाचते क्या देखा नहीं? बर्फी, बालूशाहियों से भरी ट्रे ले-लेकर मुस्कराते ही ही सीढ़ियाँ चढ़ते, मुस्कराते ही उतरते। मुझे देख तो रहे नहीं थे, फिर क्या मुझे सोच-सोचकर ही मुस्करा रहे थे तुम?
तुम... क्या तुम समझ गए थे कि उस दिन अपने दरवाजे पर जो तुम्हें खड़ा छोड़कर मैं भाग ली थी, उस गलती पर 'सॉरी' बोलने के लिए ही मैं घूमर ले-लेकर नाचे जा रही थी! ...
(क्योंकि इतने भर की तो इजाजत है न एक अच्छी लड़की को।)
"मौली! तनु! चिल्लू! ...सॉरी, हमें देर हो गई... तो क्या करते रहे तुम लोग..."
"बताएँ, हम लोग कोड़ा-जमाल-शाही खेलते रहे बड़े पापा! बड़ी मम्मी!"
"दादी को परेशान तो नहीं किया!"
"पूछ लीजिए अम्मू दादी से... हमने उन्हें बिलकुल डिस्टर्ब नहीं किया। हम तो सारे दिन आँख-मिचौली खेलते रहे।"
('मैं भी...')
'बड़ा' पूरी तरह संतुष्ट नजर आ रहा है। और बहू तो खुशी से छलकी पड़ रही है...
"अरे, जानती हैं मम्मी! एक बहुत अच्छा बेहद शरीफ खरीदार मिल गया। हम जैसा चाहते थे न, कि नाना जी की हवेली किसी खानदानी के हाथ में जाए - और कीमत भी - उनके पूछने पर राहुल ने यों ही अठारह लाख बोल दिए कि बारगेन तो करेंगे ही... लेकिन वो तो उतने पर ही मान गए... यहीं आसपास ही किसी अगली-पिछली गली के हैं... क्या नाम बताया राहुल? ...मम्मी! हम उनको शाम की चाय पर बुला रहे थे। मैंने कहा, आइए न, मम्मी को आपसे मिलकर बहुत खुशी होगी।
"मैंने सोचा, आपकी हवेली जिसके पास जा रही है, उसे आप कम से कम देख तो लें... लेकिन...
"मम्मी, आपको बहुत अच्छा लगता उनसे मिलकर।"
"हाँ, मैं देख रही हूँ, मैं सुन रही हूँ।"
हमारी हवेली लाखों की है।
मेरी शादी के गीत गाए जा रहे हैं -
लहँगा तो तेरा लाख का, चुनरी हजारों की... मेरी बन्नी बहारों की...
सुनते हुए उस वक्त, मैं सोचती रही थी कि मेरी शादी का निमंत्रण 'अगली पिछली' गलियों तक बँटा या नहीं?
किससे पूछँ? कहूँ -
कोई तो चला जाए!
चलो समय की, लम्हों की, उड़ी-उड़ी चिंदियाँ बटोरें...
बटोरकर देखें, उसमें एक अच्छी लड़की और एक अच्छे लड़के का अक्स उभरता भी है या नहीं...
क्या मालूम!
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