समीक्षा -
गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ
रामगोपाल भावुक
कहानियाँ काल विशेष की धरोहर होतीं है। उन्हें जब हम पढ़ते हैं तो वर्तमान को सामने रखकर पढ़ना शुरू करते हैं।
राजनारायण बोहरे का कथा संग्रह गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ लम्बे समय से मेरे पटल पर हैं। बीच बीच में उसे पलटता रहा हूँ।
संग्रह में बारह कहानियाँ समाहित हैं। संग्रह की सबसे पहली कहानी है ‘कुपच’। मंजुल को विकट भूख लगी है। वह अपने पिता से कहता है कि अभी तो आधा दिन रखा है और दो बजे से पाठ शुरू होने का मतलब है-पाँच बजे भोजन, तो... क्या दिनभर भूखे ही रहेंगे अपन लोग।
...और झुंझलाते पिता न एक सूखा नारियल फोड़कर खोपरा निकाला और मंजुल को पकड़ा दिया।
म्ंजुल के पिता ने जीविका का पाण्डित्य कार्य ही स्वीकार किया था। उनकी मास्टरी तक लगी लंकिन इसलिये छोड़ दी कि उनकी ट्रेनिग के लिये दूसरे जिले में जाने का हुक्म आया था तो उन्हें यही रोजगार अच्छा लगा था। जिसमें उन्हें खूब सम्मान नजर आ रहा था। रामलीला और रामायण पाठ से दूर जाना उन्हें खल रहा था। इसी सोच में वे बीमार पड़ गये। चार महीने तक गैर हाजिर रहे फिर यह मान लिया कि अब तो नौकरी छूट गई होगी।
मंजुल को प्रसाद में मिली पंजीरी भसकनें से खाँसी आ गई। मंजुल को भूखे पेट पाँच बजे तक सूखी उल्टियाँ आने लगी। वह उल्टी करने नाली पर भागा। उसके पिताजी कह रहे थे’- पेट से ज्यादा खा लेने से हर बार उसे ऐसा होता है कुछ
ही देर में अभी ठीक हो जायेगा।
इस तरह पाण्डित्य वर्ग के स्वरूप की झाँकी देकर उनकी व्यथा को उकेरा है। पाठक इस संस्कृतिक विरारसत का आनन्द लेते हुए कथ्य से बंधा रहता है।
लेखक ने पाण्डित्य कर्म करने वालों की त्रासदी को पाठक को के समक्ष रखा है। वे पूरी तरह इसमें सफल रहे हंै। ऐसे विषय पर बहुत ही कम कलमकारों ने कलम चलाई है। देखने में यह आया है कि सभी पाण्डित्य कर्म के विरोध में लिखते रहे हैं लेकिन इस विषय पर कहानी के माध्यम से सार्थक समीक्षा करने का प्रयास बोहरे जी ने ही किया है।
इस कहानी में पाण्डित्य कार्य करने वालों की पीड़ा से पाठक को रू-ब-रू करने में कुछ बातें कहने से और रह गई होंगीं, उनसे भी वे अवगत कराना चाहते होंगे। इसी कारण शायद ‘समय साक्षी’ को प्रस्तुत किया है।
शिव प्रसाद मिश्र ने अपने पुत्र को इलाज हेतु मेडीकल कालेज में थर्ती करा दिया है। वह जीवन और मृत्यु से संधर्ष कर रहा है। इस समय सहयोग लेने के लिये वह अपने भाई हरप्रसाद के यहाँ जाने के लिये चल देते हं।
उसे याद आने लगता है चालीस वर्ष का फासला जो उन दोनों की भेंट को हो चुके हैं। मैंने मिडिल पास करके सोचा था इतनी पढाई पर्याप्त है और सोचा था कि पिताजी की गाँव में जिजमानी है। पीढ़ियों से इन्हीं के कारण जीवन आराम से कटता चला आ रहा है। छोटे भाई हरप्रसाद को पढ़ा लंेगे। अच्छी संस्कृत पढ़ लेगा तो श्रीमद्भागवत सप्ताह कर लिया करेगा।
लेकिन हरप्रसाद जब हाई स्कूल की परीक्षा पास करके घर लौटा तो पिताजी उसेे संस्कृत पढ़ने बनारस भेजना चाहते थे किन्तु उसने साफ साफ कह दिया-‘ पाडित्य के कार्य में मेरी कोई रूचि नहीं है। मै ंतो दुकान खोलना चाहता हूँ।’
यह सुनकर पिताजी ठगे से रह गये। उन्होंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वह न माना।
हरप्रसाद इस काम को हरामखोर ओर बेगारी का मिला-जुला रूप मानता है। जहाँ जिजमान गरीब है वहाँ हरामखोरी चलती है और जहाँ जिजमान तगड़ा है वहाँ उसका कोई सम्मान नहीं,फोकटिया मजदूर बन जाता है।
एक बार पिताजी ने उसे पाण्डित्य कार्य करने दरोगाजी के यहाँ भेज दिया। वहाँ से उसे दक्षिणा तो अच्छी मिली लेकिन उनका व्यवहार ठीक नहीं लगा। वह यह काम न करने की बात पर अड़ गया और चूपचाप गाँव से चला गया। जाकर एक कपड़े की दुकान पर नौकरी करली।
यह बात माता पिता को पता चली तो उसकी माँ ने पति को समझाया। पिता मान गये और उन दोनों भाइयों की शादी के बाद पुरखों के दस बीघा खेत का आधा हिस्सा बेचकर तीस हजार रुपये उसे दे दिये। उसने उनसे एक जूतो की दुकान पंड़ित शू स्टोर खोल ली। दुंकान चल पड़ी लेकिन पिजाजी को यह बात ठीक नहीं लगी और उनने उससे नाता ही तोड़ लिया। इसी सोच में वे चल बसे।
उनकी त्रयोदशी के बाद लौटते समय उसने अपने भाई से कहा-गाँव छोड़ दो और शहर में आ जाये, बहाँ आकर दुकान खोल ले पर वे नहीं माने थे।
डाक्टर ने लड़के के इलाज में हजारों रुपये का खर्च बतला दिया है। आज बच्चे की स्थ्तिि के कारण उन्हें लम्बे अन्तराल के बाद उसके यहाँ जाना पड़ रहा है।
हर प्रसाद ने भाई को दूर से ही पहचान लिया। वह दुकान से बाहर निकल आया। बोला- ‘काये दद्दा का बात है?’
उसकी बात सुनकर वे रो पड़ते हैं। इस कहानी में भी पाण्डित्य वर्ग के बदलते स्वरूप का चित्रण है।
इस तरह पाण्डित्य का कार्य करने वाले पण्डित इस ओर से भाग रहे हैं। निश्चय ही कथाकार को यह कहानी कह कर संतोष का अनुभव जरूर हुआ होगा। मै देख रहा हूँ यह काम करने वाले अब किसी दूसरे काम की तलाश में हैं। उनका माँग कर खाने वाली सोने की झोली से मोह भंग हो गया है। वे वर्तमान की स्थिति से अबगत हो चुके हैं।
मलंगी- बोहरे जी की यह चर्चित कहानी है। मैंने इस कहानी का बाचन विदेश की एक चर्चित संस्था द्वारा किये जाने पर, उसे मन लगाकर सुना है। हमारी तरह जानबरों में भी समझ और संवेदना होती है।
उस मोहल्ले के बच्चे और बूढे सभी मलंगी से प्यार करते हैं। मलंगी यानी मोहल्ले की सबकी पालतू कुतिया। उसका परिवार भी इसी मोहल्ले में रहता था। वह रात में सारे मोहल्ले की चैकीदारी करती है। खेल खेल में कुए को फाँदना, लगूर से उसेी दोस्ती और उसकी सोहबत में उसके घायल होने से सभी को दुःख हुआ था। मोहल्ले के लोगों द्वारा उसका डाक्टर से इलाज कराना। मानवीकरण की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की है। पालतू जानवरों पर ऐसी कहानियाँ कम ही देखने को मिलेंगी।
पाठक रचना में अपने आप को भागीदार बना लेता है। यह कहानी पाठक के जहन में अपना स्थान बना लेती है।
मृग छलना में असफल प्रेम प्रसंग की कहानी है। शुरू शुरू में लगता है, मधु और परेश में उनके सच्चे प्रेम की तस्वीर भाषित होती है। परेश इतना भावुक हो जाता है कि वह मधु के पीछे भागता दिखाई देता है। जबलपुर में जब वह उसके घर जाता है तो पहुँचते ही खाने की थाली सामने आना। यानी खाओ और खिसको। उन दिनों राकेश उनके यहाँ आता है तो उसके प्रेम का रूप ही बदल जाता है। अखिर में तो मधु स्वयम् गेट खेलकर कह देती है फिर कभी ही आइएगा।
परेश जबलपुर से लौटते समय सोचता है- शायद मधु किसी वजह से परेशान थी। खैर अगली बार देखेंगे। यानी मृग छलना में ही कहानी का निराशापूर्ण समापन हो जाता है।
जमील चच्चा कहानी भी वर्ग के बदलते स्वरूप की कहानी है। जमील चच्चा की साइकल और उसका पम्प चालीस वर्ष से सेवा करते चले आ रहे हैं। लोक निर्माण विभाग में दैनिक भोगी कर्मचारी निकाल दिये जाते हैं। जमील चच्चा के दो लोग बरवाद हो जाते हैं।
उनका बड़ा लड़का तहसील में चपरासी बन जाता है बाद में पढ़़ाई करके पटवारी बना बैठा है। वे भी कामठी से रिटायरमेंन्ट के दो वर्ष पहले बाबू बन पाये हैं। वे कल्लू पहलवान से हड़डी के चटक जाने एवं नश हट जाने पर मालिस करके उसे ठीक कर देते हैं। अब वे घर चलाने के लिये मन्दिर के किनारे एक गुमटी लेकर वहाँ बैठने लगे हैं। लोग समय से उनके पास आ जाते हैं। उससे घर चल जाता है। उनका छोटा लड़का इस काम को सीख सकता है लेकिन उसे किसी की मालिस करने में बेइज्जती लगती है। वे सोचते है वे यह हुनर मंगल को सिखा देंगे।
वे सोचते हैं- ऐसो गुण सिखाने के लिये न बेटा देखा जाता है न दुश्मन। हाथ की कला तो उसें सौपना चाहिए जो उसकी कद्र जानता हो। न इसमें जाति पँाति देखी जाती है न धर्म। अब अगर उनके बच्चे यह काम न करें, अपनी मर्जी का काम करें और खुश रहें।
जमील चच्चा की इसी सोच ने लेखक को प्रभावित किया होगा और उन पर मानवतावादी सोच की यह कहानी लिख गई।
साइकल वाले जमील चच्चा की कहानी के वाद ताँगे वाले टीका बब्बा की कहानी ‘उम्मीद’ की चर्चा करें। टीका बब्बा एक अच्छे किस्सा गो भी हैं। किस्सा सुनने के लोभ में लेखक अपनी पढ़़ाई के दिनों में इनके ताँगे से सैर करता रहा है। गुना शहर में ऐनेफेल कारखाने के लगने के वाद क्या क्या परिवर्तन आये हैं , इन्हें टीका बब्बा से सुनने में जो मजा आता है वह औरा किसी से नहीं।
वे अपने जीवन की यथार्थ कहानी भी सुना देते हैं। उनके वंश का एक मात्र चिराग मुरारी को भाग दौड करके इसऐनेफेल कारखाने में लगवा देते हैं। कुछ दिनों वाद एक दुर्धटना की बात सुन कर वे उसकी तलाश में जाते हैं। पता चलता है उनका वंशज मुरारी तो किसी दूसरे मंुशी के साथ कहीं और चला गया है। वे इस उम्मीद में जीते रहते हैं कि एक दिन वह जरूर लौट कर आयेगा।
इस तरह साइकल वाले जमील चच्चा और ताँगे वाले टीका बब्बा की पाािरवारिक जीवन की एवं बढ़ती संवेदनहीनता की कहानियाँ हैं।
‘उजास’ कहानी तो विलुप्त होती संवेदना की है। भूपत आॅपरेशन की टेविल पर पड़ा सोच रहा है कि उन्होंने पुत्र विपुल के यहाँ जो इसी कस्बे में नायव तहसीलदार है, उसके यहाँ गाँव से आकर रहना शुरू कर दिया है।
वे सब्जी मण्डी से सब्जी लेकर लौट रहे थे कि एक गुण्डे ने सरे आम एक आदमी के सीने में छुरा भौक कर भागने लगा उस समय वे वहीं थे। उस तड़पते आदमी को देखकर वे हथप्रभ से होकर रह गये। उस समय इन्हें न उस पर दया आ रही थी न उसकी चीखें ही सुनाई दे रहीं थी।
दो तीन माह में तो वे पूरी तरह संवेदन हीन हो गये। अस्पताल में भर्ती करा दिया। इनके इलाज के लिये अमेरिका से इन्जेक्शन मगाया जा रहा है। उसके आने में देर हो रही है। इनका वार्ड ओपरेशन थियेटर से लगा है। बुपुल बाहर से आकर बतलाने लगा- पापा यहाँ एक भिखारिन पागल महिला जो इलाज के लिये लाई गई है उसका किसी बड़े आदमी की कार से एक्सीडेन्ट हो गया था,ये सब कपड़ा मार्केट के बडे व्यापारी है। सब उसकी मदद के लिये दौड़ पड़े हैं। उसे खून चढ़ाया जाना है तो सभी उसे खून देने के लिये आगे आ रहे हैं।
यह सुन कर सुनकर उन्हें लगा- यानी कि संवेदना अभी शेष हैं। मानवता अभी जिन्दा है। बात इतनी नहीं विगड़ी जितनी वह मानने लगा था।
यह सोचने के वाद उन्हें प्रकाश की किरण दिखाई देने लगी। वह ठीक होने लगे और कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह ठीक हो जायेंगे।
लेखक ने एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की कहानी प्रस्तुत की है। ऐसी कहानियाँ मुूझे कम ही पढ़ने को मिल पाईं हैं। इसमें लेखक ने संवेदना की गहरी डुबकी लगाई है।
हडतालें जारी हैं में एक जीर्ण-शीर्ण कपड़े पहने एक मीना नामकी महिला एक जनसेवक नेता गाोपाल जी के दर पर मदद की याचना लेकर पहुँची। सफेद उजले खादी के कपड़े पहने गाोपाल जी उसकी सुन्दरता देखते ही रह जाते हैं। वे उसे साँत्वना देते हुए दूसरे दिन शहर से दूर अपने वंगले पर बुलाते हैं। उसकी खाने और उसके लिये पहनने के कपड़े देकर उसे अहसान में दवाते हुए उसकी योग्यता इत्यादि पूछ लेते हैं इससे उसे लगता है वे जरूर मदद करेंगे।
दूसरे दिन आवासिय इलाके से दूर वह ताँगे से उतरकर गेट पर पहुँची। दूर सड़क के उस पार होस्टल के अहाते में कुछ छात्र बाँली बाल खेल रहे थे। वह उस अहाते में प्रवेश कर गई। गेट कीपर काले खाँ ने आस पास का जायजा लेते हुए गेटबन्द कर दिया।
उसी समय एक आदमी उसके पास आकर बोला- साहब आपको याद कर रहे हैं-‘चलो’
मीना उसके पीछे चल दी।
कमरा बड़ा शानदार एवं सुसज्जित था। आहट पाकर गोपाल जी की उसकी ओर आँखें उठी। बोले’ आओ, मीना मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था।’ वे उठे और बाँह पकड़कर सोफे पर बैठा दिया। वे उसे सामने खड़े होकर निहारने लगे। मीना को यह बहुत बुरा लगा।
उसने कमरे का अवलोकन किया, दीवारों की पेंन्टिग अश्लील और भद्दी थी। गोपाल बाबू ने फ्रिज से पेय पदार्थ के जाम लिये। मीना सब कुछ समझ गई। गोपाल बाबू ने उसे निकट आने के लिये निवेदन किया। वह बोली-‘ मैं आपकी बेटी जैसी हूँ। आप मेरे पिताजी के उम्र के हो। वह नहीं मनी तो उसने उसकी साड़ी पकड़ ली। साड़ी किवाड़ में उलझकर फटती चली गई। बचाव में गाोपाल बाबू के सिर में चोट लग गई। खून बहने लगा।
वह कैसे भी वहाँ से निकलने में सफल रही। सामने होस्टल था। वह उसमें दाखिल हा गई किन्तु वह बेहोश हो चुकी थी।
एक स्वर उसको सुनाई दिया-‘ आँखें खोलो बहन उठो...’ उन बुर्जुग सज्जन ने उसे शोल ओढ़ा दी।
घटना सुनकर नगर की तरुणाई जाग उठी। एक जलूस का रूप हो गया । गोपाल बाबू मुर्दाबाद के नारे लगने लगे। उनके पुतले में आग लगाई गई।
गोपाल बाबू इस चोट से तिलमिला उठे। उन्होंने चार छह जगह फोन लगाये। शाम होते होते मामला बदला हुआ दिखई देने लगा। नगर की दो महिला संस्थाओं ने छात्र संघ के अध्यक्ष रमेश और उनके साथियों के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराई। अब दूसरा जुलूस निकाला गया जिसमें बलात्कारी रमेश को गिरफ्तार करने की मांग की जा रही थी।
मीना ने उन्हें बचाने के लिये बहुत से लोगों से मिन्नतें की, पर उसकी बात को कोई सुनने तैयार नहीं था। लोग तो गोपाल बाबू से डर कर कुछ भी नहीं कह पा रहे थे। मीना चैराहे पर बैठी कांप रही थी।
इस स्थिति से निपटने तीसरी ओर तरुणाई हड़ताल करने के मंसूवे बना रही थी।
यानी सोच समझकर कहीं कुछ नहीं है सब अंधेरे में तीर चला राहे हैं। लेखक ने सफलता पूर्वक व्यवस्था का नग्न तंड़व इस माध्यम से सफलता पूर्वक रच डाला है। कहानी में व्यवस्था की शल्य क्रिया की गई है।
‘अपनी खातिर’ कहानी में लोकगीतों के माध्यम से कामद का मन खो जाता है। वह अपनी छोटी बहन से पूछ रही थी कि कैसा लड़का है? क्या करता है? मगेतर की शक्ल सूरत के वारे में जानकारी प्राप्त करना स्वाभाविक है। बहन से पता चला कि शादी अगले महिने बाइस तारीख की है।
वह इन दिनों पति की कल्पानाओं में खोई रही।
शादी का समय आ गया। व्याह की रस्में की जाने लगीं। बारात द्वार पर आ गई। देर रात बाद घर लौटे तो पापा ने अपने आप को कमरे में केद कर लिया। घर के सभी लोग चिन्तातुर दिख रहे थे।़़़
कामद मेकप से लिपटी मंच पर पहंँची पति को बरमाला डालते हुए निगाहें नीचे किये रही।
व्याह की रस्मे पूरी हो गईं। दूसरे दिन डोला में बैठकर ससुराल आ गई। बहुप्रतीक्षित दिन आ गया, पति विशन ने कक्ष में प्रवेश किया। सेहरे में छिपा चेहरा अब सामने था। वह चालीस की उम्र से कम न थे। कनपटियों के ऊपर सफेद बालों का गुच्छा दूर से चमक रहा था। उसकी कमनीय मूर्ति खण्डित हो गई।
कामद के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। इस स्थिति में वे दोनों एक नहीं हो सके। तीन दिन तक वह बेहोश सी रही। चैथे दिन भैया के साथ बापस घर पहुँच गई। उसने देखा सारा परिवार उससे आँखें चुरा रहा है। कामद एक दम सख्त हो गई। उसने घोषणा करदी वह कभी भी ससुराल नहीं जायेगी।
जैसे तैसे जीवन चलने लगा। उसने हायर सेकेन्ड़ी की थी, अब वी.ए. का फार्म भर दिया। एक वार वे लेने आये तो भैया ने उदण्डता पूर्वक माना कर दिया। कामद ने वी. ए. पास करके तहसील में टाइपिस्ट की नौकरी करली। जीवन धारा का प्रवाह बह निकला।
कपिल इस कार्यालय में अचानक आया था। जल्दी ही दोनों के जुड़ने की चर्चा हो उठी। एक दिन उसने शादी का प्रस्ताव रख दिया। वह हक्का बक्का रह गई। उसने अपने जीवन की त्रासदी से परिचित कराया- उसने कहा मैं वर्तमान में जीना चाहता हूँ। मुझे तुम्हारे अतीत से कोई लेना देना नहीं है।
कामद घर आकर मम्मी से सब कुछ कह दिया। अब तलाक लेने के लिये अदालत का दइरवाजा खटखटाया। पहली वार में दोनों पक्षों की सहमती न होने के कारण अर्जी खारिज हो गई। पुनः अरर्जी लगाई गई। लम्बा मुकदमा चला।
कल उसी की पेशी है। उसे नीद नहीं आ रही है । वह सोच रही है इस प्रकरण में दोषी कौन है। अन्त में वह सोचती है विशन से अलग होने का फैसला उसने कपिल की खातिर नहीं लिया था, अपनी ख्,ाातिर भी वह ऐसा ही चाहती थी।
इस कहानी में बेमेल विवाह के विरोध में कहानी की नायिका की सजगता से अपनी खातिर लिया निर्णय है।
सन् 2002 में लिखित ‘बेटा’ कहानी पढ़ने के वाद वर्तमान में कोरोना महामारी जैसी बीमारी का सोसल डिस्टेन्स बाला दृश्य पढ़कर पाठक का हृदय भर आता है।
कुत्ते के काटने से मरीज की जो स्थिति होती है उसके वायरस सम्पर्क में आने से फैलने की सम्भावना रहती है। माँ के अनचाहे बेटे की कहानी है। माँ उसे प्यार नहीं देती, बच्चे को जब यह पता चलता है कि मैं मर जाउंगा। अपने छोटे भाई को गले लगाना चाहता है। उसे कोरोना के मरीज की तरह पी पी ई किट से ढक कर गले लगाता है और कहानी के अन्त में तो माँ भी उसे गले लगा लेती है। उस स्थिति में पाठक भी अपने आँसू रोक नहीं पाता है।
इस तरह कहानी दुखान्त होते हुए करुणा पूर्ण सुखान्त में बदल जाती है।
संग्रह के नाम करण वाली कहानी गोष्टा एक ऐसी घरोहर कहानी है जो भारतीय संस्कृति का साक्षत् दिग्दर्शन कराती है। इस युग से पहले लोगों का कार्य व्यवहार गोष्टा संस्कृति पर आधारित था। उनके आपस के कार्य व्यवहार गोष्टा के आधार पर संचालित होते थे। आज यह संस्कृति लुप्त हो गई है। लेखक ने इसे पाठकांे के समक्ष सफलता पूर्वक रखा है। पाठक कहानी में उन पात्रों से रू- ब-रू हो कर कहानी का हिस्सा बन जाता है।
संग्रह की सभी कहानियों का प्रभावपूर्ण चित्रण पाठक आत्मसात करता चला जाता है। इन कहानियों में संवाद सहज बनकर पात्र के चरित्र को उजागर करते जाते हैं। प्रत्येक कहानी का वातावरण सजीव हो उठता है। कहानियों की भाषा पात्रों के अनुसार अपने आप बदलती चली जाती है। प्रत्येंक पात्र की भाषा अपना अस्तित्व व्यक्त करने में समर्थ है। जितने पात्र उतनी ही प्रत्येक की अलग अलग कहन।
पाठक को कहानियाँ विचार करने को विवश कर देतीं हैं। निश्चय ही ऐसी कहानियाँ पढ़ी जानी चाहिए।
ऐसे सफल कहानी संग्रह के लिये राजनारायण बोहरे को साधुवाद।
दिनांक-5.12.20
रामगोपाल भावुक
पुस्तक का नाम- गोष्टा
कथाकार- राजनारायण बोहरे
प्रकाशक-मेघा बुक्स दिल्ली -110032
मूल्य-100
वर्ष- 2002
समीक्षक- रामगोपाल भावुक
मो-9425715707