पुस्तक समीक्षा-
कबूला पुल महेंन्द्र फुसकेले
हिन्दी कहानी आज अनेक आयामों के साथ अपने एक बेहतर युग में आ पहुंची है। आज अनेक शिल्पों और शैलियों में कहानी लिखी जा रही हैं तथा हिन्दी का आम पाठक एक बार फिर कहानी की ओर मुड़ा है। कहानी लिखना बहुत मशक्कत मांगता है। तमाम अनिवार्य और आवश्यक चीजें कहानी लिखने के लिये जान लेना बेहद जरूरी होता है।
महेंन्द्र फुसकेले की कहानियों का संग्रह “कबूला पुल“ पिछले दिनों पढ़ने को मिली। इस संग्रह की कहानियों को देखकर एक ही नजर में पता लग जाता है कि लेखक के पास कथानकों की कमी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता हैं कि लेखक मन की गहराई से समाज से जुड़ा हुआ है। पर यह भी प्रतीत होता हैं कि हर कथानक को कहानी बना ड़ालने की लेखक की जिद उसें पक्षी रचनाओं का सूजेता बना रही हैं व जिन्हें आधी-अधूरी या कमजोर कहानियां कहा जा सकती हो।
प्रस्तुत संग्रह में चौबीस कहानियां और एक वैचारिक आलेख शामिल है। पहली कहानी ”ड़ालरों के देख की कहानी” में एक शिक्षक द्वारा अमेरिका की एतिहास एवं विचार कथा छात्रों को सुनायी गयी है। कहानी का स्वरूप शैली और भाषा इसे कहानी कम और पाठ्यक्रम का हिस्सा ज्यादा मानने को विवश करती है। इसी तरह ताज की छांह में हिली मिली दों बालें आयी जैसी रचनायें है जो कहानी के बजाय निबंध के ज्यादा निकट है।
कहानी के लियें पात्रों के अन्तर्मन में प्रवेश कर पाने की प्रवीणता और कुछ कहे बिना ही एक सार्थक संदेश दे जाने की कला बहुत जरूरी होती है। संग्रह की कहानियों में इस कला और कौशल का फुसकेले में सिरे से ही अभाव दिखता है। अन्र्तद्वंद्व का अभाव इन कहानियों को जहां सतही और हल्का बनाता हैं, वहीं लेखक खुद अपने विष्लेषण और संदेश सीधे-सपाट शब्दों में पाठक को दे ड़ालने का आतुर सा भी दिखता हैं, और इस कारण कहानी का सारा आकर्षण समाप्त हो जाता है। प्रस्तुत संग्रह की कई कहानियां पढ़कर यह पता ही नहीं चलता कि लेखक ने यह कथानक क्यों चुना और वह कहना क्या चाहता हैं? ऐसी कहानियों में पैदली मात, हिलीमिली दो बालें आई, ताज की छांह में , मस्तुल जो ड़ूब नहीं सके, कीचड़ और कमल, कबूला पुल, नायलोन का आदमी प्रमुख है।
लेखक वामपंथी विचारधारा से जुड़ा हुआ रचनाकार हैं, इसलिये वह अपनी रचनाओं में ऐनकेन प्रकारेश वामपंथ की हिमायत ठूंस देता हैं, और इन उथली रचनाओं से लेखक व विचारधारा से जुड़ा हुआ रचनाकार हैं, इसलिये वह अपनी रचनाओं में अनेक प्रकारेश वामपंथ की हिमायत ठूंस देता हैं और इन उथली रचनाओं से लेखक व विचारधारा दोनों को ही नुकसान होता है। फार्मूला क्रांति और सिरपर पटक देने वाले अंदाज से आंदोलन शुरू करवा देना ऐसे कहानियों का अच्छा खासा बन रहा प्रभाव नष्ट कर देता हैं जैसे अहिंसक क्रंाति, एव व जसोदा की कहानी, चूड़ियों की खनक आदि कहानियां।
भाषा के मूद्दे पर लेखक ने अनेक स्थानों पर कुछ प्रयोग करने का साहस किया हैं, और वर सराहनीय है, पर ऐसे प्रयोग नये न्यून होने के कारण स्मरणीय के योग्य नहीं है। कुछ तो कथानक भी बहुत उम्दा तरीके से उठायें हैं, लेखक नें। उनकी कुछ कहानियां यदि विस्तार और गहराई पा लेती तो बेहद अच्छी कहानी बन सकती थी। जैसे गेंहू की बाल एवं अहिंसक क्रांति। लेखक जल्दबाजी में सबकुछ समेटने का यत्न करता हैं इस कारण पूरी तौर पर सफल नहीं हो पाता।
इन कहानियों के अध्ययन से एक बात और पता चलती हैं कि फूसकेले जी की कहानियों में अतिवाद है। भुखमरी का जिक्र हो या मजदूर की बदहाली का, फैशन की बात हो या फिर अत्याचार, इन कहानियों में हर चीज क्लाइमैक्स पर ही मौजूद है। स्थितियों का आहिस्ता विकास इन कहानियों में नहीं है। सक्ष्मेतः कहा जा सकता हैं, कि फुसकेले यदि धैर्य पूर्वक, जमीन से जुड़कर रचना लिखें तो वह बेहतर कहानियां दे सकते हैं, पर इसके लिये उन्हें एक-एक कहानी पर खूब-खूब मेहनत और विचार करना पड़ेगा। प्रस्तुत संग्रह तो कमजोर व कच्ची कहानियों का उबाऊ संग्रह भर कहा जा सकता है।