Truth of darkness in Hindi Horror Stories by Gopal Mathur books and stories PDF | अँधेरे का सच

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अँधेरे का सच

मैं अचानक लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर ठिठक गया. मैंने देखा, मेरे साथ साथ धूप भी उतरने की तैयारी में थी. थोड़ी देर और यह धूप यूँ ही यहाँ रुकी रहेगी और फिर लाइब्रेरी की खिड़कियों और मेहराबों और झरोखों और बुर्जियों से होती हुई उस शाम को जगह देने लगेगी, जो हमेशा धूप के जाने की प्रतीक्षा में दिन के मुहाने पर खड़ी रहती है.

भावना मेरे पीछे पीछे आई.

हमेशा की तरह इस बार भी वह जल्दी में थी, हालांकि वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि इतनी जल्दी उसे आखिर जाना कहाँ था ! पर  यह कोई नई बात नहीं थी. न जाने कितने लोग होते हैं, जो हमेशा जल्दी में रहते हैं, बस, भागते रहते हैं. कौन जानता है, उनमें से कुछ पहुँच भी जाते हों !

मुझे कोई जल्दी नहीं थी.

वह सीधी मेरे पास नहीं आई. सीढ़ियाँ उतरने से पहले वह कुछ देर पोर्च में खड़ी रही. एक अजीब सी बेचैनी उसके चेहरे पर झलक रही थी. हमेशा की तरह उसके कन्धे पर झोले नुमा एक बैग लटका हुआ था, जिसमें वह कुछ किताबें रख रही थी. उसे पता ही नहीं था कि जाती हुई धूप उसके पाँवों में बिछी हुई थी.

मैंने जल्दी से उसे अपने पास आने का इशारा किया. मुझे डर था कि कहीं वह मुझे बिना देखे चली न जाए !

......इस ओर देखो भावना, यहाँ, लाइब्रेरी के सामने, फैंस के दूसरी ओर, यह मैं हूँ, तुम्हारे आने की प्रतीक्षा करता हुआ. तुम जब पास आओगी, मैं सारे दिन के अपने अनुभव तुम्हारे बैग में उंडेल दूँगा. वहाँ तुम्हारी किताबें होंगी, नोट्स होंगे, लंच बाॅक्स होगा और होंगी ढेर सारी आकांक्षाएँ, ढेर सारे सपने, जिन्हें तुमने अपने रुमाल में बाँध कर बैग की जेब में रख रखा होगा, हमेशा की तरह....

अपने अनुभव तुम्हें सौंप कर मैं एक बार फिर खाली हो जाना चाहता हूँ. किसी सूखे हुए कूए सा खाली या फिर सफेद कॅनवास सा कोरा, ताकि कल कुछ और झूठे सच्चे अनुभव जमा कर सकूँ.

जब वह मेरे पास आई, तब वह जोर जोर से हांफ रही थी, थकान से उतना नहीं, जितना अस्थमा से, जिसे पिछले छः सालों से वह अपने साथ लिए घूम रही थी, उसकी अन्तिम स्टेज पर. कुछ देर पहले जिस बेचैनी को मैंने उसके चेहरे पर देखा था, वह बेचैनी इसी बीमारी का ही परिणाम थी. आते ही वह नीचे घास पर लगभग लुढ़क ही गई, जैसे अपने प्राण लाइब्रेरी में ही भूल आई हो. उसने अपना झोला उतार फैंका था और जल्दी जल्दी उसमें इनहेलर ढूंढ़ रही थी.

मैं इनहेलर ढूंढ़ने में उसकी मदद करने लगा. इनहेल करने से उसे कुछ आराम तो मिला, पर अभी उसने लम्बी लम्बी सांसें लेना बन्द नहीं किया था. इनहेलर की दवाई उसकी गले की सिकुड़ी हुई नसों को सामान्य बनाने में अपना समय ले रही थीं. भावना की अँगुलियाँ रुके हुए पानी के स्पंदन सी फड़फड़ा रही थीं, मानो पानी के भीतर मछलियों की अनचाही हलचल से पानी को गहरी यातना हो रही हो. मैंने उन अँगुलियों को सहलाया. वे एकदम ठण्डी थीं, लगभग निर्जीव, जैसे उनकी आत्मा निकल गई हो.

”भावना....“ मैं बुदबुदाया. मुझसे मेरी ही आवाज पहचानी नहीं गई. वह मेरे गले में किसी भंवर सी गोल गोल घूम रही थी.

पता नहीं उसने मुझे सुना कि नहीं ! शायद वह कुछ भी सुनने या नहीं सुनने की सीमा के बाहर थी. वह सिर्फ अपने में थी, जहाँ खुद के लिए कुछ सांसें जुटा लेने के अतिरिक्त कुछ भी मायने नहीं रखता.

आहिस्ता आहिस्ता उसकी चेतना लौटने लगी. अपनी चेतना की चैखट पर उसने मुझे खड़े पाया. मैं उसे अपने संसार में खींच रहा था, जहाँ वह मुझे पहचान सके, स्वयं अपने को पहचान सके. जान सके कि उसकी हाँफती काँपती सांसों से अलग भी एक दुनिया है.

उसने अपने दोनों हाथों से मुझे कस कर पकड़ लिया, जैसे मैं उसे वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँ उसे जाना है.

.....भावना, तुम्हें कहीं नहीं जाना, मुझे भी कहीं नहीं जाना, हमें यहीं रहना है, उन सांसों के साथ, जो जीने में मरने का और मरने में जीने का भ्रम देती रहती हैं.....

शाम का उजास पसरने लगा था. पहाड़ी पर मंदिर की बुर्जी से धूप का अन्तिम टुकड़ा अभी अभी विदा होकर अपनी उदासी छोड़ गया था. लाइब्रेरी के पोर्च पर, जहाँ से सीढ़ियाँ शुरू होती थीं, एक अपरिचित लड़की हाथ बाँधे हुए चुपचाप अकेली खड़ी थी.

”भावना.....“ मैंने दुबारा उसका नाम पुकारा. इस बार मेरी आवाज़ कागज़ की गेंद की तरह हवा में लुढ़कती हुई सी उसके कानों तक पहुँची. उसने उसे सुन लिया था.

उसने उसे सुन लिया था, पर कहा कुछ नहीं. मैं जानता था कि वह कुछ नहीं कहेगी. उसकी थकी हुई सांसें उसे कुछ कहने नहीं देंगी. वह सीधे होकर बैठने की कोशिश करने लगी. उसने मेरे हाथों को और भी मजबूती से पकड़ लिया था. शायद विश्वास करना चाहती थी कि वहाँ वह मैं ही था.

”क्या मैं बेहोश हो गई थी ?“ उसने पूछा. उसका प्रश्न एक यन्त्रणा बन कर उसकी आँखों से बाहर झाँक रहा था.

”बिल्कुल नहीं..... तुम सिर्फ सांस नहीं ले पा रही थी.“ मैंने कहा. मुझे यह कहने में संकोच हो रहा था कि उसे अस्थमा का अटैक हुआ था. कुछ देर वह चुप रही. फिर उसकी धीमी सी आवाज आई, ”मुझे वहाँ नहीं जाना चाहिए था....“

”कहाँ नहीं जाना चाहिए था ?“ मैं डर गया था, जैसे अब भावना कोई गहरा भेद खोलने वाली हो.

”प्रोफेसर झा के कलेक्शन में, जो उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले लाइब्रेरी को डोनेट किया था......“ वह बोलते बोलते रुक गई. रुक गई कहना भी गलत होगा, वह ठिठक गई थी, जैसे लोग रास्ते के बीचों बीच रुक कर पीछे देखने लगते हैं, मानों किसी ने उन्हें पुकारा हो.

मैं उसे लगातार देखता रहा.

”वहाँ कोई नहीं जाता, हिस्ट्री के स्टुडेन्ट्स भी नहीं, जब कि वहाँ हिस्ट्री के अलावा और कोई दूसरी किताब है ही नहीं.....“ अपनी उखड़ी हुई सांसों को एक ओर सरकाने की कोशिश करते हुए उसने कहा.

”तुम वहाँ क्यों गई थी भावना ? हिस्ट्री तो तुम्हारा सब्जेक्ट है भी नहीं !“ इस बार मेरा डर मुझसे बाहर झांकने लगा था, जैसे तालाब में डूबी कुछ चीजें थोड़े समय बाद स्वतः ही ऊपर तैरने लगती हैं.

वह कुछ कुछ सामान्य होने लगी थी, उसकी सांसों का थरथराता उतार चढ़ाव मैं अपने भीतर तक महसूस कर सकता था. पर मैं जानता था कि उसका यह सामान्य होना ठीक वैसा ही था, जैसे तूफान के बाद फूस की झोंपड़ी का बिखरा हुआ होना.

”जानते हो मुझे वहाँ जाकर कैसा लगा......!  जैसे मैं किसी ऐसे वीरान ग्रेवयार्ड में पहुँच गई हूँ, जहाँ कोई आता जाता नहीं..... बिछुड़ जाने वालों को हम कितना जल्दी भूल जाते हैं !“ क्षण भर के लिए वह रुकी, मानो शब्दों के ऊहापोह में अपने शब्द ढूंढ़ रही हो, ”यह मैं वहाँ हिस्ट्री की किताबों में बन्द पात्रों के लिए नहीं कह रही हूँ, बल्कि प्रोफेसर झा के लिए कह रही हूँ, जिनकी वे किताबें थीं, जिन्होंने कभी उन्हें इकðा करने में अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया था और जिन किताबों के साथ उनका होना जुडा हुआ था.“

मैंने आहिस्ता से अपने हाथ छुड़ाए और उसकी हथेलियों को सहलाने लगा, जैसे सहलाने भर से वह अपने दुःस्वप्न से बाहर आ जाएगी. पर कुछ दुःस्वप्न उम्र भर तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ते. किसी भी अनजान क्षण में वे तुम्हें पकड़ लेते हैं, अपने जीवित होने की घोषणा में, और तब यह तय कर पाना बेहद कठिन हो जाता है कि वे तुममें में थे कि तुम उनमें !

”भावना.....“

”जल्दी ही एक दिन आएगा, जब मैं भी नहीं रहूँगी.... मेरी तो कोई किताब भी नहीं, जो मुझे जिन्दा रख सके....“ उसकी आवाज किसी कहानी के पात्र सी महसूस हो रही थी, जो छपे शब्दों की मृत दुनिया लांघ कर बाहर आ गया हो.

”भावना, प्लीज़, ज्यादा मत बोलो, तुम्हें साँस की जरूरत है.“

थोड़ी देर वह मुझे देखती रही, उसकी आँखें खाली थीं, जैसे वह उन्हें प्रोफेसर झा के कलेक्शन में छोड़ आई हो और वहाँ का घनीभूत खालीपन अपने साथ उठा लाई हो.

वह अब भी मुझे लगातार देख रही थी. क्षण भर के लिए मुझे लगा, जैसे वह मुझे पहचानने की कोशिश में हो.... क्या मैं पहचान से बाहर चला गया था ! कहीं ऐसा तो नहीं था कि वह ही पहचान से बाहर चली गई    थी ! वे अ-पहचान से पहचान तक लौटने के उलझन भरे संकट के क्षण थे.

फिर बिना एक भी शब्द बोले वह संभल कर उठने लगी. मुझे उसे सहारा देना पड़ा, ”अब हमें चलना चाहिए.....“ उसने कहा और अपना झोला कन्धे पर डाल लिया. अब भी उसकी लम्बी लम्बी हांफती साँसें किसी उमड़ती हुई बेलगाम नदी सी उमड़ रही थीं.

मैं भी यन्त्रवत सा खड़ा हो गया, मानों न जाने कब से उसके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था. उसका झोला उसके कन्धे से उतार कर अपने कन्धे पर डाला, जिसमें उसका काॅलेज, अस्पताल और घर सब साथ साथ चलते थे. उसने मुझे भी उसमें सावधानी से रख रखा था, किसी कोने में, किसी जेब में या फिर उसके नोट्स के बीच. शायद यह महत्वपूर्ण था भी नहीं कि मैं वहाँ कहाँ था, बस, महत्वपूर्ण यह था कि मैं वहाँ था. झोले के बिना उसकी कल्पना तक असंभव थी, वह उसके वजूद का एक अहम हिस्सा हो, जैसे वह मेरे होने का भी एक आधारभूत कारण हो.

शाम पेड़ों की पत्तियों से होती हुई सड़क तक पहुँच गई थी. जिन सड़कों पर सारा दिन लड़के लड़कियों का मेला लगा रहता था, वहाँ इस समय सन्नाटा पसरा हुआ था. सड़क के दोनों ओर लगे अशोक के पेड़ हमें गुजरते हुए देख रहे थे. कुछ देर बाद, जब हम चले जाएँगे, ये पेड़ तब भी यहीं रहेंगे, इन्हें याद भी नहीं रहेगा कि एक शाम सड़क से गुजरते हुए हमने उन्हें देखा था.

क्या भावना अभी कुछ देर पहले यही बात तो नहीं कह रही थी ? किसी को याद रखना, चले जाने के बाद याद रखना, चले जाने के बाद हमेशा हमेशा याद रखना..... क्या यह संभव है ?

लाइब्रेरी से बस स्टेण्ड कुछ दूर था. हम धीरे धीरे चल रहे थे.सड़क के किनारे लगे लेम्प पोस्ट्स की तेज नारंगी रोशनी से शाम कुछ सहम सी गई थी. रात के ढेरों पतंगे रोशनी के गिर्द न जाने किस उम्मीद से घूमे जा रहे थे. उम्मीद कहीं नहीं थी. उम्मीद का भरोसा भी नहीं था. न उन्हें, न हमें. पर फिर भी न पतंगों ने रोशनी से मुँह मोड़ा था, और न ही हमने एक दूसरे से.

वह आहिस्ता आहिस्ता अपने कदम बढ़ा रही थी संभल कर. पूरे रास्ते हममें से कोई नहीं बोला. मैं जानता था कि इस समय भावना को बोलना भी उतना ही मुश्किल लग रहा होगा, जितना कि चलना.

बस स्टेण्ड खाली पड़ा था. हम वहीं बैंच पर बैठ गए. अभी उसके चेहरे से तनाव पूरी तरह गया नहीं था. उसने मुझे देखा, जैसे किसी आॅब्जेक्ट को देख रही हो. उसकी आँखें अब तक लौटी नहीं थीं.

”निमिष.....“ वह बुदबुदाई.

”हाँ भावना, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे बिल्कुल पास....“

”क्या तुम मुझे याद रखोगे ?“ उसका थका हुआ स्वर मुझ तक लुढ़कता हुआ सा आया.

”यह तुम क्या कह रही हो ! तुम जानती हो.....“

”मैं आज की बात नहीं कर रही हूँ..... बाद में, जब मैं नहीं रहूँगी.....“ वह फुसफुसाई.

”तुम्हारा मतलब है, तुम्हारे घर जाने के बाद ?“ मैंने बढ़ते हुए तनाव को कम करने के लिए मुस्करा कर कहा. हालांकि मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि वह किस जाने की बात कर रही थी. कितनी अजीब बात है. न जाने कितनी बार हम जानते बूझते हुए भी प्रश्नों को टालने की कोशिश किया करते हैं, जब कि इन कोशिशों से न तो प्रश्न खत्म होते हैं और न ही उलझी हुईं मनःस्थितियाँ.

इससे पहले कि वह कुछ कहती, बस आ गई और उसके शब्द वहीं गिर गए. मैंने उन्हें उठाने की कोई कोशिश भी नहीं की.

”मैं चली जाऊँगी.“ वह पीछे घूम कर बोली, पीछे, जहाँ मैं था, उसके साथ साथ उसे खाली सीट तक ले जाता हुआ.

”मुझे कोई जल्दी नहीं है.... मुझे अपने हाॅस्टल ही तो जाना है, थोड़ी देर में चला जाऊँगा.“ मैंने कहा. मैं उसे अकेली नहीं छोड़ सकता था. मेरे डर का एक टुकड़ा अब तक मेरे साथ साथ चल रहा था. यह डर उससे जुड़ा था, उसके होने से जुड़ा था, उसकी हांफती कांपती सांसों से जुड़ा था.

वह कुछ नहीं बोली और खिड़की के पास वाली जगह पर बैठ गई. उसका झोला मेरे कन्धे पर वैसे ही लटका हुआ था. मैंने उसे उतारा और उसके पास वाली जगह पर बैठ गया.

खिड़की के बाहर नवम्बर का अवसन्न आकाश फैला हुआ था. सूरज के अस्त होते ही ठंडक दरवाजे पर दस्तक देने लगी थी. दिन की कुनकुनी धूप में सड़कों पर पत्ते उड़ा करते थे और शाम किसी शैतान बच्चे सी देखते ही देखते दौड़ कर ओझल हो जाया करती थी.

”क्या सोच रहे हो ?“ भावना ने मेरी ओर देख कर पूछा.

मैंने उसका हाथ अपनी हथेलियों में भर लिया. वे पसीने में नहाई हुई थीं, जैसे हल्के बुखार में तप रही हों. मेरा मन हुआ कि मैं उस पसीने को अपने होठांे से सोख लूँ, जैसे सोखने भर से उसकी तकलीफें भी सोख लूँगा.

”कुछ नहीं..... बस, तुम्हें ही सोच रहा था.“ मैंने धीरे से अपने दूसरे हाथ से उसका हाथ सहलाया, जैसे अपनी बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ.

”पर मैं तो तुम्हारे साथ हूँ !“ इस बार वह हौले से मुस्कराई, पर उसके चेहरे पर मुस्कराने का कोई भाव नहीं था. उसके शब्द भी उसका साथ नहीं दे रहे थे..... और तब मुझे पहली बार लगा, मानों वह वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी, उसने मुझे सहसा अकेला कर दिया था.

क्या वह स्वयं अकेला होना चाह रही थी ?

.......होता है. कई बार ऐसा होता है कि हम अपनों से भी ऊब जाते हैं, इस ऊब का कारण कुछ नहीं होता, बस, हम तब केवल अपने साथ होना चाह रहे होते हैं. अ-प्रेम नहीं, घृणा नहीं, वितृष्णा नहीं, पूर्वाग्रह नहीं, कुछ भी नहीं.... बस, कुछ पलों के लिए अकेले होना. और यह कोई छोटी चाहना नहीं होती, जिस दुनिया में हम रहते हैं, उसे लांघ कर एक ऐसी दुनिया में जाना, जहाँ हमारे अलावा कोई दूसरा न हो...

पर उस समय मैं उसके साथ था और अब कुछ नहीं किया जा सकता था, ”हाँ, तुम साथ हो, मेरे पास भी और मेरे मन में भी..... पर मैं सोच रहा हूँ उन दिनों के बारे में, जब तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी.“

उसने सहसा अपना हाथ खींच लिया लेकिन उसका स्पर्श मेरे पास छूट गया था. वह अब लावारिस लगेज़ सा मेरे पास पड़ा था. उसकी हथेलियों से चुराई हुई ऊष्मा मेरे हाथ की लकीरों पर अपना आने वाला कल लिखने में लगी हुईं थीं.

”तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, निमिष.“ खिड़की से आती तेज हवा में उसके बाल उड़ने लगे थे. उसने उन्हें ठीक किया, पर वे बार बार हवा में फड़फड़ाने लगते थे. वही हवा उसका प्रश्न मुझ तक बहा लाई थी.

”कौन सी बात..... तुम क्या जानना चाहती हो ?“

मेरी बात सुन कर उसके चेहरे पर हताशा की एक गहरी लहर उमड़ आई थी. मुझे दुःख हुआ कि व्यर्थ ही मैं उसकी हताशा का कारण बना. मेरा दुःख उसकी हताशा के कारण नहीं, बल्कि अपने असंवेदनशील हो जाने के कारण उत्पन्न हुआ था. क्या मैं सीधे सीधे उससे बात नहीं कर सकता था ! सब कुछ जानते समझते हुए भी कई बार हम ऐसी हरकत क्यों करते हैं ?

”तुम मेरा जवाब जानती हो, भावना.“ इस बार मैंने बिना उसकी कोई बात सुने उससे पूछा, ”क्या तुम मुझे याद रखोगी ?“

”जा मैं रही हूँ, तुम नहीं. याद तुम्हें रखना है, मुझे नहीं.“  एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर झलक आई थी, हालांकि इस बार भी मुस्कराहट वहाँ कहीं नहीं थी.

..... तुम कहाँ जा रही हो, भावना. तुम कहीं नहीं जा रही, तुम यहीं हो, मेरे पास.... जब हवाएँ चलेंगी और कोई मन चाहा मौसम हमारे हाथ थामे होगा, तब हम दोनों साथ जाएँगे, किसी अजनबी शहर की यात्रा पर, किसी समुद्र के किनारे..... तुम लहरों से खेलोगी और मैं दूर से तुम्हें देखता रहूँगा.... समुद्र की हवाएँ तुम्हारे बालों को उड़ा रही होंगी, तुम्हारी चुन्नी तुम्हारी कमर पर बँधी होगी और तुम अपनी सलवार ऊपर उठाए लहरों पर सवार होगी. नहीं, भावना, तुम अकेली कहीं नहीं जा सकती, तुम्हें अब जहाँ भी जाना है, मेरे साथ ही जाना है. अकेले कहीं भी जाने की स्वतन्त्रता तुम खो चुकी हो.........

”चलो कोई बात नहीं, मत करना याद, पर इतना चुप तो मत रहो !“ उसने कहा.

”मैं चुप कहाँ हूँ ! तुम से ही तो बातें कर रहा हूँ. क्या तुमने कुछ नहीं सुना ?“ इस बार मुस्कराने की बारी मेरी थी.

वह धीरे से हँस पड़ी, ”हाँ, सुना. तुम कह रहे थे जाती है तो जाए, पीछा छूटे मेरा.“

”अच्छा ! तो मैं यह कह रहा था !“

”बिल्कुल. तुम जल्दी ही मुझे भूल जाओगे. तुम्हारा तो नाम ही निमिष है.“

”पर निमिष का यह अर्थ नहीं है, जो तुम लगा रही हो. इस शब्द का मतलब है, निमिष भर के लिए इस संसार को याद रखूंगा और बाकी समय तुम्हें.....“ मुझे स्वयं नहीं मालूम कि वह कौन था, जो मुझे हाथ पकड़ कर इस उत्तर के पास ले गया था. पर जो हुआ, ठीक ही हुआ, क्योंकि मेरी बात सुन कर वह जोर से हँस दी थी.

”हँसी क्यों ?“

”इस बहाने मुझे मेरे सवाल का जवाब जो मिल गया.“

जो असहजता हमारे बीच किसी कैक्टस सी उग आई थी, उसे उसकी हँसी बुहार कर ले गई. सहसा हमारे बीच चंदन वन उग आया था. एक बार फिर उसकी हथेलियों ने मेरे हाथ को ढांप लिया था.

”तुम जाने की बात करती हो, तो मुझे डर लगता है.“ मैंने अपने दूसरे हाथ से उसकी हथेली को थपथपाया, जैसे उसे नहीं, स्वयं अपने को सान्त्वना दे रहा होऊँ.

”जब मुझे डर लगता है, तब ही मैं जाने की बात करती हूँ.“ वह बाहर देखने लगी थी, बाहर, जहाँ रंगीन लाइट्स में नहाई दुकानें थीं, कारें थीं, स्कूटर्स थे, फुटपाथ थे, भागते दौड़ते लोग थे.... न जाने कितनी कहानियाँ वहाँ बिखरी पड़ी थीं, पर पता नहीं उन कहानियों को संवारने वाला कहाँ होगा !

”पर अब तुम्हें जाना तो पड़ेगा ही !“

वह आश्चर्य से मुझे देखने लगी थी.

”अरे भई, तुम्हारा स्टाॅप जो आने वाला है.“ मैंने अपना हाथ खींच लिया, जो उसकी सफेद नर्म हथेलियों के बीच इतनी देर से पड़ा हुआ था. एक बार मैंने फिर उसका झोला अपने कन्धे पर डाला और उठ खड़ा हुआ. बिना उसकी ओर देखे मैं देख सकता था कि उसका आश्चर्य एक हल्की मुस्कान में बदल गया था. वह भी मेरे पीछे पीछे बस के दरवाजे तक चली आई थी.

”अब मैं चली जाऊँगी.“ उतरते ही उसने कहा. वह अब भी हांफ रही थी.

”नहीं, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा.“

”तुम्हें विश्वास नहीं कि मैं जा सकती हूँ ?“

”मुझे अपने पर विश्वास नहीं कि तुम्हें बिना छोड़े मैं जा सकता हूँ.“

”तुम भी....“

”क्या तुम भी ?“

”कुछ नहीं. तुम मानते तो हो नहीं !“

”तो फिर तुम ऐसी बात करती ही क्यों हो ?“ हम वहीं बस स्टोप पर खड़े खड़े बात कर रहे थे. दूसरी बसें भी वहाँ रुक रहीं थीं. कुछ लोग उतरते, तो कुछ लोग चढ़ जाते. ये वे लोग थे, जो सारा दिन की थकान अपने चेहरों पर ओढ़े अपने अपने घरों को लौट रहे थे.... कुछ घर ऐसे होते हैं, जहाँ हमेशा कुछ लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करते रहते हैं. उन्हें देखते ही तुम्हारी थकान घर के बाहर ही दम तोड़ देती है...... पर कुछ घर ऐसे भी होते हैं, जहाँ कोई तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा होता....

मेरा हाॅस्टल उनमें से एक था.

उसका घर पास ही मेन रोड पर था, दो मंजिला, ऊँची ऊँची फैन्स से घिरा हुआ. ठीक सामने लगी नीओन लाइट की तेज रोशनी में तमाम रात जागता रहता. खाना खाने के बाद वह ऊपर अपने कमरे में चली जाती. मम्मी पापा नीचे सोते रहते पर देर रात तक उसके कमरे की लाइट जलती रहती. सारा दिन उसने जो कुछ इकट्ठा किया होता, वह उसके बैग से बाहर निकल आता और वह उसे कम्प्यूटर पर टीप रही होती... जब सड़क की लाइटें बन्द होतीं, और ऊपर उसके कमरे की बत्ती खिड़कियों से बाहर झांक रही होती, तब ऐसा लगता, मानो कोई जहाज अकेला समुद्र में चला जा रहा हो.....

उस दिन भी स्ट्रीट लाइट्स नहीं जल रही थीं.

”आज जहाज यात्रा पर है.....“ मैंने दूर से उसके घर को देख कर कहा. उसके कमरे की लाइटें दूर से नजर आ रही थीं, जिन्हें शायद उसके पिता ने जलाया होगा. यह हमारे बीच एक पुराना मज़ाक था, जिसका जन्म कई साल पहले बीयर के हल्के सुरूर में हुआ था.

मुझे नहीं मालूम मेरी बात का उस पर क्या असर हुआ, पर उसने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ लिया था.

”निमिष.....“ वह फुसफुसाई, उसकी हिचकती सी आवाज़ मुश्किल से मुझ तक पहुँच पाई थी.

”हाँ, भावना, बोलो..... मैं यहीं हूँ, तुम्हारे पास....“ मैंने कहा. उसकी अवसादग्रस्त आवाज़ सुन कर मैं डर भी गया था, मानो मुझे डेथ सेन्टेन्स सुनाया जाने वाला हो. यह डर कोई नया नहीं था, इसे मैं एक लम्बे अर्से से अपने साथ ढो रहा था. यह डर हर बार अपना चेहरा बदल कर मेरे सामने आता था, पर मैं हमेशा उसे पहचान जाता था. कई बार मैंने डर को डराने के लिए मुखौटे भी लगाए, पर अपने मुखौटों से मैं खुद ही डरने लगा था.

”जल्दी ही मैं अकेली लम्बी यात्रा पर जाने वाली हूँ....“

इस बार डर यात्रिक बन कर आया था.

मैं अच्छी तरह समझता था कि वह क्या कह रही थी, पर बहुत बार समझ को ना समझना ही बेहतर होता है, ”अकेली क्योें, हम सब साथ चलेंगे, तुम, मैं, तुम्हारे मम्मी पापा.....“

घर के दरवाजे पर हम रुक गए. वहाँ घना अँधेरा था. ड्राॅइंग रूम की खिड़कियों के उस पार पर्दों के पीछे से पीली रोशनी की एक फाँक हम तक चली आई थी. उस मृतप्राय रोशनी में मैंने उसका चेहरा देखा, यह वह ही थी, जिसे मैं भावना के नाम से जानता था, पर वहाँ जीवन का एक कतरा भी उपस्थित नहीं था.

मैंने उसे उसका झोला दिया, जो उसने अपने कन्धे पर लटका लिया. पर वह अन्दर गई नहीं. वहीं खड़ी रही, अपने दोनों हाथों में मेरे दोनों हाथ थामे, जैसे नाटक का अन्तिम संवाद याद कर रही हो.

”निमिष.....“

”हाँ, भावना....“

”कभी कभी प्रोफेसर झा के कलेक्शन में जाते रहना....“

निमिष भर के लिए मैं समझ नहीं सका कि वह किस प्रोफेसर झा की बात कर रही है ! लाइब्रेरी, इतिहास, प्रोफेसर झा.... सब कुछ किसी धुंधलके में खोता जा रहा था. सच, सच नहीं रह गया था और झूठ अपने नहीं होने के पीछे जा छिपा था.

मैं कुछ कहना चाहता था, कुछ भी, जो उस अंधेरे के सच को हरा सके, पर वह मेरा उत्तर सुनने के लिए रुकी नहीं. दरवाजा खोल कर सीधी अन्दर चली गई, अपने पीछे मुझे अकेला छोड़ कर, मुझे मेरे उत्तरों सहित निरुत्तर कर चली गई थी.

मैंने उसके घर का दरवाजा बन्द किया और काफी देर तक वहीं चुपचाप खड़ा खड़ा उसके कमरे की लाइटों को देखता रहा. मेरा जो कुछ भी था, वह इस दरवाजे के उस पार था, जो मेरे वहाँ नहीं होने के बावजूद भी मेरा होना महसूस कर रही होगी, जैसे कि मैं यहाँ उसके होने को जी रहा हूँ.

......बाद में कभी, आने वाले दिनों में, जब यहाँ इसी तरह अँधेरा होगा और चाँद भी बाहर निकलने से डर रहा होगा, मैं आऊँगा, मैं यहाँ आऊँगा, तुम्हारे कमरे की लाइटें बन्द होंगी और पूरा बंगला किसी दबी घुटी खामोशी में सिसक रहा होगा.... तब तुम मुझे देखना, मेरी आँखें आँसुओं से भीगी होंगी, मेरी हथेलियों में तुम्हारा पसीना कोई उदास कविता लिख़ रहा होगा, तुम्हारे नोट्स हवा में बिखरे होंगे, तुम्हारी हाँफती काँपती साँसें फैन्स की ऊँची ऊँची डालियों से उलझी होगी और मैं चुपचाप खड़ा होऊँगा.... मेरी कोई प्रतीक्षा नहीं कर रहा होगा, न यहाँ, न और कहीं. मेरी आँखों में सदियों की खामोशी होगी और तब तुम समझ जाओगी कि उस दिन तुमने अपनी देह त्यागी थी और मैंने अपना मन.

 

€€€

 

एक अजीब सी बेचैनी मन पर तारी थी, जैसे अन्दर कुछ घुट रहा हो, बाहर निकलने की छटपटाहट लिए, पर अन्दर रहने को अभिशप्त. मेरा सब कुछ कहीं दूर चला गया था, दूसरी दुनिया में, और जो कुछ बच गया था, मुझे जीवित महसूस कराने के लिए नाकाफी था. स्मृतियाँ कब दुख का कारण बन गईं थीं, कुछ पता ही नहीं चल पाया था. मैं न तो उनसे बच पा रहा था और न ही उनके साथ रह पा रहा था. संशय का घना अंधेरा इन दो दुनियाओं के बीच पसरा हुआ था.

लाइब्रेरी के जिस कोने में वह बैठी रहा करती थी, आज खाली पड़ा था. मैं भी यकायक वहाँ बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैंने महसूस किया कि मैं जब जब यहाँ आऊँगा, यह खाली कोना मुझे हमेशा हाॅन्ट करेगा, जो अब कहीं नहीं है, उसके न होने के बावजूद भी होने का अहसास कराएगा...... और मैं, उस कोने से भी ज्यादा खाली, कभी तय नहीं कर पाऊँगा कि क्या एक खाली जगह को दूसरी खाली जगह से भरा जा सकता है ?

थोड़ी देर तक मैं चुपचाप वहाँ खड़ा रहा, जैसे अपने खड़े रहने भर से उस खाली जगह को खाली न होने का अहसास दिला रहा होऊँ. पर यह अहसास उस जगह के लिए उतना था भी नहीं, जितना कि स्वयं मेरे लिए, क्योंकि अनायास ही मुझे लगने लगा था कि उस जगह का खालीपन मुझे भरने के प्रयास में लगा हुआ था.

”क्या आप कुछ ढूँढ़ रहे हैं ?“ लाइब्रेरी के बुक लिफ्टर ने मुझसे पूछा. मुझे इस प्रकार औचक खड़ा देख कर शायद उसने पूछा होगा.

”अ.... हाँ, मुझे प्रोफेसर झा का कलेक्शन देखना है.“ अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया. मुझे नहीं मालूम था कि भावना का यह आग्रह कहीं अवचेतन में छिप कर बैठा हुआ था, किसी अंधेरे कोने में छिपे बच्चे की मानिन्द, जो अवसर पाते ही बाहर आ कूदा था.

”उसके लिए तो आपको स्टेक्स में जाना होगा..... आप मेरे साथ आइए, मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ.“ वह पीछे की ओर घूमा. अब मेरे पास उसके साथ साथ जाने के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं बचा था. लाइब्रेरी के उस कोने में मैं जिस खालीपन से बातें कर रहा था, वह ठीक उसी जगह छूट गया था, जहाँ अभी थोड़ी देर पहले उसने मुझे पकड़ा लिया था.

रीडिंग हाॅल के दूसरे छोर पर एक काउन्टर था, जिसके पीछे स्टेक्स थीं. मैं उसके साथ वहीं जा रहा था, हालांकि मैं नहीं जानता था कि मैं वहाँ क्यों जा रहा था. मन में वही अजीब सी बेचैनी फिर उभर आई थी, जिसे लाइब्रेरी के अन्दर आते हुए मैंने अपनी रगों में बहते हुए महसूस किया था.

बुक लिफ्टर मुझे किताबों की अलमारियों से बने गलियारे से कहीं आगे ले जा रहा था. एक गलियारा खत्म होता, तो दूसरा शुरू हो जाता. न गलियारे समाप्त हो रहे थे, न किताबें. बीच बीच में कहीं कहीं कुछ लड़के लड़कियाँ किताबें टटोलते दिख जाते थे. उन्हें देख कर लगता था, जैसे वे सब भी उस लाइब्रेरी की किताबों का हिस्सा हों, अपने पढ़े, सुने और समझे जाने को आतुर..... मुझे याद आया, मैं भी पहले यहाँ आ चुका था. तब भावना मेरे साथ थी. क्या उस दिन किसी और ने हमारे लिए भी ठीक यही महसूस किया होगा !

वह सारा सिलसिला एक बड़े कमरे पर जाकर समाप्त हुआ. वहाँ खिड़कियाँ ज्यादा नहीं थीं, एक मटमैला सा उजाला पता नहीं कहाँ से आकर वहीं बस गया था. चारों ओर अलमारियों में पुरानी किताबें अपने अपने घरों में सोई हुई थीं.

”यही है प्रोफेसर झा का कलेक्शन.“ बुक लिफ्टर ने कहा.

”थैंक्स. अब मैं देख लूँगा.....“

उसके चले जाने के बाद एक गहरी निःस्तब्धता छा गई. चारों ओर किसी वीरान खण्डहर जैसी खामोशी छाई हुई थी. वे किताबें किसी के आने की प्रतीक्षा करते करते प्रतीक्षा करना तक भूल गई थीं. उन पर धूल, मिट्टी की परतों के साथ साथ समय की परतें भी चढ़ी हुई थीं. समय, जो वहाँ ठहरा हुआ था; समय, जो इतिहास बन कर उन किताबों में दर्ज था; समय, जो उस समय अपने सामान्य अर्थ से परे चला गया था.....

सबसे अजीब थी वह गंध, जो वहाँ न जाने कब से जमा थी. रुकी हुई हवा, पुरानी किताबों और इतिहास की मिली जुली गंध..... कहीं वह गंध प्रोफेसर झा की तो नहीं थी ?

मुझे याद आया, भावना अन्तिम बार यहीं आई थी, इसी कमरे में, इन्ही किताबों के बीच, उसने रुके हुए समय को महसूस किया होगा, इन बीत चुकी किताबों को छुआ होगा, पुराने पन्नों ने एक बार फिर सांस ली होगी.... उस दिन भी यहाँ ऐसा ही धुंधला सा उजाला पसरा होगा, किताबों पर जमी धूल मिट्टी और रुकी हुई गंध उसके नथुनों में भर गई होगी.... और तभी उसे अस्थमा का अटैक हुआ होगा.....

क्या उसने उस दिन प्रोफेसर झा को भी यहाँ ‘देखा’ था !

जरूर देखा होगा. उनकी किताबों को टटोलते हुए सहसा वे जीवित हो उठे होंगे, बाहर आ गए होंगे, धूल मिट्टी से सने, अपने मोटे चश्मे के पीछे से उसे देखते हुए. उन्होंने उससे बातें भी की होंगी, उस मृत कक्ष में आने के लिए धन्यवाद दिया होगा और फिर जैसे आए थे, वैसे ही चले भी गए होंगे.

.......पर शायद उस दिन मैं गलत था. कोई कहीं नहीं जाता, बल्कि हम ही चले जाते हैं, उस दृश्य से बाहर चले जाते हैं, जहाँ नाटक अभी चल रहा होता है, जब कि हमारे संवाद अभी पूरे नहीं हुए होते हैं, हम सोचते हैं कि हमारे संवाद कोई दूसरा बोल देगा, पर यह हमारा भ्रम होता है. वे सिर्फ अपने संवाद बोलते हैं, अपने अतिरिक्त अन्य संवादों के लिए किसी के पास कोई अवकाश नहीं होता. फिर हम एक नई स्पेस तलाशने लगते हैं, एक ऐसी स्पेस, जहाँ हम स्वयं को सुरक्षित रख सकें, अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ, जो हमें आने वाले कल में अपने न बोले हुए संवाद बोलने का अवसर प्रदान कर सके.....

मैं चाह कर भी उनकी कोई किताब छू तक नहीं पाया. वे सिर्फ मेरी आँखें थीं, जो उन्हें स्पर्श कर लौट आईं थीं. मैं अनजाने ही वहाँ भावना को ढूंढ़ने लगा था, जो एक दिन अपनी आँखें यहीं कहीं छोड़ गई थी. पर कहीं कुछ नहीं था, न भावना, न उसकी आँखें और न ही प्रोफेसर झा. .... तो फिर मैं अकेला वहाँ क्या कर रहा था ! जिन आँखों को मैं वहाँ प्रोफेसर झा के कलेक्शन में ढूंढ़ रहा था, क्या वे मुझमें कहीं जीवित थीं और मैं वहाँ मृत !

मेरे भीतर की छटपटाहट मानो मेरा सीना चीर कर बाहर निकलने के लिए कुलबुला रही थी...... अकेला रह जाने की यन्त्रणा उतनी नहीं थी, जितनी कि स्वयं के इतिहास में बदल जाने की. उन किताबों में मैं कहीं नहीं था, पर उन पर पड़ी धूल मिट्टी, पुराने कागजों की गंध और मटमैले से उजाले में खुद का होना महसूस कर रहा था.

काफी देर तक मैं बस यूँ ही खड़ा रहा, जैसे भावना और प्रोफेसर झा से संवाद कर रहा होऊँ. फिर अपना होना वहीं छोड़ कर मैं लाइब्रेरी से बाहर चला आया.

 

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