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मेरठ में अब भी रामनाथ गौड़ के पूर्वजों का बड़ा सा घर था जहाँ साल में दो-चार बार तो वे अपने पूरे परिवार के साथ जाते थे |अकेले पति-पत्नी तो यदा-कदा जाते ही रहते थे | जबसे प्रबोध ने गाड़ी ली थी, पूरे परिवार को साथ आने-जाने में सुविधा हो गई थी | जाना ज़रूरी होता था | कारण थे उनके वयोवृद्ध माता-पिता जो बहुत कोशिश करने पर भी अब उनके पास रहने के लिए तैयार नहीं थे | पहले तो वे गाज़ियाबाद आ भी जाते थे, घर के लिए ज़मीन खरीदना और बनवाना भी उनकी ही इच्छा थी | उम्र बढ़ने के साथ वे दोनों अधिक अशक्त होते गए | जिस घर में उनकी माँ बहू बनकर आईं थीं, उसीमें से अपनी अंतिम बिदाई भी चाहती थीं | रामनाथ जी के दादा ने घर गाज़ियाबाद में बना ज़रूर लिया था लेकिन उनको भी अपनी पैतृक निवास से बहुत लगाव रहा | वो भी मौका मिलते ही मेरठ भागते जहाँ उनके पैतृक मकान था और एक बड़े से सहन के चारों ओर बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे जिनमें सभी चाचा-ताऊओं के परिवार रहते थे |
वास्तव में रामनाथ जी के छोटे भाई दयानाथ का मेरठ में दवाइयों का व्यापार था | उनकी एक छोटी फ़ैक्ट्री थी जो 'गौड़ फ़ार्मेसी ' के नाम से प्रसिद्ध थी | कहने को छोटी थी लेकिन जिसमें आम बुखार व आम स्वास्थ्य से संबंधित सभी प्रचलित दवाईयाँ बनती थीं और जिनका व्यापार पूरे उत्तर-प्रदेश में फैला हुआ था बल्कि अब दिल्ली तक फैलने लगा था | उनकी इच्छा थी कि उनके बड़े भाई का बेटा प्रबोध भी उनके साथ फ़ैक्ट्री में काम संभाले किन्तु प्रबोध को पिता की भांति शिक्षण करना था, उसकी मनोविज्ञान में रूचि थी |
मेरठ की फार्मेसी ( फ़ैक्ट्री )में काम करने वाले काफ़ी कर्मचारी थे जिनका आना-जाना घर में लगा ही रहता था | दूसरे चचेरे, तयेरे भाईयों के परिवार भी इसी विशाल स्थान पर रहते थे जिनके सब अलग-अलग व्यवसाय थे | बड़ा सा चौक और उसे घेरती एक महलों की सी चारदीवार ! जिसमें एक विशाल दरवाज़ा था और जिसे बंद करके अंदर से एक बहुत मोटा लट्ठा दरवाज़े को बंद करने के लिए एक दीवार से दूसरी ओर लगाया जाता था | उस विशाल द्वार को बंद करना भी एक बेहद मशक्क़त वाला उबाऊ काम था | उसे बंद करना एक मामूली आदमी के बसका नहीं था | कम से कम दो या तीन लोग साथ मिलकर उसे खींचकर बंद करते थे और अगर किसीको रात में कहीं आना-जाना पड़ जाए तो सहन में सोते हुए लोगों के बीच अफ़रा-तफ़री मच जाती |
धीरे-धीरे परिवार के बच्चे बाहर जाने लगे तो घर की चारदीवारी और वो बड़ा सा विशाल दुरूह दरवाज़ा भी टूट गया यानि ऊँची बाउंड्री-वॉल टूटकर पूरा लंबा-चौड़ा सहन खुल गया | अब जो लोग उसमें रह गए थे वो अपने-अपने हिस्से का मकान अपनी इच्छानुसार बनवाने लगे | उस ज़माने में उस बड़ी सी कॉलोनी में गिने-चुने लोग थे जिनके पुरखों ने पहले से अपने गाँव आदि की ज़मीनें बेचकर मेरठ में बड़े-बड़े मकान बनवा रखे थे |कुछ ऐसे भी लोग थे जो सटे हुए गाँवों में रहते थे| क्रमश: वे गाँव अब मेरठ जनपद में शामिल हो गए थे |अब यह इलाका शहर के सम्पन्न स्थानों में गिना जाने लगा | धीरे-धीरे इलाका मँहगा और उच्च लोगों का रिहायशी स्थान बनता गया | शिक्षित वर्ग भी इस स्थान पर ज़मीन लेकर यहाँ रहना चाहता था किन्तु ज़मीन के भाव आसमान को छूने लगे थे और वहाँ मकान बनाने के इच्छित बहुत से लोगों को मन मसोसकर रह जाना पड़ रहा था | इस मामले में गौड़ परिवार जैसे कुछ परिवार बहुत भाग्यशाली थे जिनकी उस इलाके में बड़ी-बड़ी ज़मीनें थीं |
हवेली के टुकड़ों में विभाजित होने के बाद सबने अपने-अपने बँगले बनवाने शुरू कर दिए लेकिन खुला आँगन मिला-जुला सबके हिस्से में ही रहा | बहुत बड़ी ज़मीन थी, जैसे एक बड़ा फ़ॉर्म-हॉउस हो, उसमें ख़ूबसूरत बाउंड्री-वॉल बनवाकर बगीचा बना दिया गया | बीच में सबके बँगले और बँगलों के पीछे किचन-गार्डन !बस, बहार ही बहार थी | यह इस कॉलोनी का बहुत सम्मानित परिवार था जहाँ उनकी उम्र के लोग आते-जाते | पूरा मुहल्ला जैसे रेशमी रिश्तों की डोरी से गुँथा हुआ था | रामनाथ जी के वृद्ध माता-पिता आँगन में गाव तकियों से सजे दीवान पर अपनी उम्र के मित्रों के साथ गप्पें मारते, अपनी युवावस्था की बातें करते, चैस खेलते | उनके छोटे बेटे की दवाइयों की फ़ैक्ट्री के कर्मचारी आते-जाते जो उनके सारे काम कब कर जाते, उन्हें भी पता न चलता | उनका समय वहाँ पर बहुत अच्छा गुज़र रहा था | गाज़ियाबाद में भी उनका बहुत सम्मान था लेकिन वहाँ वे मित्रों से विहीन हो जाते, जैसे अकेले से पड़ जाते | उन्हें जो अपनापन यहाँ लगता वो गाज़ियाबाद वाले घर में नहीं |मेरठ में जैसे उनकी जान बसती थी, उसे थोड़े दिन को भी छोड़ने में वो मायूस हो जाते थे | इसीलिए रामनाथ जी जल्दी-जल्दी माँ-पिता के स्नेह, ममता से खिंचे वहाँ चले आते |
वृद्धा माँ के बीमार हो जाने से बेटे रामनाथ को उनकी चिंता हुई और उनका प्रत्येक शनिवार की शाम को मेरठ जाना शुरू हो गया | अच्छे से अच्छे डॉक्टर्स उनकी सेवा में थे | भाई की दवाइयों की फ़ैक्ट्री के कारण लगभग सभी डॉक्टर्स उनके परिचय में थे | वो घर पर ही माता जी के चैक-अप के लिए सुबह-शाम आने लगे |बीमारी का कोई विशेष कारण न था, वृद्धावस्था अपने में सबसे बड़ी बीमारी है | रामनाथ की माँ डिप्रेशन में आने लगीं | बड़ी बहू शांति कई दिन माँ के पास रहकर गई, छोटा बेटा वहीं था, उसकी पत्नी शैलजा भी सास की सेवा में थी |
बहुत अधिक छुट्टियाँ मिलना न रामनाथ के लिए संभव था, न ही प्रबोध के लिए | गाज़ियाबाद के घर में कम्मो ने उनके घर का पूरा काम संभाल लिया था इसलिए शांति अपनी सास की सेवा में कुछ दिन रह सकीं | जब तक माँ ठीक न हुईं तब तक रामनाथ व प्रबोध हर सप्ताह मेरठ आ जाते | कुछ दिनों में माँ ठीक होने लगीं और उन्होंने स्वयं शांति से कहा कि अब उसे घर जाना चाहिए | यह भी विचार किया गया कि माँ के पास एक ट्रेंड नर्स की व्यवस्था होनी ज़रूरी है और जल्दी ही एक निहायत विनीत, ट्रेंड नर्स की व्यवस्था हो गई |
एक ख़ूबसूरत लगभग बाईस/चौबीस वर्ष की नर्स जो इतनी गोरी-चिट्टी थी कि उसके गले की नीली नसें दिखाई देतीं | एक ऊँचे घर की लड़की लगती थी वह ! क्यों कर रही थी वह नर्सिग का काम ? पता चला वह अँग्रेज़ पिता और भारतीय माँ की बेटी है जिसने इंग्लैण्ड से नर्स की ट्रेनिंग ली थी | नाम था स्टेला सिंह ! पता चला उसकी माँ सरदारनी थी जिसकी मृत्यु इंग्लैंड से आते हुए प्लेन-क्रैश में हो गई थी | कुछ दिनों बाद उसके पिता विलियम जॉर्ज भी किसी दुर्घटना में गुज़र गए | उसने एक वर्ष दिल्ली सफदरजंग अस्पताल में नर्सिंग की फिर किसीने उसे मेरठ सिटी अस्पताल में नौकरी के लिए बुला लिया |
वह अपनी माँ के साथ पहले मेरठ में रह चुकी थी| मेरठ उसके नाना का घर था इसीलिए वह यहाँ से काफ़ी परिचित थी |अब मेरठ में उसकी माँ के परिवार का कोई नहीं बचा था लेकिन न जाने क्यों उसे मेरठ से कुछ विशेष ही लगाव था |अत: जैसे ही उसे मेरठ सिटी हॉस्पिटल की नौकरी मिली, वह बड़ी प्रसन्नता से वहाँ आ गई |
" ब्राह्मण परिवार में एक क्रिश्चियन नर्स ---?" रामनाथ की माँ ने दबे स्वर में कहा भी किन्तु तब तक स्टेला आ चुकी थी और उसका मुस्कुराता चेहरा उनके मन में बस गया था | उनको हर समय कंपनी देने की बात थी और कुछ ख़ास काम तो था नहीं | वहाँ काम करने वालों की फ़ौज थी लेकिन जो माँ जी का मन लगा सके ऎसी लड़की सबको स्टेला में दिख गई थी |