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घुँघरुओं की छनछनहाट क्यों और कहाँ से उसके कानों में पिघलने लगी थी, वहाँ वह गिरजाघर के प्राँगण में खड़ा था, कॉलेज का नया लेक्चरर अपने कॉलेज के छात्र-छात्राओं के साथ इस गिरजाघर की ज़मीन पर आया था | साथ में और कई प्रोफ़ेसर्स भी थे, न जाने उसे ऐसा अजीब सा अहसास क्यों हो रहा था ? कुछ ऐसा पहचाना अहसास जो उसे कहीं खींचे ले जा रहा था | उसे कुछ भी स्पष्ट नहीं था, न आवाज़, न ही वो धुंध जिसमें वह घिरा जा रहा था | पहले तो वह कभी यहाँ आया नहीं था फिर ?
धूप के टुकड़े पेड़ों से छनकर आते हुए उसके पूरे शरीर पर आँख -मिचौनी खेलने की कोशिश करते रहे और वह अपने क़दम बढ़ाता ही रहा, पता नहीं कहाँ ? शायद इधर या फिर उधर, कई बार गर्दन को तोड़-मरोड़कर घुमाते हुए उसका हाथ अनायास ही गर्दन पर आ गया जो पसीने से तरबतर थी | पसीने भरे हाथ को उसने गर्दन से हटाकर झटक दिया लेकिन पसीना पोंछने के लिए जेब से रुमाल निकालने की रत्ती भर भी कोशिश न की | बढ़ता ही तो रहा अदृश्य छनछनाहट की ओर !
"सर ! डॉ. बत्रा इज़ कॉलिंग यू --"
उसने नहीं सुना, सुन्न से होते हुए दिमाग़ में कुछ चल तो रहा था लेकिन क्या? उसको पकड़ने की कोशिश करता वह न जाने किस ओर चलता जा रहा था, किसी अनजानी सी दिशा की ओर !
"स--र --वो डॉ.बत्रा ----" लड़की ने एक बार फिर से अपनी बात कहने का प्रयास किया |
न जाने कौनसी डोर खींच रही थी उसे, झाड़ियों की ओर से गुज़रते हुए वह उस लंबी-चौड़ी बाउंड्री-वॉल पर क्यों जा रहा था ---?
डॉ . बत्रा कुछ दूर से उधर ही नज़र लगाए थे, जिस छात्रा को उन्होंने बुलाने भेजा था, उसकी अपनी कुछ सीमाएँ थीं, वे जानते थे | बेचारी प्रथम वर्ष की छात्रा ---! वह अपने शिक्षक का हाथ पकड़कर खींच तो ला नहीं सकती थी |
समय की गति अपने अनुसार न जाने उसे कहाँ खींच रही थी, वह खिंचता चला जा रहा था किसी अनजानी सी दिशा में --
'नहीं ऐसो जनम बारंबार ----'गीत के साथ घुँघरू की छनछनाहट और जैसे किसीका उसे खींचकर ले जाना | जैसे मीरा दीवानी झूम रही थी, वह छनछनी आवाज़ में खोता हुआ एक अनजानी दिशा की ओर पाँव बढ़ाता जा रहा था |
डॉ.बत्रा बेचैन हो उठे, कहाँ जा रहा है ये बंदा ! उधर की ओर जाने का कोई मक़सद नहीं था और उन्हें दूर से ही उस बड़ी सी बाउंड्री-वॉल का एक बड़ा सा हिस्सा टूटा हुआ दिखाई दे रहा था उधर नीचे की ओर एक बहुत गहरी सी खाई थी, उधर जाने का मतलब ?
"डॉ. गौड़ ----" अचानक बत्रा ने लगभग भागते हुए कदमों से आकर उसका हाथ खींचा |
"कहाँ जा रहे हैं ? देखिए तो ---"
फूलों से भरे खुशनुमा माहौल में वह कब झाड़ियों से गुज़रता हुआ एक टूटे हुए बुर्ज़ के पास तक पहुँच गया था, नहीं पता चला उसे | वैसे उस स्थान पर 'अलर्ट' का एक निशान लगाया गया था किन्तु प्रबोध उधर बढ़ता ही जा रहा था | अपना हाथ खिंचने से उसकी तंद्रा भंग हुई, वह खिसिया गया |
"शायद कुछ समय पहले ही यह दीवार टूटी है ----" डॉ बत्रा ने धीमे से मानो खुद से ही कहा |
"इधर कहाँ जा रहे थे ?" उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया | बुर्ज़ की बाउंड्री-वॉल का यह टुकड़ा कैसे टूटा होगा ? पूरी दीवाल --और दीवाल भी क्या --पूरा गिरजाघर ऐसा साफ़-सुथरा, चमचमाता हुआ था जैसे कल ही बना हो लेकिन --वह कहाँ जा रहा था ?
"सॉरी , डॉ. बत्रा ---"खिसियाए से शब्द उसके मुख से कुछ ऐसे निकले थे जैसे किसी वृद्ध मुख से हवा निकलती हो ---फस्स --- |
"पर, आप जा कहाँ रहे थे ---? सब लोग उधर आपका इंतज़ार कर रहे हैं | मैंने सुप्रिया को भेजा था ---सुप्रिया ---" उन्होंने मुड़कर पीछे देखा | वह प्रो. बत्रा को आते देखकर शायद वापिस लौट गई थी |
लाल प्लास्टिक के मोटे फ़ीते को दो लोहे के रॉड्स से बाँधकर, बाउंड्री के टूटे होने का ऐलान किया गया था | उसके उस पार नीचे झाँककर देखने पर एक गहरी भयावनी खाई दिखाई दे रही थी |पलक झपकते ही ---कुछ भी अनहोनी होने की संभावना थी |
"आर यू ऑल राइट ?"
"जी ----" सूखे गले को तर करने की नाकाम कोशिश करते हुए बामुश्किल उसके मुख से निकला |
"चलिए, उधर चलते हैं, कुछ ठंडा पीजिए ---" बत्रा उसे लगभग खींचते हुए बिल्डिंग के बाहर सब लोगों के पास ले आया |
"व्हाट हैपन्ड बत्रा --?" उनको इस प्रकार युवक डॉ.प्रबोध गौड़ का हाथ खींचकर लाते हुए देखकर प्रो.सिंह ने पूछ लिया |
"भयंकर एक्सीडेंट होते-होते बच गया ---पता नहीं कैसे ये उस टूटी हुई दीवार के पास पहुँच गए थे --"प्रबोध ने उस विद्यालय में कुछ समय पहले ही पढ़ाना शुरू किया था, सबसे छोटा भी था और ख़ुशमिज़ाज भी --सो, सब उसे छोटे भाई की तरह प्यार करने लगे थे | जैसे किसी बड़े परिवार में कोई छोटा बच्चा आ जाए या फिर किसी कक्षा में कोई क्यूट सा अनुशासित बच्चा प्रवेश ले और कुछ ही दिनों में अपने शिक्षक व पूरी कक्षा का प्यारा बन जाए | कुछ ऐसा ही स्नेह मिलने लगा था डॉ. प्रबोध को अपने सीनियर कुलीग्स से !
"यहाँ कोई टूटी हुई दीवार नहीं होनी चाहिए, वैल मेंटेंड प्लेस ----" प्रो. सिंह बड़बड़ाए |
"आपकी बात तो सही है लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हम अभी इस चर्च को घेरने वाली बाउंड्री-वॉल को देखकर आए हैं। क्यों गौड़ ?
डॉ.गौड़ यानि प्रबोध गौड़ अपने सामने रखे हुए चार ग्लास पानी गटक गया | कुछ तो अलग था, कुछ अजीब, कुछ ऐसा जिसको बताने के लिए प्रबोध के पास शब्द नहीं थे | उसने डॉ. बत्रा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया या वह दे ही नहीं पाया उत्तर | एक असमंजस की खुरदुरी ज़मीन पर उसका दिलोदिमाग़ बुझा-बुझा सा टहल रहा था |
"छन --छनाक ---नहीं ऐसो जनम बारंबार ---नहीं ऐसो जनम बारंबार ----छन---छनाक --"
सभी पिकनिक का आनंद ले रहे थे, तन्मय थे अपने हर्षोल्लास में | चर्चाएं भी हो रही थीं उस ऐतिहासिक गिरजाघर की जिसे देखने डी.ए.वी कॉलेज दिल्ली के मनोविज्ञान व इतिहास विभाग के सभी शिक्षक अपने साथियों व कक्षा के साथ पिकनिक करने और इस स्थान की कहानी से रूबरू होने यहाँ आए थे | वैसे सौइयों वर्षों की कहानी किसी एक स्थान पर सिमटकर नहीं रही थी, वो कभी उसके मन में रोशनी की गुब्बार सी बनकर झक्क से पल भर के लिए आती तो कभी गुप्प अँधेरे की गहरी गुफ़ा सी --- |
कई अजनबी टुकड़ों में बँटी -छँटी कहानी टुकडों में उसे अपने पास आने का निमंत्रण दे रही थी जैसे | आख़िर क्या हो गया ऐसा डॉ.प्रबोध गौड़ को?सबके मन में प्रश्नवाचक चिन्ह की लकीरें खिंच गईं थीं | अचानक ही इस युवा शिक्षक में कैसा बदलाव ?
यह गिरजाघर के बाहर का इलाका था जहाँ पर कुछ साफ़-सुथरी रेस्टोरेंट जैसी दुकानें थीं जिनमें खाने-पीने का सामान मिलता था | इस गिरजाघर में बहुत लोग आते थे, यह सबके लिए खुला रहता था | स्वाभाविक था, यात्रियों को भूख-प्यास लगने पर इन दुकानों का कारोबार चलता | ऐसे ही एक रेस्टोरेंटनुमा स्थान पर कॉलेज का शिक्षक वर्ग हँसी-ठठ्ठा करता हुआ बेग़म की चर्चा कर रहा था और दूसरे स्थानों पर युवा छात्र-छात्राओं का कोलाहल बिखरा हुआ था | प्रबोध का मन उद्विग्न था ---नहीं ऐसो जनम बारंबार ---छन--छनाक ---
उसे ही क्यों हो रही थी यह अनुभूति ? वह किसीसे क्या शेयर करता जब वह स्वयं ही स्पष्ट नहीं था | अन्य प्रोफ़ेसर्स ने कई -कई बार उससे पूछने की कोशिश की लेकिन उसका चेहरा देखकर अंत में वे चुप हो गए और आपस में हँसी-मज़ाक करने लगे |
"लगता है, डॉ प्रबोध को कोई मिल गया है यहाँ ----" चौपड़ा उसकी खिंचाई करने के पूरा मूड में आ गया था जिसका साथ दूसरे प्रोफ़ेसर्स ने भी दिया | यह कॉलेज एक स्वस्थ्य परंपरा का जीता-जागता उदाहरण था | एक-दूसरे की किसी भी परेशानी में सब लोग एक परिवार की भांति सहायता करते, सब मिलकर खड़े हो जाते किन्तु प्रबोध ने जैसे मुख पर टेप चपका ली थी | कुछ ऐसा लग रहा था मानो वह वहाँ था ही नहीं |
आख़िर शाम होने को आई और सबका अलग होने का समय भी | अधिक रात होने पर लड़कियों के लिए मुश्किल होने की संभावना थी | तय हुआ कि अब वहाँ से निकलना चाहिए |