भाग 2
दादी की सिलाई मशीन
गोकुल ने स्टेशन पहुँच कर जल्दी से बैलगाड़ी को एक किनारे लगाया. फिर एक ही सांस में दौड़ कर स्टेशन की 20 सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ प्लेटफार्म पर खड़ा हो गया. दौड़ते दौड़ते वह हांफ रहा था. पर उसे ख़ुशी थी कि अभी पटना वाली पैसेंजर ट्रेन सोन नदी का आधा पुल ही पार कर सकी थी. प्लेटफार्म तक पहुँचने में उसे दो तीन मिनट और लगने वाले थे, तब तक वह अपना दम साध लेगा.
अब गाड़ी प्लेटफार्म पर आ चुकी थी. वहां स्टॉपेज सिर्फ दो मिनट का ही था. वर वधु कुछ कीमती सामानों के साथ डब्बे से प्लेटफार्म पर उतरे. प्लेटफार्म की तरफ से चढ़ने और उतरने वालों की भीड़ थी और ज्यादा सामान भी उतारने थे. इसलिए गोकुल प्लेटफार्म के दूसरी तरफ चला गया और रॉंग साइड से जल्दी जल्दी सामान उतार रहा था. ट्रेन में बारात से लौटे लोग सामान एक एक कर बढ़ा रहे थे और गोकुल उसे उतार कर नीचे रख रहा था. उस छोटे स्टेशन पर कुली नहीं होता था, वैसे भी गाँव के लोग अपना सामान खुद ही चढ़ाने उतारने के आदि होते हैं. देखते देखते सब सामान उतर चुका, ट्रेन भी जा चुकी थी. तब गोकुल बोला “ बाप रे, कैलाश भैया को ससुराल से इतना सामान मिला है, लगता है पूरा पटना शहर ही उठा कर लाये हैं. “
“ चुप, बकवास बंद कर. अब जल्दी जल्दी सामान सब नीचे ले चल और दो ठो बैलगाड़ी या टमटम और ठीक कर. “ दीना बाबू ने कहा
गोकुल, दीना बाबू के परिवार के कुछ लोग और गाँव के कुछ बाराती मिल कर सामान उठा कर चलने लगे. तब दीना बाबू ने गोकुल से कहा “ अपना गाड़ी में खाली कनिया ( बहू ) अपने बक्से और अन्य निजी सामान के साथ बैठेगी और ई एक दो ठो छोटकन लइकन को बैठा दो. पर्दा उर्दा ठीक से बांधे हो न, नयी नयी कनिया है. अभी मुंह दिखाई तक किसी और को उसका मुंह नहीं दिखाना है. “
“ आप चिंता न करें, हम सब इंतजाम ठीक से कर दिए हैं मालिक. “
आगे आगे बैलगाड़ी और पीछे से दीना बाबू, कैलाश बाबू और बारात के कुछ अन्य सदस्य बारी बारी से कभी टमटम पर बैठते तो कभी पैदल चल रहे थे. करीब पौन घंटा के बाद ही वे अपने गाँव पहुंच सकते थे . गोकुल ने बहू को रास्ते में समझा दिया था कि यह गाँव है पटना शहर नहीं है. पूरा घूँघट कर के ही गाड़ी से उतरना है और फिर जैसे जैसे अम्माजी कहेंगी वैसे वैसे आपको करना है. जब तक बैल गाड़ी दीना बाबू के घर पहुँचती उसके पहले ही एक दो लड़कों ने उनके घर यह खबर पहुंचा दी थी कि काकी की बैलगाड़ी जल्द ही पहुँचने वाली है. वे लड़के खेत के बीच बनी पगडंडी से दौड़ कर घर पहुँच गए लेकिन बहू को बैलगाड़ी से रास्ते से ही आना था. उसके आने में कम से कम 25 - 30 मिनट और लग ही जाते. इस बीच घर की औरतों को बहू के स्वागत के लिए कुछ समय मिल गया. वैसे उन्हें भी अंदाज़ा था कि बहू कुछ देर में आने वाली है क्योंकि लोकल ट्रेन विरले ही लेट होती थी.
खैर, बैलगाड़ी के पहुँचने के पहले ही औरतें दरवाजे पर आरती और लोढ़ा आदि परिछावन के सामान ले कर दरवाजे पर तैयार थीं. औरतें गीत गाने लगीं और एक एक कर उनका परिछावन करतीं. कैलाश बाबू और उनकी नव विवाहिता पत्नी दउरी ( बांस की टोकरी ) में बारी बारी से एक एक कदम रखते हुए दरवाजे तक पहुंचे. बहू का स्वागत सास, ननद और गाँव की कुछ औरतों ने किया और पूरे रस्म रिवाज के साथ ससुराल में कमला का प्रवेश हुआ. अगले दिन मुंह दिखाई की औपचारिक रस्म रखी गयी. रिश्तेदार और अन्य लोग एक एक कर आते, सास नयी बहू का घूंघट उठा कर उनसे परिचय कराती और वे मुंह दिखाई में गहना या लिफ़ाफ़े में रुपया बहू को देते. चौथे दिन चौठारी की रस्म सत्यनारायण पूजा के साथ सम्पन्न हुई. उसी दिन बहू सास और ननद के साथ गाँव की देवी के पूजा के लिए देवी स्थान गए. अब तक पूरे गांव में खबर फ़ैल गयी थी कि कैलाश बाबू की बहू कमला आठवीं पास है और बहुत सुन्दर है. उस गाँव में अभी तक इतनी पढ़ी लड़की ब्याह कर नहीं आयी थी.
कमला के माता पिता नहीं थे, पीहर में उसकी एक बड़ी बहन और एक बड़े भाई थे. बहन अपने ससुराल में थी. दीना बाबू के दोस्त, कमला की दीदी और भैया ने मिल कर उसके लिए रिश्ता तय किया तब जा कर कैलाश से उसकी शादी हुई थी. भाभी को उसकी शादी में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. कमला और भी पढ़ना चाहती थी ताकि एक साल बाद मैट्रिक कर लेती पर दीना बाबू को बेटे की शादी की जल्दी थी और उन्हें पढ़ी लिखी लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं थी.
कैलाश बाबू नजदीक के शहर की कचहरी ( कोर्ट ) में मुख्तार से वकील बने थे. वे अपनी साइकिल से स्टेशन तक जाते थे. वहां एक हलवाई की दुकान पर अपनी साइकिल रख देते और फिर पैसेंजर से शहर चले जाते जो करीब 12 किलोमीटर दूर था, बीच में बस एक ही स्टॉपेज पड़ता था . फिर शाम को लोकल ट्रेन से लौटते तो उसी हलवाई की दुकान पर बैठ कर बिस्कुट के साथ चाय पीते . इसके बाद साइकिल से अपने गाँव के लिए चल पड़ते और करीब 15 मिनट में घर पहुँच जाते.
कैलाश बाबू में ईमानदारी कूट कूट कर भरी थी. और वकीलों की तरह झूठे गवाहों के बल पर वे मुकदमा नहीं लड़ते थे. शहर में उनका अच्छा नाम था. अपनी ईमानदारी और पैरवी के बल पर वे शायद ही कोई मुकदमा हारे हों. उनके आचरण, व्यवहार और सच्चाई से जज भी बहुत खुश रहते थे. उसी कोर्ट में कैलाश का एक चचेरा भाई भी वकालत करता था. वह उनका बड़ा भाई सुरेश था पर वह पूरा धूर्त था. झूठे गवाहों के बल पर ही सही, वह भी अपने मुकदमे अक्सर जीत ही जाता था.
एक दिन कमला ने कैलाश से कहा “ मैंने मायके में सिलाई सीखना शुरू किया था.पायजामा और बनियान सिल लेती हूँ पर और आगे भी सीखना चाहती हूँ. मैं अपनी सिलाई मशीन वहीँ छोड़ आयी हूँ. आप कहिये तो भैया से मांग लूँ, मगर पता नहीं भाभी क्या सोचेंगीं. “
“ मशीन की कोई चिंता नहीं है, मैं बाबूजी से पूछ कर बताता हूँ. अगर वे मान गए तो नयी मशीन ले दूंगा, पर यहाँ गाँव में कोई अच्छा मास्टर मिलने से रहा. फिर कटाई सिलाई कैसे सीखोगी ? “
कैलाश ने जब दीना बाबू से इस बारे में कहा तो वे बोले “ बहू क्या करेगी सिलाई सीख कर, उसे कोई सिलाई करनी है थोड़े ? हमें किस चीज की कमी है, सिलाई के लिए मौलवी नदीम मास्टर है ही. औरतों की पेटीकोट तो अंदाज से ही सिल देता है और पुरानी ब्लाउज देने पर उसी नाप से सिल देता है. मर्दानी जांघिया, पैजामे भी सिल देता है और बाकी कपड़े हम शहर में सिलवाते हैं “
“ फिर भी बाबूजी, वह पहले से कुछ जानती है और कुछ आगे भी सीखना चाहती है तो इसमें क्या बुरा है ? सिलाई एक हुनर है. उसका मन भी लग जायेगा गाँव में. “
दीना बाबू ने कमला को सिलाई सीखने की अनुमति दे दी. कमला के लिए एक नयी सिलाई मशीन शहर से खरीद कर आ गयी. मशीन देख कर वह बहुत खुश हुई जैसे कोई बड़ा खजाना मिल गया हो. सिंगर कम्पनी की नयी सिलाई मशीन का कमला ने पहले विधि से पूजा किया - उस पर फूल बताशे चढ़ाये फिर अगरबत्ती से उसकी आरती उतारी. उसने कुछ कपड़े मंगवाए और आनन् फानन में ससुर दीना बाबू के लिए पायजामा और बनियान सिल डाले. उसे बाबूजी को भेजा जिसे देख कर दीना बाबू भी फूले न समाये. उन्हें भी विश्वास हो गया कि कमला के लिए सिलाई मशीन खरीदना साकार हुआ. उन्होंने खुश हो कर बहू को पांच रूपये सगुन दिए.
जो मौलवी उनके परिवार के कपड़े सिला करता था, वही सप्ताह में दो दिन सिखाने आया करता . उनके बैठक ( ड्राइंग रूम ) में एक पर्दा टांग दिया जाता था, पर्दे की एक ओर कमला बैठती और दूसरी ओर मौलवी. पर्दे की ओट से वह जैसे जैसे बताता कमला उसका अनुसरण कर सीखने लगी. थोड़ा बहुत सिलाई का ज्ञान कमला को पहले से ही था. तीन चार महीनों के अंदर ही कमला ने बहुत कुछ सीख लिया तब मौलवी साहब बोले “ अब तो बेटी, तुम मेरे पेट पर लात मारने को तैयार हो गयी हो. इस से ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता हूँ. “
“ नहीं मास्टर साहब, मैं बस अपने घर के कुछ जनानी कपड़े सिला करुँगी, वो भी कभी कभी. आपका नुक्सान नहीं होने दूंगी. “ कमला ने दबी आवाज में कहा.
इसके चंद महीनों बाद ही गाँव में हैजे का प्रकोप हुआ, उसकी चपेट में कमला के सास और ससुर दोनों ही कुछ दिनों के अंतराल पर स्वर्ग सिधार गए. कमला ने कम उम्र में ही पूरी गृहस्थी बखूबी संभाल लिया था.घर में एक नौकर गोकुल था जो बाहर के काम और खेती के काम देखा करता था. जरूरत पड़ने पर और दिहाड़ी मजदूर बुलाया जाता.
क्रमशः
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