Benzir - the dream of the shore - 32 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 32

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 32

भाग - ३२

मुन्ना की बात सुनकर मैंने सिर ऊपर किया। आंखों में भरे आंसुओं को पोंछती हुई बोली, 'लेकिन उन्होंने जिस श्रृंगार की बात की है, वह तो शादी के बाद ही करते हैं। और हमने तो अभी शादी की ही नहीं है। कोई रस्म पूरी ही नहीं की है। बस अपनी रजामंदी से साथ हैं।' 'मेरे दिमाग में यह सारी बातें उसी समय थीं, जब लखनऊ से यहां आने की बात तय हुई। यहां आने के बाद अगला कदम शादी करके उसे रजिस्टर कराने के बारे में मैं पहले ही सोचे हुए हूँ। जिससे कानूनी तौर से भी हम एक दूसरे को सुरक्षित एहसास करा सकें। मैं अगले दो-तीन दिन में जो कुछ करने वाला हूं, उस बारे में घूम कर जब लौट रहा था, तभी सोचा था कि सोते समय तुमसे बात करके सारी चीजें फाइनल करूँगा। मगर उससे पहले ही इन आंटी ने टोक दिया।'

' कोई बात नहीं, कल पहले कुछ सामान तो ले ही आते हैं। एक-दो हर ऐसी चीज जिससे आंटी को शक ना हो कि, हम-दोनों रस्मों-रिवाज को पूरा किए बिना ही शौहर-बीवी बने हुए हैं। एक साथ नाजायज ढंग से रह रहे हैं। कल को कह दें कि, मकान खाली करो।'

'तुम भी कैसी बात करती हो। मैं इनकी या दुनिया के किसी डर से कुछ करने वाला नहीं हूं। मैं अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीता हूं, जियूँगा। किसी को कुछ भी, एक शब्द भी बोलने का हक नहीं है। इसलिए तुम्हें भी किसी की परवाह करने की जरूरत नहीं है। मैं पैसा देकर रहता हूं, हमें मकान की जरूरत है, तो उन्हें किराएदार की। साथ ही उन्हें इस बड़े मकान के सन्नाटे को दूर करने के लिए कुछ पारिवारिक लोगों की भी सख्त जरूरत है, क्योंकि इनके बच्चे तो इन्हें अकेला, इस मकान के सन्नाटे के हवाले करके, इनके जीवन में अकेलेपन का दमघोंटू धुआं भर कर चले गए हैं।

अकेलेपन के धुएं से इनका दम घुट रहा है। इस घुटन से बचने के लिए ही इन्होंने मकान किराए पर दिया है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हम इनकी मदद करेंगे, मगर अपने जीवन में हस्तक्षेप बिल्कुल भी नहीं बर्दाश्त करेंगे।'

उनकी आवाज़ में मैंने गुस्से का अहसास किया।आश्चर्य से उनको देखते हुए कहा, 'अरे तुम यह क्या इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह गए, मैं तो कुछ समझ ही नहीं पाई। जानते हो, उन्होंने जब सुहाग-निशानी की बात की, तो मेरे दिमाग में तुरंत की तुरंत क्या बात आई।'

'क्या ?'

'यही कि यह बात तो हमारे घर, यानी कि हमारी ससुराल, यानी कि आपकी अम्मा-बाबू, भाई की तरफ से आनी चाहिए थी, कि तुम दोनों एक साथ रहना चाहते हो तो रहो, लेकिन कम से कम शादी-विवाह के कुछ रस्मों-रिवाज को तो पूरा कर ही लो। मैं बड़े अचरज में हूं कि, किसी ने यह सब कुछ कहना तो छोड़ो, कोई ऐतराज भी नहीं किया और खुशी-खुशी भेजा। सामान वगैरह भी सब रखवाया, लेकिन किसी ने भूल कर भी शादी की बात तक नहीं की।

हमने सुना है कि, ऐसे समय में सास बेटे-बहू को दुआएं देती हैं, दही-चावल से तिलक लगाती हैं। मिठाई खिलाती हैं। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तुम तो घर से मिलकर आए थे सबसे, वहां किसने क्या कहा, मैं नहीं जानती। लेकिन जब तुम मेरे सामने आए, तो सबसे पहले मेरी नजर तुम्हारे माथे पर ही गई थी। मैंने सोचा था कि, चलते समय अम्मा जी, बाबूजी सबसे मिलकर चलूँगी। सब मुझे विदा करेंगे। अम्मा-बाबू जी आशीर्वाद देंगे। मैं अपनी नन्द निष्ठा के पैर छूऊँगी और देवर मेरे। मगर मेरा यह ख्वाब, ख्वाब ही रह गया। तुम्हारे सूने माथे को देखकर मैं सहम गई। हालात का अंदाजा लगा कर डर गई। मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि, तुम से कहूं कि चलो, हमें भी तो सबसे मिलवा दो। मैं तड़प उठी कि, मेरी बदकिस्मती यहां भी मेरे साथ चिपकी है।'

मैं अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी। तो मुन्ना ने मुझे समझाते हुए कहा, 'मैंने तुम्हें जितना समझा था, तुम तो उससे भी कहीं बहुत, बहुत ज्यादा समझदार हो। मैं समझ रहा था कि, तुम्हारे मन का सब हो रहा है, तो इन बातों की तरफ तुम्हारा ध्यान गया ही नहीं होगा। लेकिन देख रहा हूं कि, मैं गलत सोच रहा था। मैंने खुद तुम्हारे सामने इसलिए इन बातों को नहीं उठाया, क्योंकि मैं किसी हालत में तुम्हें दुखी नहीं करना चाहता था।'

'क्यों, क्या तुम्हें उस तरह से विदा नहीं किया गया, जैसा कि मैं सोच रही हूं। क्या घरवालों ने तुम्हें हंसी-खुशी विदा नहीं किया। वो लोग हमारे रिश्ते से खुश नहीं हैं ?'

'अरे छोड़ो। छोड़ो ना इन सब बातों को, जो होना था वह हो चुका है। हमें मियां-बीवी बनना था तो हम बन गए। बस बात खत्म।'

'बस बात खत्म नहीं, ऐसे थोड़े ही ना बात खत्म हो जाती है। हमारी असली खुशी तो सही मायने में इसमें है कि, सारे हमसे खुश नहीं हैं, तो कम से कम नाराज भी ना हों। एक दूसरे का सभी ख्याल रखें, मिले-जुले, हंसे-बोलें। नहीं तो परिवार की बात ही कहां है। नीचे मकान-मालिक को ही देख लो, कितना परेशान हैं, अपने अकेलेपन से। अनजान-पराए लोगों को परिवार के सदस्य जैसा बना रहे हैं। अपने यहां किराए पर रख रहे हैं। इतना नहीं उनके साथ मिलते ही ऐसे बोलने-बतियाने, खाने-पीने लगते हैं, जैसे कि, वह उनके ही परिवार का सदस्य है। केवल इसीलिए ना कि, उन्हें दिली-सुकून मिले। हम भी अगर अपने परिवार से कटकर अकेले रहेंगे, तो हमें भी तो ऐसे ही अकेलापन हमेशा काटेगा। घरवालों ने हमारे रिश्ते को लेकर क्या कहा? कैसे लिया? कुछ तो बताओ। अगर किसी को नाराजगी है, तो मैं सबसे माफी मांग लूँगी। उन्हें मना लूँगी। कुछ भी करूँगी, सबको खुश कर लूँगी। बस तुम पूरी बात बताओ ना क्या हुआ?'

'यार पीछे ही पड़ गई हो तो सुनो। मैं तो सोच रहा था कि, कई दिन बाद आज थोड़ा आराम मिला है। जम कर शैतानी-वैतानी करूँगा, मजा लूँगा, ऐश करूंगा, लेकिन तुम तो..।

' नाराज नहीं हो मेरे सनम। आज मेरा भी मन है, खूब शैतानी करने का। पर थोड़ी सी बातों के बाद करेंगे, तो मेरे राजा बहुत ही ज्यादा मजा आएगा।'

उन्हें थोड़ा छेड़ते हुए मैंने कहा, तो वह बोले, 'चलो तुम्हारे ही मन की करते हैं। घर में किसी ने सही मायने में ऐतराज नहीं किया। बस वह अपनी इज्जत को लेकर सतर्क बने हुए हैं। उनके मन में यह है कि, मोहल्ले वाले यह ना कह दें कि, बताओ इन लोगों ने तो बेटे को मना ही नहीं किया। वह मोहल्ले की लड़की से ही इश्क कर बैठा। बस एक यही प्वाइंट है जिससे सब डरे हुए हैं।

जब तुम्हारी अम्मी थीं, तब उनका का नाम लेकर अम्मा कहती थीं कि, 'मुन्ना उनको यह सब जानकर बहुत दुख होगा। गुस्सा आएगा। इस उम्र में उनको दुख देना अच्छी बात नहीं है। वह नाराज होंगी, तो हमें बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। मोहल्ले की बात है। वो क्या कहेंगी, क्या सोचेंगी।'

जब उन्होंने यह बात कही थी तब-तक हम दोनों बहुत आगे बढ़ चुके थे। बाराबंकी के उस तूफ़ान से गुज़र चुके थे, जिसने हमारे बंधन को अटूट बना दिया था। मैंने कहा, 'अम्मा ऐसा कुछ नहीं होगा। अगर तुम सारी बातें जान-समझ रही हो, तो समझ तो वह भी रही होंगी। आखिर वह भी अपनी बेटी की अम्मा हैं। उन्हें ऑब्जेक्शन होता, तो वह बिल्कुल मना कर देतीं।'

जितनी बार मुझसे कहा जाता, मैं यही कहता कि, ' जिस दिन भी, वह जरा भी संकेत कर देंगी, मैं उसी समय बेनज़ीर से दूर हट जाऊँगा। उसकी तरफ देखना भी बंद कर दूंगा। उसके घर की तरफ भी नहीं देखूँगा। उनके जो काम-धाम जैसे कर रहा हूं, वैसे ही करता रहूँगा।' मेरी इस बात पर सब चुप हो जाते थे। जिस दिन तुम पहली बार मेरे साथ बाराबंकी गई, उसके अगले दिन ही अम्मा ने बात उठाई थी, तो मैंने कहा, 'आप लोग समझते क्यों नहीं, बेनज़ीरअपनी अम्मी की इजाजत मिलने पर ही मेरे साथ जा रही है। उन्हें ऐसा कोई एतराज नहीं है। यदि होता तो वह मेरे पास क्यों आने देतीं, क्यों भेजतीं बार-बार मेरे पास। मैं यही मानकर चलता हूं कि, उनको इन बातों को लेकर कोई ऐतराज़ नहीं है। उनको भी इन सारी बातों का एहसास है। इसीलिए मना नहीं करतीं।' बस मेरे यहाँ यही बात होती है। किसी को कोई आपत्ति नहीं है, समझी। कुछ समय बीत जाने दो, सबको यहाँ बुलाएंगे। सब आएंगे। सब ठीक हो जाएगा।'

'तो क्या हम लोग वहां नहीं चल सकते।'

'ऐसा कुछ नहीं है। जब इच्छा हो तब चल सकते हैं, लेकिन पहले काम-काज तो रास्ते पर ले आऊँ, या बस आते-जाते रहेंगे।'

मैं एकटक उन्हें देख-सुन रही थी। अपनी बात पूरी करके उन्होंने मेरे होंठों पर एक उंगली धीरे-धीरे फेरते हुए आगे कहा, 'अब तुम ही बताओ, मैं तुम्हें क्या बताता।'

मैंने अपने होठों पर मासूम सी शरारतें करतीं, उनकी उँगलियों चूमते हुए कहा, 'मैं भी यही सोचती थी कि, अम्मी अगर गुस्सा होतीं, तो जाने ही नहीं देतीं। मतलब अम्मा-बाबूजी, परिवार में किसी को कोई ऐतराज नहीं है।'

'नहीं। बस डर, कि दुनिया क्या कहेगी?'

' मेरी समझ में नहीं आता, ऐसे दुनिया से कब-तक डरते रहेंगे। कहां फुर्सत है दुनिया को इन सब बातों की। यहां आते ही एडवोकेट का जो लड़का दिखा था सड़क पर, उसने भी तो किसी लड़की से ऐसे ही शादी की है। मोहल्ले में कहां किसी ने कोई बात की। अम्मा-बाबूजी सभी को समझाओ ना कि, हमें, हमारे रिश्ते को खुशी-खुशी अपनाएं, हमें खुशहाल ज़िंदगी के लिए दुआएं दें, हमें अपने से अलग ना करें।'

' मैं उन्हें जितना समझा सकता था, समझा दिया। कुछ हद तक समझे भी हैं। जो नहीं समझ पाए हैं, वह भी जल्दी ही समझ जाएंगे। समय के साथ सब अच्छा हो जाएगा। वह हमें आशीर्वाद भी देंगे, सब मिलकर खुश रहेंगे। बस एक बात और हो जाए।'

वह फिर से मेरे होंठों पर उंगली फिराते, मेरी गर्दन, गर्दन से और नीचे गहराई में उतरते जा रहे थे। आवाज भी बड़ी वैसी होती जा रही थी। मैंने भी उन्हीं की जैसी आवाज में डूबते हुए पूछा, 'कौन सी बात?'

लेकिन वो चुप रहे। ऊँगुलियाँ धीरे-धीरे गहराई में उतरती ही जा रही थीं। फिर पूछा, लेकिन चुप। तो मैंने पूछा, 'कुछ बताओगे, तुम्हारी उंगुलियां गुदगुदी कर रही हैं।'

तब वो बोले, 'बस इतनी सी बात है कि, हम दोनों अपनों से भी ज्यादा खूबसूरत, स्ट्रांग, ब्रिलिएंट बेबी जितनी जल्दी उनकी गोद में दे देंगे, उतनी ही जल्दी हमें वो बाकी खुशियों से भी भर देंगे। पूरा घर किसी एक्स्ट्राऑर्डिनरी परफ्यूम की तरह हमेशा के लिए खुशबू से महक उठेगा।'

यह सुनकर मैं उनसे लिपट कर बोली, 'चाहती तो मैं भी यही हूं कि, फूलों सा प्यारा हमारा बेटा हो। हमारी दुनिया, हमारे परिवार को खुशियों से भर दे।'

'इसीलिए तो कह रहा हूं कि, हम खूब करते ही रहें, शैतानी-वैतानी।'

कहते हुए उन्होंने मुझे समेट लिया। बड़ी देर तक वहां धीरे-धीरे बहती नदी में दो मछलियां एक दूसरे से खेलती उलट-पलट होती रहीं। काफी देर तक खेलती हुई, धीरे-धीरे वह गहरे पानी में नीचे बैठ गईं।'

मैंने भी अपनी लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, 'बेनज़ीर जी यहीं एक बात पूछना चाहता हूं कि, आप रियाज़-ज़ाहिदा जैसी बेइंतिहा मुहब्बत वाली दुनिया चाहती थीं। क्या मुन्ना के साथ वह दुनिया आपको काशी में मिल गई। जाते ही।'

'मैं सोच ही रही थी कि, लंबे समय से आप चुप बैठे हैं। प्रश्न कोई गम्भीर आने ही वाला होगा। और आपके इस प्रश्न का जवाब है। हां! मुन्ना के साथ मुझे ज़ाहिदा-रियाज़ से भी ज्यादा बेपनाह मुहब्बत वाली दुनिया मिली। तन ही की नहीं, मन, भावनात्मक लगाव, यह कहना ज्यादा सही रहेगा कि, आत्मिक लगाव की उन्होंने वह दुनिया दे दी, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। जो मुन्ना ने दिया और कोई नहीं दे सकता। और इस प्यार में डूबी अगले दिन से मैं तरह-तरह की फैंसी बिंदियां लगाने लगी। जिसे देखकर मकान मालकिन ने कहा, 'तुम पर बिंदी कितनी अच्छी लगती है। बिंदी के बिना औरत का चेहरा ऐसे उदास-उदास सा लगता है। जैसे उसका पता नहीं क्या खो गया है।'

दो दिन बाद ही हमारी शादी की रस्में पूरी हो गईं। हमने अपने मनपसंद तरीके से खूब सारा श्रृंगार शुरू कर दिया। मगर आगे कई समस्याएं हमारा इंतजार कर रही थीं। हमें अपना काम-धंधा जमाने में अनुमान से कहीं ज्यादा मुश्किलें पेश आईं। मगर हमारी हिम्मत, जी-तोड़ मेहनत के आगे मुश्किलों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया।

हम जीतकर आगे, और आगे निकलते चले गए। और उस जगह पहुंच गए जहां हमें लगा कि और तेज़ आगे बढ़ने के लिए निजी मकान, निजी ऑफिस होना ही चाहिए। हर चीज मैनेज कर लेने में माहिर मुन्ना, और मैं भी अब-तक इतने पक्के हो चुके थे कि, हमने अपनी जरूरत भर का नहीं, बल्कि उससे भी ज्यादा बड़ा मकान लिया। लखनऊ का अपना मकान बेच दिया। उसका ज्यादातर पैसा अपने बिजनेस में लगा दिया। अपनी योजनानुसार अपना बिजनेस, अपना मकान करने के बाद हमने अपनी दुनिया, अपने मकान की रौनक और बढ़ाने के लिए खूबसूरत बच्चों की किलकारियों के रून-झुन संगीत को भी सुनने के प्रयास और तेज़ किये।

लेकिन न जाने कौन सी बदकिस्मती आ गई कि, देखते-देखते काफी समय निकल गया। हम ना जाने कितने डॉक्टरों के पास दौड़े-भागे। लेकिन हर जगह से लौटे निराश। सारी जांचों, रिपोर्टों ने एकदम साफ कहा कि, हमारे घर नन्हें-मुन्नों की किलकारियों का संगीत भूल कर भी नहीं गूंजेगा। यानी हमारे सपनों का घर उदास प्राणहीन ही रहेगा। वह ईंट-पत्थर का ढांचा ही रहेगा। उसमें आत्मा नहीं होगी।

दिनभर बिजनेस, काम-धाम से लौटने के बाद जब हम आराम करते, प्यार, शैतानीं-वैतानी सब होती, मगर उनमें पहले वाली रवानी नहीं होती। थके होने के बावजूद हम-दोनों को जल्दी नींद नहीं आती थी। मेरी तो हालत और भी खराब रहती। मुन्ना सो जाते, लेकिन मैं जागती रहती। लखनऊ में मकान बेचने के बाद मैं जल्दी ही ज़ाहिदा-रियाज़ को भी भूल गई थी। लेकिन ज्यादा समय नहीं लगा, हालात के चलते मैं अजीब हालत में पहुंच गई। लगता जैसे कि, बेडरूम के बगल वाले कमरे में ज़ाहिदा-रियाज़ आज भी, उसी तरह बेइंतेहा प्यार कर रहे हैं।

नन्हा-मुन्ना, गोल-मटोल सा उनका बेटा ज़ाहिदा की छाती पर लेटा चुटुर-चुटुर की आवाज करता दूध पी रहा है। ज़ाहिदा और रियाज़ के हाथ एक दूसरे को छू रहे हैं। दूर-दूर तक, ऊंची पहड़ियों से लेकर गहरी घाटियों तक का अपना सफर तय कर रहे हैं। ना जाने कहां-कहां, क्या-क्या करते चले जा रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं कि, बेटा सो गया है। और फिर वह भी समुद्र की लहरों की तरह ऊंचे-ऊंचे खेल, खेल कर सो रहे हैं।