Benzir - the dream of the shore - 31 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 31

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 31

भाग - ३१

मकान मालिक भी बहुत खिसियाए हुए से बोले, 'मैंने सोचा कि, आप लोग लंबा सफर करके आए हैं। उपद्द्रव में अलग परेशान हुए हैं। थके हुए होंगे, कुछ चाय-नाश्ता लेता चलूं।' यह कहते हुए उन्होंने ट्रे सेंटर टेबिल पर रख दी, जो हमसे कुछ ही दूरी पर रखी हुई थी। फिर बहुत ही विनम्रता से बोले, ' आप लोग चाय-नाश्ता करके आराम करिए, फिर बातें होंगी।'

जाते-जाते मुन्ना को देखते हुए बोले, 'मुझे क्षमा करिए, मुझे आवाज देकर आना चाहिए था।'  'अरे भाई साहब इसमें क्षमा की कोई बात नहीं, हो जाता है ऐसा। आपने हमारा इतना ख्याल रखा, हम आभारी हैं।'

'आप हमारे मेहमान सरीखे हैं। ख्याल रखना हमारा कर्तव्य है।'

इतना कहकर वो चले गए।

उनके जाते ही मैंने कहा, 'यह तो निहायत शरीफ इंसान लग रहे हैं। बड़े होकर भी खुद ही चाय-नाश्ता ले आए। कितना ख्याल रख रहे हैं। इनके परिवार में और कोई नहीं है क्या?'

'दो लड़के हैं। एक फॉरेस्ट ऑफिसर है। वह मध्यप्रदेश में जॉब करता है। अपनी फैमिली के साथ वहीं रहता है। दूसरा सीबीआई दिल्ली में है। पति-पत्नी यहां रहते हैं। यह किसी ऑफिस में चीफ अकाउंटेंट हैं, कुछ ही दिन में रिटायर होने वाले हैं।'

'देख कर तो लगता ही नहीं कि, इनकी इतनी उम्र हो गई है।'

'पहली बार मिलने पर मैंने भी पैंतालिस-पचास का समझा था। अच्छा आओ इतने प्यार से ले आए हैं तो, पहले नाश्ता कर लेते हैं। उनकी मेहमान-नवाजी का सम्मान जरूरी है।' हमने हाथ-मुंह धो कर नाश्ता देखा तो मुन्ना बोले, ' नाश्ता क्या, यह तो पूरा का पूरा खाना ही ले आए हैं। कचौड़ी, सब्जी, मिठाई, नमकीन, पूरी केतली भरकर चाय। वाह भाई, मकान मालिक हो तो ऐसा हो।'

नाश्ता करते हुए मैंने कहा, 'नाश्ता तो वाकई बहुत शानदार है। ऐसी कचौड़ी तो लखनऊ में मैंने नहीं खाई।'

'अपने टेस्ट के लिए तो यहां की कचौड़ियां प्रसिद्ध हैं ही। एक जगह का तो नाम ही कचौड़ी वाली गली है।'

'अच्छा कभी ले चलना वहां, देखेंगे कि, कैसे इतनी जायकेदार कचौड़ियां यहां बनाते हैं।'

नाश्ता करते-करते ही मैंने कहा, 'सामान कम करते-करते भी कितना ज्यादा हो गया है। देखो सब एक जगह इकट्ठा हुआ तब पता चला कि कितना है।'

'हाँ, थोड़ी देर आराम कर लेते हैं। तब सब लगाते हैं।'

'तुम परेशान ना हो, मैं अकेले ही सब कर लूँगी, कोई बहुत ज्यादा नहीं है। अब तुम काम-धाम कैसे पूरे जोरों से आगे बढे, बस इस पर पूरा ध्यान दो। जैसे भी हो हमें हर हाल में अपनी मंजिल पानी ही है।'

'हाँ, यहां आए ही इसीलिए हैं।'

'एक बात पूछूं सच-सच बताओगे ?'

मैंने मुन्ना को बड़े गौर से देखते हुए पूछा।

'पूछो, लेकिन बिना शक किए हुए कि, सच नहीं बताऊंगा।'

मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, 'केवल काम-धंधे के चलते ही हम यहां आए हैं, या सबसे बड़ा कारण कुछ और है।'

मेरी बात पर वह मेरी आंखों में देखते हुए बोले, 'मेरी बीवी को कोई कष्ट ना हो, उसे किसी के ताने ना सुनने पड़ें, वह खुलकर बिंदास जीवन जी सके। मैं उसे बिना किसी अड़चन के जब चाहूँ तब प्यार कर सकूं। यह पहले मुख्य कारण हैं। और दूसरा मुख्य कारण बिजनेस है। मैंने तो अपना खरा-खरा सच बता दिया। अब तुम अपना सच बताओ। तुम बात सुनते ही एक बार में ही यहां के लिए क्यों तैयार हो गई?'

'जिन वजहों से तुमने यहां के लिए मन बनाया, बिल्कुल उन्हीं वजहों से मैंने भी यहां के लिए फैसला किया। जब अम्मी थीं, तभी तय कर लिया था कि, तुमसे बात करके कहीं दूर, किसी अनजान मोहल्ले में रहने जाएंगे।अम्मी को भी मना लूँगी, इसका मुझे पूरा भरोसा था। उसी मोहल्ले में रहने पर बेजा बातें करने वाले, शैतानी हरकतें करेंगे, इससे अच्छा रहेगा कि, कहीं दूर ऐसी जगह जा बसें, जहां हमें जानने वाला कोई ना हो। मगर अम्मी अचानक ही चल बसीं, तो मैं गफलत में पड़ गई कि, अब क्या करूं। मगर जब तुम्हारी बातें सुनीं, तो मुझे लगा कि, यह तो मेरे मन की बात से भी अच्छी बात हो गई। जब पहली बार यहां के कार्यक्रम में तुमने यह बात उठाई थी, मैं तब गफलत में थी।

मगर एक बात तभी से सोच रही थी, जब से तुम्हें चाहने लगी थी कि, ऐसी जगह साथ रहूंगी, जहां तुम-हम खुलकर प्यार कर सकें। कोई हमें टोकने-रोकने वाला ना हो, किसी का डर ना हो, हम जब चाहें तब बेइंतहा प्यार कर सकें। बिल्कुल रियाज़ और ज़ाहिदा की तरह। बस प्यार-प्यार और प्यार। और कुछ नहीं। शुक्र है कि ऊपर वाले ने मेरी सुन ली।'

'रियाज़-ज़ाहिदा की तरह! यह क्या बोल रही हो, किसकी बात कर रही हो, कौन है जिनका प्यार तुम्हें इतना अच्छा लग गया कि, वैसा करने का ख्वाब देख रही हो। कहीं तुम्हारे किरायेदार तो ....'

'इतनी जल्दी भी क्या है? प्यार की बातें जब प्यार करेंगे तब बताएँगे।'

'अच्छा, यह बात है, तो अभी करूं क्या?'

' ना ना, अभी नहीं, बिल्कुल नहीं, रात में। नहीं तो यह तुम्हारे शरीफ भोले-भाले मकान मालिक इस बार खाना लेकर आ जायेंगे।' इतना कहकर मैं खिलखिला कर हंस पड़ी। लेकिन तब-तक मुन्ना ने मुझे बाहों में जकड़ लिया। हम दोनों बड़ी देर तक एक-दूसरे को जकड़े-जकड़े पड़े रहे।

देर शाम को घूमने निकलने से पहले हम दोनों ने अधिकांश सामान करीने से लगा दिया था। मकान मालिक ने हमसे खाने के लिए भी आग्रह किया था, लेकिन हमने यह कहकर मना कर दिया था कि, नाश्ता ही इतना हैवी हो गया है कि, अब रात से पहले कुछ नहीं खा पाएंगे। बिल्कुल इच्छा नहीं है।'

हमारी इस बात पर उन्होंने रात के खाने पर इंवाइट कर लिया। मुन्ना लाख मना करते रहे, लेकिन उन्होंने एक ना सुनी। उनके विनम्र निमंत्रण के सामने हम मानने के लिए विवश हो गए। हमने कहा, 'ठीक है, रात को लौट कर खाएंगे।'

हम घूमते-घामते दशाश्वमेध घाट पहुंचे, वहां शाम को होने वाली गंगा आरती में शामिल हुए। गंगा की निर्मल धारा, भव्य आरती की उस पर पड़ती दिव्य आभा से हम दोनों अभिभूत हो गए। उसे देखकर मैं बोली, 'मैंने तो सोचा भी नहीं था कि, दुनिया में ऐसा भी होता होगा। कितना सुंदर, कितना दिलकश नजारा है। दिल को इतना सुकून तो पहले कभी मिला ही नहीं। मन कर रहा है कि, यह आरती ऐसे ही चलती रहे, और हम यहीं बैठे देखते रहें।'

'लेकिन हर काम का अपना नियम है। वह तो वैसे ही चलेगा। आओ अब चलें। इस घाट को थोड़ा और देख लिया जाए। फिर कभी शाम होने से पहले आएंगे, और पूरा घाट देखेंगे।'

'हाँ ठीक है। ये यहां पर जो इतने सारे विदेशी दिख रहे हैं, यह रोज आते हैं क्या ?'

'हाँ, यह गंगा आरती पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इसलिए तमाम विदेशी हमेशा आते रहते हैं।

मुझे ज्यादा डिटेल्स तो इस घाट के बारे में मालूम नहीं, लेकिन बताते हैं कि, प्राचीन समय से ही इसका वर्णन मिलता है । चलो, अब तो यहीं रहना है। आते रहेंगे, जानते रहेंगे रोज-रोज नई-नई बातें। अब काफी देर हो गई है। मकान मालिक महोदय खाने पर इंतजार कर रहे होंगे।' 'हाँ, देर कर दी तो उन्हें भी तकलीफ होगी।'

मकान मालिक की मेहमाननवाजी ने हमें इतना खुश किया कि, मैं सच कह रही हूं कि, मेरे पास उस खुशी को जाहिर करने के लिए आज भी अलफ़ाज़ नहीं हैं।' लेकिन इस मेहमाननवाजी के बाद जब हम ऊपर चलने को हुए, तो मकान मालकिन की एक बात ने हमें बड़ी उलझन में डाल दिया।

वो बोलीं, 'बेटा मेरी बात पर नाराज नहीं होना, मैं यह कहना चाह रही थी कि, सुहाग चिन्ह जीवन सुखमय होने का प्रतीक होता है। सुहागन होते हुए भी सुहाग चिन्ह धारण न करना एक तरह से ईश्वर ने कृपा कर जो सुख-समृद्धि सौंपी है, उसका अपमान करना हुआ। ईश्वर को नाराज करना हुआ। बड़ी होने के नाते सलाह दे रही हूं कि, अपनी सुविधानुसार ना बहुत कुछ, थोड़ा बहुत ही सही, सुहाग चिन्ह पहन लेना चाहिए।'

उन्होंने बड़े प्यार से मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर अपनी बात कही। मैंने बेड पर पहुंचते ही शैतानी करने पर उतारू मुन्ना से यह बात उठाकर पूछा, 'ये बताओ मुझे क्या करना चाहिए?' मुन्ना ने तुरन्त कहा, 'उनकी बात अपनी जगह सही है। देखो, मैं कभी इस तरह की बातों के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहूंगा कि, तुम अपने ऊपर कोई दबाव महसूस करो। तुम्हें अगर उनकी बातें ठीक लग रही हैं, तुम्हें पसंद है यह सब करना, तो करो। मुझे कोई एतराज नहीं है। बस जो भी करना, एक बात सबसे पहले ध्यान रखना कि, हमारी खुशी में उससे कहीं से भी कोई अड़चन ना आए।'

मुन्ना की बात सुनकर मैं कुछ देर उनकी बड़ी-बड़ी आंखों को देखती, उसे पढ़ती रही, फिर बोली, 'सुनो कल चलकर, जो-जो भी सुहाग की चीजें हैं, वह ले आते हैं।'

'उन्होंने कह दिया अगर इसलिए यह कर रही हो, तो फिर मैं कहूंगा कि, यह बिल्कुल नहीं करो। अगर तुम्हारा मन है तो ठीक है।'

'मैं उनके कहने से यह नहीं कर रही हूं। यह इत्तेफाक ही है कि, उन्होंने कह दिया। मैं तुमसे खुद ही एक-दो दिन में बात करने वाली थी, लेकिन पहले खुद समझ लेना चाहती थी। सच बताऊं, मुझे यह सब श्रृंगार की चीजें बहुत ही ज्यादा अच्छी लगती हैं।'

'मैं भी यहां आपको टोकना चाहूँगा कि, श्रृंगार को लेकर इतनी उत्सुकता, चाहत मुन्ना जी जैसे व्यक्ति के जीवन में आने के बाद पैदा हुई, या यह सोच आपकी पहले से ही थी।'

'ऐसा नहीं है, मैं शुरू से यह मानती रही हूं कि, श्रृंगार के बिना हम औरतें बड़ी अधूरी-अधूरी लगती हैं। उस समय मैंने मुन्ना से कहा भी, ' श्रृंगार के बिना लगता है जैसे हमने कुछ पहना-ओढा ही नहीं है। मुझे बड़ी अम्मी की एक बात अक्सर याद आती है कि, 'औरतें श्रृंगार के बिना एकदम छूंछी (रिक्त, खाली-खाली) सी लगती हैं।'

मगर हमारे घर की बदकिस्मती रही कि, उनकी इस बात पर उन्हें अब्बू से गंदी-गंदी गालियां सुनने को मिलीं। इसके बाद वह जब-तक रहीं श्रृंगार के नाम पर तेल-कंघी, साबुन से भी कतरातीं । बालों में महीनों-महीनों तक तेल नहीं डालतीं। अजीब से उलझे-उलझे बाल लिए रहती थीं। जुएं पड़ जाती थीं।

एक बार तो इतना खीझ गईं, इतना आज़िज़ आ गईं कि, बालों में मिट्टी का तेल ( केरोसिन आयल ) लगा दिया। पूरा सिर मिट्टी के तेल से तर कर दिया। मगर जब उसकी लगातार बदबू से उन्हें उबकाई आने लगी, तो मेरी अम्मी के बहुत कहने पर कपड़े वाले तेज़ साबुन से खूब धो डाला। इससे उनके लंबे-लंबे खूबसूरत बाल बुरी तरह उलझ गए। खराब हो गए। खूब टूटने लगे, कुछ ही महीने में उनके बाल आधे रह गए। परेशान होकर लानत भेजतीं ज़िंदगी को। कहतीं, 'कैसी बेमकसद ज़िंदगी जिए जा रही हूं।' उनकी वह हालत सोचकर मैं आज भी तड़प उठती हूं। मैं बहुत घबराती हूं, डरती हूं, सहमती हूं कि, कहीं मैं भी ऐसी ही बेमकसद ज़िंदगी का शिकार होकर खत्म ना हो जाऊं।'

यह कहते-कहते मैं बड़ी ग़मगीन हो मुन्ना से लिपट गई। उन्होंने मेरे बालों में प्यार से ऊंगलियां फिराते हुए कहा, 'तुम भी कैसी-कैसी बातें करती रहती हो। क्यों पुरानी बातें याद कर करके परेशान होती हो। तुम्हारे सामने भगवान ने नई ज़िंदगी दी है। उसमें खुशियां ही खुशियां दी हैं। उन खुशियों का जैसे चाहो वैसे आनंद लो। मैं जीवन में तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहता हूं। तुम जिसमें खुश रहो, वह सब का, सब काम तुम करो। कल चलना, जितना भी मेकअप का सामान लेना हो, जैसा भी श्रृंगार का सामान चाहिए वह सब ले लेना।'