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"मैं जानता हूं कि मेरे माता-पिता कल यहां आये थे। और उन्होंने तुम्हें जमकर डांटा है।" रमन ने कहा।
"हां बेटा! आराधना का जीवन पहले ही कांटों से भरा है। अब तुम इसका जीना ओर मुश्किल न करो।" कांता ने अपनी बेटी का पक्ष लिया।
"नजरीये का फर्क है मांजी। मैं आराधना की राहों में फूल बिछाना चाहता हूं और आप इसे कांटों भरी डगर कह रही है।" रमन ने कहा।
"कुछ भी हो! लेकिन आपको अपने माता-पिता के कहे अनुसार ही शादी करनी चाहिए।" आराधना अब शुष्क थी।
"ठीक है आराधना। जिस दिन माॅम-डैड मुझसे कहेंगे की तुमसे शादी कर लूं उस दिन मैं उनकी बात भी मान लुंगा।" इतना कहकर रमन वहां से चला गया।
आराधना की पलकें एक बार फिर भीग चुकी थी। मगर इस बार गम से नहीं! थोड़ी ही सही मगर जो खुशी रमन ने संसार के समझ उसे स्वीकार करने की बात कहकर दी थी, ये आसूं उसी का प्रतिफल थे। कोई युवा पुरूष उस कलमुंही, कलंकी और अपशगुनी औरत के लिए दुनियां से लड़ रहा था। यही सोचकर कुछ पलों के लिए वह अपनी किस़्मत पर गर्व करने से स्वयं को रोक न सकी। रमन आराधना की जिन्दगी में क्या आया, उसके प्रति लोगों की सोच धीरे-धीरे बदलने लगी थी। यह रमन की ही प्रबल इच्छाशक्ती का परिणाम था जो आराधना के मोहल्ले वाले अब उसे पुछने लगे थे। रहवासी उत्सव में अब आराधना को घर से बुलाकर लाया जाता। उसके भैया-भाभी ने इतना प्रेम आराधना को कभी नहीं दिया जितना इन कुछ महिनों में उसे मिला। यह रमन की ही निरंतर कोशिशों का परिणाम था जिसने विधवा आराधना के अधिकार और सम्मान के लिए सारे मोहल्ले मे जन जागृति अभियान छेड़ दिया जिसमें वह कामयाब भी हुआ। आराधना की अब एक पहचान था। उसे अब कोई अपशगुनी कहकर नहीं पुकारता था। देव स्थानों और अन्य तीज-त्यौहारों में उसे ससम्मान बुलाया जाता। इन सबके बाद भी आराधना ने रमन के विवाह प्रस्ताव को अब स्वीकार नहीं किया था। किन्तु रमन निस्वार्थ भाव से आराधना के प्रति अपना समर्पण बनाये रखा था।
उस दिन नगर में नवरात्रि का पहला दिन था। मां की आराधना में सारा मोहल्ला जगमगा रहा था। गरबा खेलने वाले वाली युवतियों का उत्साह चरम पर था। आराधना भी चनियां-चोली पहनकर तैयार हो गयी। रमन उस रात गरबा देखने के उद्देश्य से गरबा पांडाल के इर्द-गिर्द रखी कुर्सियों पर बैठा था। मां की मुर्ति के सम्मुख खड़े होकर उपस्थित सभी रहवासी आरती कर रहे थे। आरती की समाप्ति पर रमन की नज़र आराधना पर पड़ी। वह सर्वश्रृंगारित थी। किन्तु उसके माथे पर बिंदी नहीं थी जो उसकी सुन्दरता को आधा कर रही थी। रमन के साथ ही सारे नगरवासी चाहते थे की आराधना इस नवरात्रि में रमन की हो जाये। पांडाल के आसपास बच्चे और बुजुर्ग डांडिया रास देखने बैठ चुके थे। आराधना की नज़र रमन पर पड़ी। रमन ने इशारों में उसके मस्तक पर बिंदीयां की अनुपस्थिति की ओर आराधना का ध्यान इंगित किया। आराधना मुस्कुरा दी।
"अरे आराधना! तेरा माथा तो बिना बिंदियां के एकदम सुना है। ठहर मैं अभी बिंदी देकर आती हूं।" आराधना की सहेली पारो ने कहा।
"नहीं पारो! बिन्दी है मेरे पास।" आराधना ने हाथ में रखी बिंदी दिखाते हुये कहा।
"तो लगाती क्यों नहीं। बिना बिंदी के तेरा चेहरा फिका-फिका सा लग रहा है।" पारो ने कहा।
"ठीक है। अभी लगाती हूं।" यह कहते हुये आराधना, रमन के पास जा पहूंची।
आराधना की इस हरकत से चारों ओर सन्नाटा छा गया। डीजे साऊण्ड बंद कर दिये गये। एकदम शांति का वातावरण स्वतः ही निर्मित हो गया।
"रमन! मेरे माथे पर यह बिंदियां लगा दीजिये।" आराधना ने अपना एक हाथ रमन की ओर बढ़ाते हुये कहा। उस हात में बिंदी थी। रमन ने अपने आसपास देखा। सभी रहवासियों की नज़रे उन दोनों को ही देख रही थी। आराधना इतनी बहादुर कब से हो गयी? वह सोच ही रहा था की तब ही पास खड़े देव ने उसे अपने हाथ से चीमटी कांटी। रमन का ध्यान भंग हुआ। उसने आराधना के हाथों से बिन्दीयां लेकर उसके माथे पर लगा दी। आराधना का श्रृंगार अब पुर्ण हो चुका था। रमन के माता-पिता भी वहीं थे। डीजे साऊण्ड फिर बज उठे। गरबे की थाप पर आराधना का नृत्य देखते ही बनता था। रमन ने आराधना का भरपूर साथ दिया। दोनों युगल को एक साथ गरबा खेलते देखकर आज सभी प्रसन्न थे। मानों मां ने आज सभी नगर वासियों की मन की मुराद पुरी कर थी। कोई लड़की जब अपने माथे पर किसी युवक के हाथों से बिन्दीयां लगवाये इसका अर्थ था वह युवती उस युवको को अपना जीवनसाथी बनाना चाहती है। रमन और आराधना का विवाह बिना किसी मुहर्त और नक्षत्र देखे निर्बाध संपन्न हुआ। आज दोनों के सुखमय विवाह को छः वर्ष पुर्ण हो गये थे। दोनों के पवित्र प्रेम का प्रतिफल आयुष से उनका घर-आंगन महक रहा था।
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संभ्रांत परिवार का अमर मध्यम वर्गीय अनिता के प्यार में पागल था। अनिता का नशा उसके सिर चढ़कर बोल रहा था। उसने अपने घरवालों को साफ-साफ कह दिया था कि वह शादी करेगा तो अनिता से वरना आजीवन कुंवारा रहेगा। अंततः अग्रवाल परिवार अपने बेटे की खुशी के आगे झुक गया। मगर अनिता को यह विवाह मंजूर नहीं था। वह बहुत ही प्रैक्टीकल लड़की थी। वह अपना भविष्य देख सकती थी। यदि उसने अमर से शादी की तो निश्चित ही भावि समय उसके मायके वालों के लिए कांटों भरी डगर से कम नहीं होगा।
सर्व-सम्पन्न अग्रवाल परिवार में बहू बनकर जाना अन्य के लिए गर्व का विषय हो सकता था लेकिन अनिता के लिए नहीं। देर-सवेर अग्रवाल परिवार कभी न कभी मिश्रा परिवार की मध्यमवर्गीयता से अवश्य प्रभावित होगा। हो सकता है वे अनिता को मायके आने-जाने से भी रोके-टोके। और फिर उसके मायके वाले इन धनवान लोगों की आवभगत आशानुरूप न कर सके तो उन्हें आत्मग्लानी होगी वो भी निश्चित है। वे सदैव असहज रहेंगे। अमर पर अभी प्यार का भुत संवार है लेकिन जिस दिन भी ये नशा उतरेगा, अमर की नज़रों में अनिता की हैसियत घर की किसी नौकरानी से अधिक नहीं होगी। वह तब अपनी गलती पर अवश्य पछतायेगा और अनिता भी। अमर को विवाह हेतु अस्वीकृती देने वाली अनिता ने बहुत सोच-समझकर यह निर्णय लिया था। उसने अमर से यह भी कहा कि वह भले ही अनिता से प्रेम करता हो लेकिन वह अमर से प्रेम नहीं करती। और न हीं अमर उसे पसंद है।
अमर कुछ पल शांत था। शहर की चौपाटी बीच पर मिलने आयी अनिता के तेवर देखते ही बनते थे।
"हमे इस बात को यही खत्म कर देनी चाहिए अमर! आईन्दा से हम कभी नहीं मिलेंगे।" अनिता ने अमर से साफ-साफ कह दिया।
"तुमने सच कहा अनिता। तुम मुझसे कभी प्यार नहीं कर सकती। लेकिन मैं तुमसे करता हूं। और हमेशा करता रहूंगा।" अमर ने कहा।
अनिता के चेहरे पर संशय के भाव थे। मानो वह कुछ कहना चाहती थी मगर कह नहीं पा रही थी।
"अनिता! जहां प्रेम की बात है और जितना मैं प्यार को समझ सका हूं उसके बाद इतना तो जरूर कह सकता हूं की प्यार जात-पात, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी नहीं देखता। मैंने सिर्फ तुमसे प्यार किया था तुम्हारे स्टेटस से नहीं। लेकिन तुम्हें |