अध्याय 7
"आप आ गई हमें बहुत अच्छा लगा। अब आप गांव में मत जाना यही रहना हम लोगों को अच्छा लगेगा ।"
क्या जवाब दूं सोचूं इससे पहले पति मुकेश बोले "अजी यह पढ़ रही है ना? अभी थोड़े दिन में चली जाएगी। एग्जाम देकर आ जाएगी। गांव में भी तो रहना पड़ेगा।"
मैं बेवकूफ जैसे हंस दी।
यह क्या हो रहा है? मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आया।
मैंने पहुंचने की कुशलता का पत्र मम्मी-पापा को भेज दिया था । इससे ज्यादा मैं और क्या करती। मुझे लगा कब मैं भोपाल जाऊं और सब कुछ मां को बता दूं। ऐसा सोच रही थी कि उनका पत्र आया, 'हम लोग मामा जी के लड़के की शादी दिल्ली में हो रही है उसके लिए मैं और पापा जा रहे हैं। जिस दिन तुम आ रही हो उसी दिन हमारी भी गाड़ी हैं और समय भी दोनों का एक ही है | तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा है पर क्या करें तुम्हारी गाड़ी आने का समय और हमारी गाड़ी के रवाना होने का समय एक ही है शायद हम तुमसे मिल नहीं पाए। हम घर पर नहीं है तो क्या? तुम्हारे भैया-भाभी, छोटा भाई सब लोग हैं। हम दो दिन में आ जाएंगे चिंता मत करना।'
मुझे तो ऐसा लगा आसमान मेरे सर पर गिर पड़ा हो। मैं जाने की इतनी उत्सुकता में हूं यह सब बातें मैं बताऊं कि मैं क्या करूं? यहां तो यह लोग जा रहे हैं? मन बहुत ही खिन्न हुआ। किसी से कुछ कह नहीं सकती। कभी कोई मिलने आ जाता कभी कोई।
दिसंबर की छुट्टियां थी स्टाफ पूरा चला गया। सिर्फ एक दो फैमिली वाले रह गए थे। एक जैन परिवार मुकेश जी से बोला "यहाँ पास में एक जैन मंदिर हैं जो बहुत सुंदर है माता जी को दर्शन करा लाते हैं।"
वहां पर सभी मुझे माताजी कहते थे। एक बुजुर्ग से चपरासी मुझे माता जी कहता था। मुझे बड़ा अजीब लगा। मुकेश जी से कहा तो वे बोले "वह तुम्हारी रेस्पेक्ट करता है। इसीलिए माताजी बोलता है। तुम्हें बुरा मानने की क्या बात है। तुम्हारे दक्षिण में तो कुंवारी लड़की को भी अम्मा कहते हैं?"
"वह अलग बात है वहां सभी के नाम के पीछे अम्मा लगाते हैं। यहां तो ऐसा नहीं होता।" "ज्यादा बहस करने की जरूरत नहीं है। कह दिया रिस्पेक्ट करते हैं"
मैं चुप तो हो गई पर मन व्यतीत हुआ।
अब भोपाल पहुंच गए। मां और रिश्तेदार जो दिल्ली जाने के लिए खड़े थे उनकी गाड़ी लेट थी अतः मुझे देखने हमारे प्लेटफार्म पर आ गए। मेरा दिल भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे। सब लोग कहने लगे "अरे क्या हो गया दो दिन में तो हम आ जाएंगे? "अब रोना-धोना नहीं चलेगा। अब तो ससुराल में ही रहना पड़ेगा। अम्मा के पास कब तक रहोगी?"
मेरी व्यथा तो मैं ही जानती थी। खैर मैं घर आ गई। घर में सब थे। मम्मी पापा नहीं थे पर मुझे घर सूना लग रहा था। सबसे मैं क्या कहती? सब लोग बहुत खुश थे। भाभी ने सोचा होगा चलो यह अपने ससुराल चली गई तो मुझे भी आराम हो जाए मेरा ही राज होगा। पता नहीं दो दिन कैसे मैंने निकाले यह तो मैं ही जानती हूं।
जब अम्मा के आने का हुआ मैं तो बहुत खुश हुई अब मैं अपने मन की बात उन्हें बताऊंगी! अरे पर ये क्या? उनके साथ तो रिश्तेदारों का एक बड़ा झुंड ही आ गया। सब लोग दामाद की तारीफ करने लगे। मेरी मम्मी-पापा की भी बहुत तारीफ की "तुमने बहुत अच्छा काम किया लड़की की शादी कर दी। अच्छा सा दामाद मिल गया। बहुत-बहुत बधाई हो।" उनकी बातों को सुन सुनकर मेरा दिल घबरा रहा था। पर मैं मौन थी। मुझे लगा ये लोग कब जाएंगे?
खैर वह दिन भी आया वे लोग चले गए। मेरी अम्मा जब एकांत में थी तब मैंने बताया। यह आदमी तो शादीशुदा है। वे दंग रह गई। पर मुझसे बोली "तुम किसी से कुछ ना कहना।"
उनकी पापा से बात हुई। उन्होंने भी कहा "चुप रहो। जो हो गया सो हो गया। जो बिंध गया वह मोती है | अब कुछ नहीं हो सकता। तुम्हारे भाईयों को भी या किसी को भी यह बात मत कहना। भाइयों से कहोगी तो तुम्हारी इज्जत ही कम होगी और तुम्हारे पति की भी वे लोग इज्जत नहीं करेंगे?"
क्या यह एक तरह से ऑनर-किलर नहीं था। किसी की आत्मा और दिल का ऑनर किलर तो था ही पर उस समय मैं समझ नहीं पाई। बहुत ही सीधी-सादी सोचने की शक्ति मुझमें नहीं थी। जो मम्मी पापा कह रहे हैं वही सही है यही बात मेरे समझ में आती थी। खैर जिसका कोई नहीं होता उसका ऊपर वाला होता है। इस बात पर तो मुझे विश्वास था। अब भी इस बात पर विश्वास करती हूं।
मैं परीक्षा की तैयारी करने में लग गई। इन चार-पांच महीनों में पति मुकेश जी दो तीन बार बीच में आए।
मजाल है मेरे घर वालों ने उनसे कुछ पूछा हो। उन्होंने तो ऐसा दिखाया ही नहीं जैसे कुछ हुआ है। सब सही है ऐसे ही वे मुकेश जी का आदर-सत्कार कर रहे थे। उन्होंने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा मैंने भी कुछ नहीं कहा। क्या आजकल की लड़कियां ऐसी चुप रह सकती है?
जून के महीने में परीक्षा तो खत्म हो गई । मेरा वाइवा रह गया था । उसकी तारीख का पता नहीं चला। खैर वाइवा भी हो गया। पति मुकेश जी आए अब उनके साथ मुझे जाना था। मुझे आगे की जिंदगी के बारे में कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
मैं जयपुर आ गई। स्टाफ के एक दो जने पड़ोस में थे। उनका आना जाना रहता है। पर वे मेरे पति का बहुत आदर करते थे। और मेरे पति मुकेश भी बड़े गंभीर स्वभाव के थे। बहुत ही विद्वान थे। उन्होंने कई किताबें लिखी थी। इन सब बातों ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया। मुझे फ़ूहड़ और छिछोरे आदमी वैसे भी अच्छे नहीं लगते थे। इसीलिए उनके प्रति मेरे मन में एक आदर भावना आ गई थी। यह अच्छी बात थी। जो समझौता करने में काम आई।
जयपुर आते ही पता चला हमारा मकान बन रहा है। दो कमरे बना रहे थे। प्लाट तो बड़ा था पर इस समय सिर्फ दो कमरे बन रहे थे। उसकी देखभाल करने के लिए मेरे ससुर जी जयपुर आ गए थे। एक किराए के मकान में हम रहते थे। ससुर जी पढ़े लिखे विद्वान थे। सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे। गांव के होने के बावजूद भी वे बड़ी ऊंची सोच के और खुले दिमाग के व्यक्ति थे। वे आर्य समाजी थे। मेरे ससुर जी के बहुत सारे मंदिर थे जिसे उन्होंने स्कूल के लिए दान दे दिया था। उन मंदिरों में अब स्कूल चलता है। वह मुझे देखकर बड़े प्रसन्न हुए।
उन्हें मैं तरह-तरह के दक्षिण के व्यंजन बना कर खिलाती। वे बड़े खुश होते। मुझसे तो कुछ नहीं कहते अड़ोस-पड़ोस की औरतों से कहते "बहुत नरम-नरम चीजें बना कर खिलाती है जो बड़ा स्वादिष्ट होता हैं | वह बड़ी बहुत होशियार है। मेरे दांत नहीं हैं अत: नरम चीजों को खाने में बहुत आसानी होती है ।"
औरतें बताती तो मुझे भी अच्छा लगता।