Barah panne - ateet ki shrankhla se part 6 in Hindi Fiction Stories by Mamta books and stories PDF | बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से पार्ट 6

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बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से पार्ट 6

उस समय की ही नही आज भी मेरे शहर के अपनत्व की मिठास लिए खाने की बात ही कुछ और है ,कोई मुक़ाबला ही नही बचपन से खायी उन चीज़ों का ।

गर्मियों में क़ुल्फ़ी की बात किए बिना तो आगे जा ही नही सकती ।कढ़े हुए दूध की इलाइची डली क़ुल्फ़ी लेकर घंटी बजाता क़ुल्फ़ी वाला आता और सींक पर लगी मोटी सी क़ुल्फ़ी गाढ़े दूध में डुबोकर पकड़ा देता ।अधैर्य से उस ठंडी क़ुल्फ़ी को जल्दी जल्दी खाना भी अपने आप में एक कला थी ।ज़रा सी देर की नही कि क़ुल्फ़ी फ़टाक से पिघलकर नीचे गिर जाती और हम हाथ मलते रह जाते ।अब पिघलती हुई गिरने को तैयार क़ुल्फ़ी की सुने या ठंडक से जमते अपने दाँतो की सुने ? क़ुल्फ़ी कहे जल्दी खाओ और ठंड से जमे दाँत कहें कि बस और नही ।

दस ,पंद्रह पैसे में इतना आनंद भला कहाँ मिलता ।और तब कोई मिलावट भी नही थी ,सब कुछ शुद्ध मिलता था ।बाद में तो धुरंधर दूधवालों ने नक़ली दूध बनकर बड़े बड़े वैज्ञानिकों तक को आश्चर्य में डाल दिया ।क़ुल्फ़ी खाना तो बहुत दूर चाय पीते भी डर लगने लगा कि दूध पता नही कैसा होगा ?


पर उस वक्त के क्या कहने ? सींक वाली क़ुल्फ़ी के साथ अब मटके की क़ुल्फ़ी को भला कैसे भूल सकते है ।गर्मियों की शाम साफ़ सुथरे ठेले के बीच में रखा एक मटका पानी से तरबतर लाल कपड़े से ढका हुआ ,साथ में दो ढके हुए पतीले और कुछ शर्बत की बोतलें ।वो हमारी लेन में आया नहीं कि भीड़ जम जाती उसके चारों तरफ़ हम बच्चों की ,अधैर्य से अपनी अपनी बारी की प्रतीक्षा में ।क़ुल्फ़ी वाले को तो लगता था कोई जल्दी ही नहीं होती थी ।बड़े इत्मीनान से मटके से एक कोन निकलता उसका ढक्कन खोलकर चाकू से खुरच कर उसमें से जमी क़ुल्फ़ी निकालता ,फिर एक स्टील की तश्तरी में रखकर ,उस पर फ़ालूदा और तरह तरह के शर्बत छिड़कता और तब तक हमारे मुँह में पानी भर आता ,हमें लगता ये जल्दी क्यूँ नहीं कर रहा ?

पर वो अपना पूरा समय धैर्य से लेता ,और जब हमारे हाथ में तश्तरी आती तो लगता बस हम ही राजा है ,बाक़ी बच्चे अपनी बारी की इंतज़ार में खड़े हमें देखते रहते ।वो पल हमारे लिए कितना गर्व का था कि हमें पहले मिली क्यूँकि हमने जल्दी बाहर निकालकर अपना नम्बर लगवा लिया ।उस इंतज़ार के बाद मिली क़ुल्फ़ी खाने का स्वाद अतुलनीय था जो आज ढूँढे भी नहीं मिलता ।ना वो क़ुल्फ़ी रही ,ना ऐसी क़ुल्फ़ी बनाने वाले और ना वो साथी जो साथ खड़े होकर अपनी अपनी बारी का इंतज़ार किया करते थे ।अब अकेले क़ुल्फ़ी खाने में भला क्या मज़ा ?

इस तरह क़ुल्फ़ी खाने का मज़ा तो हमने कालेज तक लिया ।उन दिनो की बात है जब मै बी एड कर रही थी ,साथ में कई विवाहिता छात्रायें भी थी ।मैंने अपने शरारती स्वभाव का चस्का उन्हें भी लगवा दिया ।कालेज से लौटते समय हमारा ग्यारह लड़कियों का समूह रोज़ एक क़ुल्फ़ी वाले के पास रुकता और दस दस पैसे वाली क़ुल्फ़ी ही लेता जो उसने बहुत छोटे बच्चों के लिए बनायी होती थी ।गिनकर उसे एक रुपय दस पैसे देते और क़ुल्फ़ी के मज़े लेते ।उस बेचारे ने हमें साड़ियाँ पहने देख कई बार कहा भी कि बहनजी पचीस पैसे वाली ले लो पर जो मज़ा दस पैसे वाली क़ुल्फ़ी लेकर शरारत करते हुए खाने में था वो और किसी में कहाँ आता ।क्यूँकि हंसते हंसते किसी ना किसी की क़ुल्फ़ी तो गिरती ही थी और उसका खूब मज़ाक़ भी बनता था ।तब क़ुल्फ़ी खाना हमारा उद्देश्य नही होता था ,उद्देश्य होता था मस्ती करना ।क्या दिन थे वो भी ? पंख लगाकर पंछी की तरह उड़ गए ।

खाने पीने की जब बात हो ही रही है तो चाट का ज़िक्र तो होना ही चाहिए और अपने शहर की चाट का तो क्या बखान करे ,बताते हुए ही मुँह में पानी भर आता है ।ऐसे तो शहर में बहुत जगह चाट वाले खड़े होते थे पर मेन बाज़ार में एक छोटी सी दुकान थी चाट की ,उसका तो कोई मुक़ाबला ही नही था ।शाम होते ही अपनी दुकान के बाहर की तरफ़ बलवा चाट वाला अपनी चाट का सामान सजा देता । एक काँच की छोटी सी अलमारी में सजी ख़स्ता ,बैंगनी,और पुदीना टिक्की ,दही का मिट्टी का बर्तन ,हरी और लाल चटनी ,मसाले ,और एक बड़ी सी पीतल की पराँत में पानी में डूबी मूँग दाल की पकोड़ी और उरद दाल की गुजिया ।क्या कहने उस सजावट के कि देखते ही मन ललचा जाए ।फिर पत्तों के बने दोने में वो बड़ी कुशलता से चाट बनाता ,हम सामने पड़ी लकड़ी की बेंच पर बैठे बड़े अधैर्य से देखते रहते ,लगता कि थोड़ी सी और डाल दे ।पर जब खाने लगते वो भी पूरी ना खायी जाती और पापा को ही खानी पड़ती ।आज तक कहीं भी ऐसी स्वादिष्ट चाट नहीं खायी ,एकदम साफ़ सुथरी लाजवाब ।ऐसे मज़ेदार स्वाद पुराने शहरों की अपनी अलग ही परम्परागत देन होते है ।

और सरदियों में नहर के किनारे बनी बरसों पुरानी मूँगफली की दुकान की मोटी मोटी और गेरुए रंग से रंगी अजब मिठास लिए उस मूँगफली का स्वाद आज भी याद है ।इतने बरस बीत गए ना तो उस दुकान का कलेवर बदला ना मूँगफली का रंग और ना मिठास ! जैसे हम बचपन से देखते आए थे उसी तरह आज भी नहर की मूँगफली के नाम से ही प्रसिद्ध वो दुकान मानो ज्यों की त्यों धरी है ।उसी तरह भाड़ में जलती आग पर बड़ी बड़ी कढ़ाईयों में भुनती मूँगफली की ख़ुशबू आज भी राह चलतों का दामन थाम कर रोक ही लेती है ।वहाँ से मूँगफली लिए बिना कोई आगे जाए भी तो कैसे ?

हमारे बचपन में सरदियों की शाम सबके घर वहाँ से ताजी भुनी गरमा गरम मूँगफली आती और रात को रज़ाई में बैठकर ऊपर से अख़बार रखकर मूँगफली खाने के आनंद में हमारे हाथ भी रंग जाता करते थे ।कितना मज़ा था उस तरह इकट्ठे होकर मूँगफली खाने का ,वर्णन करना ही मुश्किल है ।

अपने इन पुराने शहरों की संस्कृति सभ्यता में रची बसी वो परंपरायें ,वो स्वाद आज भी भुलाए नही भूलता ।और अब ख़ासतौर पर जब अपने शहर ही नही देश से भी सात समंदर पार बैठकर तो कुछ अधिक ही ख़याल आता है ।जीवन भी कितने तरह के रंग दिखाता है ।

आज सुबह सुबह उठ कर घूमने जाने लगी तो कपोलों को स्पर्श करती सिहरन सी जगाती ठंडी हवा ने फिर से बचपन के गलियारों में पहुँचा दिया जब हम सब सुबह घूमने जाया करते थे ,वो भी नहर के किनारे ।

मेरे प्यारे से शहर की ख़ूबसूरती को और भी बढ़ाती ये नहर ! शहर के बीच से होकर बहती 1854 में बनी इस नहर का अपना एक अलग ही आकर्षण है ।शहर को दो भागों में बाँटती और एक बड़े से पुल से जोड़ती इस नहर के किनारों पर चार बड़े बड़े प्रहरी से खड़े शेर इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देते है ।अब तो उस नहर पर कई सारे पुल बन गए हैं ,और रात में जगमगाती हुई लाइटों का प्रतिबिम्ब जब पानी में पड़ता है तो लहरों के उतार चढ़ाव के साथ अद्वितीय दृश्य बन जाता है ।

और जब दिन के समय मिलिटेरी के लोग उस पर युद्ध के लिए नावों का पुल बनाने का अभ्यास करते तो यह दृश्य देखकर शहर के लोगों का गर्व से सीना चौड़ा हो जाता और हम बच्चों को आनंद और आश्चर्य से भर देता ।

तब इस नहर पर तीन पुल थे ,जो शहर के दोनो हिस्सों को आपस में जोड़ते थे ,एक स्थान पर पुल के नीचे से एक बरसाती नदी बहती है और पुल के ऊपर से नहर ,ये उस समय की इंजीनियरिंग का एक अदभुत नमूना है जो आज भी आश्चर्य में डाल देता है ।

उस नदी पर कभी कभी हम सब बच्चे मिलकर घूमने जाते थे ।वहाँ नदी के निकलने के लिए क़रीब पचीस मीटर ऊँचे पुल के नीचे से सोलह रास्ते बने है , जहाँ ऊपर से नहर बहती है ।उस पुल के नीचे खड़े होकर ऊपर से बहती नहर के पानी की आवाज़ सुनना सिहरन सी पैदा कर देता था और ऊपर से एक और डर हमें परेशान करता था।

वो ऐसे कि ना जाने कैसे हम बच्चों में एक बात फैल गयी कि इस नदी के पास ही अपने समय के कुख्यात सुल्तान डाकू की बनायी सुरंग है ,जो पास के दूसरे शहर में जाकर निकलती है ।सुल्तान डाकू इसी सुरंग से आता जाता है और वो कभी भी यहाँ आ सकता है ।बस फिर तो इस बात का ज़िक्र आते ही काले कपड़ों में घोड़े पर सवार होकर आते डाकू की कल्पना करते हुए हम सब वहाँ से भाग खड़े होते थे ।आज बचपन में सुनी गयी और विश्वास की गयी इस किवदंती को याद करके बहुत हंसी आती है ।

यही नहर हमारे शहर भर को लोगों का स्विमिंग पूल भी थी और आज भी है ।गर्मियाँ आयी नहीं कि लड़कों का नहर में कूदकर तैरना शुरू ।ये नहर शहर भर के लड़कों के लिए तैराकी सीखने का एक सरल सुलभ साधन थी और आज भी है ।तब आबादी ज़रा कम थी तो लड़के अदम्य साहस का प्रदर्शन करते अपना शौर्य दिखाते ,कमर पर रस्सी की सहायता से टिन के ख़ाली डब्बे बांधकर तैरना सीखते और थोड़ा सा हाथ पैर मारना सीखते ही पुल के ऊपर चढ़कर नहर में कूदते ।ना कोई लाइफ़ गार्ड ना कोई कोच ,बस सीख लिया तैरना ।पता था कि डूबने लगेंगे तो कोई ना कोई बचा ही लेगा ,इतने सारे लोग जो वहाँ तैराकी करते रहते थे ।इसीलिए कोई इतनी गहरी नहर में कूदने और तैरने से नही डरता था ।कई बार तो अपने माता पिता को बिना बताए ही नहर में नहा आते थे ये लड़के पर उस समय की संस्कृति लड़कियों को इस बात की इजाज़त नही देती थी ,इसलिए हमने तो कभी हिम्मत की नही ।

बहुत सालों बाद मुझे मेरी पाँचवीं क्लास में पढ़ने वाला लड़का मिला ,हमारे बड़े अच्छे पारिवारिक सम्बंध थे वो एक दिन बातों बातों में अपनी नहर में नहाने की घटना सुनाने लगा ।अब मेरे पति महोदय भी मेरे ही शहर के है और उसकी तरह नहर में नहाने का स्वाद चख चुके थे तो सब मज़े लेकर उस घटना को सुनने लगे ।

उसने बताया कि वो रोज़ अपनी माँ को बिना बताए नहर में नहाने चला जाता था,कई बार इस बात बार घर में डाँट भी पड़ी पर जनाब कहाँ सुनने वाले थे ।कई दिन ठंडे पानी में लगातार नहाने से बुख़ार आ गया पर फिर भी नही माने ।जैसे तैसे बुख़ार काम हुआ तो अग़ले दिन उठाकर स्कूल चले गए लौटते हुए नहर का आकर्षण फिर खींच ले गया ,बस्ता और यूनिफार्म रखे किनारे और लगा दो पानी में छलाँग ।घर आते ही फिर से बुख़ार आ गया तो उसकी माँ उन्ही कपड़ों में डॉक्टर के पास ले गयी ।डॉक्टर ने जैसे ही जाँच करने को हाथ लगाया तो यूनिफ़ोरम के नीचे पहने गीले कपड़ों पर उसका हाथ लग गया। वो उसकी माँ से बोला अगर ये इसी तरह नहर में डुबकी लगाएगा तो बुख़ार कैसे ठीक होगा ।बस फिर क्या था बुख़ार में ही बेचारे की ठुकाई हुई ,आज तक याद करके हँसता है ।

ऐसा था हमारी नहर का आकर्षण लड़कों में ।एक चाची हमारे पड़ोस में रहा करती थी,उनके घर में झगड़ा हुआ नही कि वो धमकी देती कि नहर में कूद कर मरने जा रही हूँ ।हालाँकि कभी कूदती नही थीं बस नहर के पानी में पैर डाल कर बैठ जाती और जब तक उन्हें सब मिलकर मना कर ना ले आयें उनकी नहर में कूदने की धमकी जारी रहती थी । बड़े सरल और प्यारे लोगों ने मिलकर बसाया है, मेरा ये प्यारा सा शहर ।

एक बार हम सबको भी सुबह उठ कर घूमने जाने का शौक़ चढ़ा ,यही कोई सात आठ साल की उम्र रही होगी । सीमा की माँ के साथ हम सारी लड़कियाँ चल देतीं नहर की तरफ़ घूमने ।सुबह सुबह नहर के किनारे की ठंडी हवा नींद खोलकर स्फूर्ति से भर देती थी ।

बहुत ही मज़ा आता था ,लड़के अलग ही चल देते और कही दूर से चक्कर लगाकर आते । बाद में पता चला कि रास्ते में अमरूद का बाग पड़ता था वहाँ से माली की नज़र चुराकर अमरूद तोड़ते थे ,माली बेचारा सुबह की ठंडी हवा में नींद का आनंद ले रहा होता था ।

एक दिन रंजू संजू और दिनेश साथ में एक दो और साथियों को लेकर घूमने गए और आदतन चोरी से अमरूद तोड़ने लगे ।माली की आँख खुल गयी तो सरपट जान बचाकर भागने लगे पर माली ने पकड़ कर दो चार रसीद कर ही दिए ,घर आकर और मार पड़ी कि चोरी क्यूँ की ।अब ये बात घर तक ही रहती तो कोई बात नहीं थी पर हमारे मोहल्ले में भला कोई बात छुप सकती थी सबको उनकी अमरूद चोरी और पिटाई की बात पता चल गयी । हम लड़कियों को उन्हें चिढ़ाने का मौक़ा मिल गया ,फिर क्या था लड़के और लड़कियों के बीच में दरार पड़ गयी ,सब अलग अलग खेलने लगे ।पर हमें इतना खुश खुश लंगड़ी टाँग खेलते देखकर लड़के हो गए परेशान और तब लड़को ने अपना जासूस बनाकर अकुल को हमारे पास भेजा ,हमारे खेल को ख़राब करने और चुपके से पता लगाने को कि हम क्या बाते कर रहे है ?

जैसे ही वो हमारे खेल के बीच में घुसा वैसे ही तड़ाक से उसकी गाल पर एक चाँटा पड़ा मुझसे ,बेचारा गाल मलता भाग गया ।बाक़ी लड़कों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी । फिर नहीं आए कई दिनो तक हमें परेशान करने ।बस हमारे साथ कुट्टा चलती रही ।कुछ दिनो बाद फिर हमारी अब्बा हो गयी और सब मिलकर खेलने लगे पर मेरी छवि सबके बीच बड़ी खूँख्वार क़िस्म की बन गयी ।

बहुत सालों बाद जब मुलाक़ात हुई तो सबकी एक राय थी कि तू बड़ी गुस्सेवाली थी बचपन में ,तुझसे सब डरते थे ।और मुझे इस बात का अंदेशा भी नहीं हुआ कभी ।अब हंसी आती है सोचकर भी ।

उस समय हमारे किसी के घर में कोई मोबाइल या टी वी वग़ैरह तो था नहीं या तो मनोरंजन बाहर खेलकर ही होता था या फिर घर के अंदर खेले जाने वाले खेलों से ,कितने ही खेल थे जो हमने खेले ।गुड़िया का खेल भी इनमे से एक था ।पापा मेरी सबसे छोटी बहन के लिए एक प्यारी सी गुड़िया और उसके घर का फ़रनीचर लाए थे ,जिसमें एक पलंग निवाड़ का बना ,सोफ़ा ,ड्रेसिंग टेबल थी ।साथ में हमारे पास किचन सेट के छोटे छोटे बर्तन थे ।यहाँ तक कि माँ के बचपन के छोटे छोटे कप प्लेट भी थे ।उनसे घर घर खेलने में क्या मजा आता था कि वर्णन नहीं कर सकते ।

शायद ऐसे ही खेलों से तब लड़कियाँ घर बनाना सम्भालना और अपनी परम्परा ,अपनी विरासत का सरंक्षण करना सीख जाती होंगी ।यही से हमने भी घर को सजाना ,मेहमान नवाज़ी भी सीखी । छोटे छोटे बरतनो में माँ से लिया खाने का सामान रख लिया और मेहमान बन कर आए किसी दोस्त को परोसा ,ये सब हमारे खेल का हिस्सा होते थे ।घर के आँगन के कोने में गुड़िया का घर बनाकर उसे सजाया जाता ,गुड़िया के नए कपड़े बनाए जाते ,गुड़िया की शादी तक रचाई जाती ।

तब खेल खेल में ही हम कितना कुछ सीख गए थे ।जो धैर्य ,संस्कार ,घर सम्भालना तब सीखा वो दुनिया के किसी स्कूल में शायद ही सीख पाते ।हमारे बड़े होने के बाद भी बरसों तक हमारी गुड़िया का वो सारा सामान हमारी अलमारी के एक हिस्से की शोभा बढ़ाता रहा । यहाँ तक कि थोड़ा सा बड़े होने पर हमने ख़ुद तरह तरह की गुड़िया बनाना भी सीखा और उसके तरह तरह के कपड़े भी बनाए ।

तभी तो आज गर्व से कह सकते है कि शायद ही कोई काम ऐसा होगा जो हम नहीं कर सकते ।ये छोटे छोटे खेल जीवन की बड़ी शिक्षा दे जाते थे ।हमारे लिए तो तब यही समर कैम्प थे और यही एक्टिविटी सेंटर ! किताबी ज्ञान के साथ सारा दुनियावी ज्ञान इन्ही खेलों के माध्यम से हमने सीखा ।

इसलिए हमारे जीवन में सुरनगरी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है जो अमिट रूप से हमारे हृदय में अंकित है ।यही तो हमारे जीवन का पहला स्कूल था जहाँ हमारे चरित्र की नींव पड़ी ।बस ऐसे ही प्यारे प्यारे से खेल हमारे मनोरंजन का साधन थे या फिर कभी कभी हमारे माता पिता हमें फ़िल्म दिखाने ले जाते थे जो हमारे लिए किसी उत्सव से कम नहीं था । ये तो तय था कि जो भी फ़िल्म देखकर आएगा शाम की महफ़िल में दोस्तों को उसकी कहानी सुनाएगा ।बड़ा मज़ा आता जब पूरी फ़िल्म बाक़ायदा ऐक्टिंग के साथ दोहराई जाती ।

और इससे भी मज़ेदार एक और आकर्षण था फ़िल्मों के पोस्टर लगी हुई रिक्शाओं में जुलूस निकलना । हर शुक्रवार की शाम को जब भी कोई नयी फ़िल्म लगती या पुरानी लगी फ़िल्म के कुछ हफ़्ते पूरे होते तो उन फ़िल्मों के बड़े बड़े पोस्टर रिक्शाओं पर रखे जाते ।फिर कई ढोलवाले ढोल बजाते आगे आगे चलते और पीछे पीछे पोस्टर लगी रिक्शाओं का जुलूस । हम सारे बच्चे उस सड़क पर एकत्रित हो जाते जो हमारे घर के एकदम पास से निकलती थी और उसका मज़ा लेते । उन फ़िल्मों के गाने भी ज़ोर ज़ोर से बजते रहते थे जो बाद में हमारे गाने के काम आते । मेरा छोटा भाई तो ये देखकर नाचने ही लगता था बहुत ही छोटा था तब ।और जब किसी फ़िल्म को लगे ज़्यादा हफ़्ते हो जाते तो बैंड उस फ़िल्म के गाने बजाता आगे आगे चलता और पोस्टरों का जुलूस पीछे पीछे ,क्या आनंद आता था ।एक प्रकार से ये उस समय की फ़िल्मों की मार्केटिंग थी शायद ।

रेडियो पर उन फ़िल्मों के गाने सुन सुन कर ऐसे याद हुए कि आज भी गाते समय शब्दों को देखने की आवश्यकता नही पड़ती ख़ुद ब ख़ुद ज़ुबान पर आ जाते है ।रेडियो सीलोन से आने वाली बिनाका गीतमाला और रात को रेडियो पर आने वाले तामीले इरशाद कार्यक्रम का भी इसमें बड़ा हाथ है ।रेडियो सीलोन लगाना भी अपने आप में एक कला थी ,धीरे धीरे रेडियो की नाब को बड़ी कुशलता से घुमाना पड़ता था कि किसी तरह स्टेशन पकड़ा जाए और फिर अमीन स्यानी की दिलकश आवाज़ में कार्यक्रम की प्रस्तुति मन को आह्लाद से भर देती ।अग़ले दिन सुबह होते ही समवेत स्वर में फिर वो गाने दोहराए जाते ।

एक दिन ऐसे ही रेडियो की नाब घुमाते मुझे ना जाने क्या सूझी की एक आलपीन लेकर रेडियो की नाब में डाल दी ,बस लगा ज़ोर का झटका ।ऐसे मूर्खतापूर्ण काम जो बचपन में किए थे ,आज अनजाने ही होंठों पर मुस्कराहट लाने का सबब बन जाते हैं ।

अब तो ख़ैर ज़माना ही बदल गया,आज के समय में तो किसी के पास इतना वक्त ही कहाँ कि फ़िल्मों के पोस्टर बने जुलूस निकले और सब बड़े छोटे उन्हें देखने घर से बाहर निकल जाए या फिर तन्मयता से बुधवार की रात का इंतज़ार किया जाए गाने सुनने के लिए ।आज तो मोबाइल और टी वी ने सबको घरों में क़ैद कर दिया ।मायके जाती हूँ तो देखती हूँ कि शाम को भी हमारी लेन सूनी पड़ी होती है, कोई बच्चा खेलते ही नहीं दिखता । आज हर घर के सामने खड़ी गाड़ियों और स्कूटरो ने लेन को भी जैसे सिकोड़ सा दिया ।

तब तो पूरे शहर में गिने चुने स्कूटर थे ।दूर से ही मोहन चाचा जी के लेमरेटा और पापा के बजाज स्कूटर की आवाज़ सुनाई दे जाया करती थी । उसी बजाज स्कूटर पर पापा ने मुझे ड्राइविंग का पहला पाठ पढ़ाया था शायद दस साल की उम्र में ।और बरसो बाद पापा ने अपने पैरों में आगे खड़ा करके मेरे छोटे से चार साल के बेटे से वही स्कूटर चलवाया । मैं पीछे बैठी डरती रही और मेरा बेटा शान से स्कूटर को ऐसे रेस देता रहा मानो पूरा कंट्रोल इसी के हाथ में हो ।उसी एतिहासिक स्कूटर को सहेज कर बरसों तक रखा गया ,कितनी यादें जो जुड़ी थी उससे ।

पापा का बचपन से ही मोहल्ले भर के बच्चों से बड़ा प्यार रहा ।जब भी फ़ौज की नौकरी से सालाना छुट्टी पर पापा आते तो सारे बच्चे प्रसन्न हो जाते ।आज भी सब याद करते है कि जब उन्हें फ़ौजी कपड़ों में देखते थे तो कितनी ख़ुशी होती थी ।

और पापा सबको इकट्ठा करके कभी कहानी सुनाते ,कभी फ़ौज के क़िस्से सुनाते तो कभी जादू के खेल दिखाते ।बारिश में सब बच्चों को इकट्ठा करके भीगने ले जाने का भी उन्हें बड़ा शौक़ था ।और पापा के साथ ये मज़े केवल हमने अपने दोस्तों के साथ नही किए ,हमारी अगली पीढ़ी ने भी इसका आनंद उठाया ।

हमारी लेन में सरदार चाचा जी का परिवार रहता था । उनके पाँच लड़कों और एक लड़की में से मजाल कभी कोई बाहर तो दिख जाए ।सब के सब घर के भीतर ही बने रहते ।कभी बाहर आए भी तो जल्दी से सिर झुकाए घर के अंदर । सब बड़े लड़के बस अंदर रह कर पढ़ाई में लगे रहते , मुझे याद नहीं कि कोई हमारे साथ वाला बाहर आकर खेला हो ।बाद में हमसे छोटे दोनो भाई ज़रूर निकलने लगे थे ।

तब सरदार चाचा जी अपनी साइकिल पर अक्सर बहुत बड़ा गट्ठर मूली का लाते थे ,बाद में स्कूटर पर लाने लगे ।उनके घर मूली के पराँठे बहुत बनते थे जिसकी सुगंध सबकी भूख जगा देती थी ।लम्बे ऊँचे क़द के चाचा जी से पता नही क्यूँ उस समय सारे बच्चे डरा करते थे ।

जब होली पर गीत संगीत का कार्यक्रम चलता तो पूरी मस्ती में सरदार चाचा जी गाते “जुगनी जा वडी जालंधर’’ और सामने मोहल्ले की औरतों के साथ बैठी चाची जी शर्मा जाती थी ।बड़े ही मस्त मौला क़िस्म के थे हमारे ये चाचा जी ।

सरदार चाचा जी रोज़ सवेरे सवेरे नंगे पैर गुरुद्वारे जाते गर्मी सर्दी बरसात कोई भी मौसम हो ,ये उनकी बड़ी ख़ासियत थी और हम बच्चे बड़ी हैरानी से उन्हें देखते । गुरुपरव आने से पहले रोज़ शहर में प्रभात फेरी निकलती थी । स्त्री पुरुष नगर कीर्तन करते भोर में शहर का चक्कर लगाते थे , और हर दिन शहर का एक परिवार उन्हें अपने घर आमंत्रित करता था ।वो सुबह सुबह आकर कीर्तन करते और फिर सबमें प्रसाद वितरण होता ।

उनके घर भी हर वर्ष प्रभात फेरी की यही टोली आती थी , कीर्तन होता ,हलवा काले चने और गरम चाय का वितरण होता ।मैं हमेशा सोचती कि इस बार तो हर हाल में सुबह उठकर कीर्तन सुनना है और प्रभात फेरी को देखना है ,पर उसी रात मानो घोड़े बेचकर सो जाती और इतनी ठंड में नींद ही ना खुलती ।सारा मोहल्ला जाग जाता और कुछ बच्चे भी बहादुर बनकर जाने कैसे रज़ाई छोड़ कर उठ जाते और प्रसाद का मज़ा लेते । सीमा भी उनमे से एक थी ।फिर सारा दिन मज़े लेकर सुबह की प्रभात फेरी के क़िस्से सुनाती और हम मन मसोसकर रह जाते ।

बाद में जब भी चंडीगढ़ में प्रभात फेरी निकलती और सुबह सुबह कानो में कीर्तन गूंजता तो अपने घर की वो सुबह याद आ जाती जब हम नहीं उठ पाते थे क्यूँकि दिन भर खेलकर थक कर सोए होते थे ।

ऐसी ही कितनी अनगिनत यादें है कितनी ही बातें है ।जब भी लिखने बैठती हूँ उम्र के उसी दौर ,उसी वक्त में पहुँच जाती हूँ ।काश सच में ऐसी कोई टाइम मशीन बन जाए और एक बार हम उसी गुज़रे वक्त में हो आयें।

उसी ख़ूबसूरत तनावरहित ज़िंदगी की बस एक झलक पा लें ,काश ...

शेष भाग सम्पूर्ण उपन्यास में जाली ही उपलब्ध होगा ।