80 के दशक की बसु चटर्जी या ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में जिस तरह आम मध्यमवर्गीय व्यक्तियों को नायक नायिका बना हल्की फुल्की कहानी के ज़रिए छोटी छोटी बातों एवं घटनाओं को कथा का मूल आधार बनाया जाता था। ऐसा ही कुछ मुझे पढ़ने को मिला जब मैंने पढ़ने के लिए लेखक राम नगीना मौर्य जी का कहानी संग्रह "यात्रीगण कृप्या ध्यान दें" उठाया। आमतौर पर उनकी कहानियों का नायक एक ऐसा अधेड़ व्यक्ति है जो रिटायर या तो हो चुका है या होने वाला है। वैसे इसके अपवाद स्वरूप कुछ कहानियों के पात्र आज की पीढ़ी के युवा लोग भी हैं।
उनकी कहानियों में अगर आम मध्यमवर्गीय परिवारों की नोक झोंक..नखरे..मान मनौव्वल है तो प्यार की चासनी में लिपटी भीनी भीनी चुहलबाज़ियाँ भी हैं। उनकी कहानियों में एक तरफ़ ठेठ दफ़्तरी कार्यशैली है तो दूसरी तरफ़ इसी अफसरशाही से परेशान और त्रस्त एक वृद्ध भी है। कहीं बात बात में खामख्वाह बात का बतंगड़ बन रहा है तो कहीं अपने एकाकीपन के मद्देनजर कोई बात करने को तरस रहा है।
इसमें कहीं रेल यात्रा और उसमें सफ़र कर रहे यात्रियों के ज़रिए सहज मानव स्वभाव का अच्छा वर्णन किया गया है तो कहीं इसमें कार यात्रा और उसके दौरान आम रेहड़ी पटरी वालों को समझने की बात है। इसमें मादा देह की झलक मात्र को ताक झांक करते लोग हैं तो उन्हीं में कोई ऐसा भी है जो अपने खुले दिल का उदाहरण दे मिसाल कायम कर रहा है।
कहीं इसमें चौराहों पर अवैध कब्ज़े कर डंके की चोट पर गरियाते..धमकाते प्रभावी लोग हैं तो कहीं इसी सब के लिए गरीबों पर लट्ठ बरसाते मजबूर पुलिस वाले हैं। कहीं खामख्वाह की बातें कर टाइम पास करने वाली पीढ़ी है कहीं कोई अपने लेखनक्रम में गहरे तक डूबा व्यस्त लेखक।
कहीं कोई किसी से ब्याह का वादा कर मुकर रहा है तो कहीं कोई सहानुभुति के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने को बरगला रहा है। कहीं किसी को एक भी मयस्सर नहीं तो कहीं कोई दो दो नावों पर एक साथ सवारी के मंसूबे पाले बैठा है। एक तरफ़ जहाँ आज किसी को किसी से बात करने की फुरसत नहीं..वहीं किसी कहानी में बेजान चीज़ें भी इधर उधर आपस में इनसान की चुगली करने में व्यस्त हैं।
इस संग्रह में शामिल उनकी कुछ कहानियों में मुख्य पात्र लेखन कार्य से जुड़ा कोई ना कोई लेखक है जो अपना वक्त काटने या फिर उससे कुछ सार्थक रचने के विचार से लिख एवं छप रहा है। मुझे लगता है कि लेखन हित एवं खुद को एकरसता से बचाने के लिए लेखक को इस तरह के रिपीटीशन से बचना चाहिए। साथ ही अगर कहानियों की भाषा की बात अगर करें तो भाषा एकदम सरल..आसानी से समझ आने वाली है। साथ ही स्थानीय/प्रांतीय शब्द रचना को और अधिक खूबसूरत बना रहे हैं।
किसी भी कहानी का प्रभावी शीर्षक, उसकी जान होती है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो मुझे इस संकलन की कहानियों के शीर्षक काफ़ी कमज़ोर लगे। साथ एक कहानी का शीर्षक 'बेचारा कीड़ा', जिसमें लेखक ने सांकेतिक रूप से कीड़े का जिक्र कर अपनी बात कहने का प्रयास किया तो है मगर उस एक कहानी के अंदर कीड़े का बार बार टपक पड़ना खीज पैदा करता है।
साथ ही एक मुख्य दिक्कत यह भी लगी कि चलते चलते कहानियां अपने विषय से भटक इधर उधर निरूद्देश्य भटक एवं बहक रही हैं। किसी भी रचना के प्रभावी होने के लिए उसका एकदम टू द पॉइंट और क्रिस्प होना लाज़मी है। जहाँ कोई भी रचना अपने विषय से इधर उधर भटकी, पाठक उसे दिल से पढ़ना छोड़, फटाफट निबटाने भर की सोचेगा या फिर यूँ ही बिना पढ़े पन्ने पलट आगे बढ़ जाएगा।
दरअसल लेखन हित में हम लेखकों को अपने लिखे का मोह त्याग, कब आगे बढ़ना है और कब ब्रेक लगानी है, सीखना होगा। साथ ही संख्याबल बढ़ाने के बजाए क्वालिटी पर ध्यान देना होगा। उम्मीद है कि लेखक मेरे द्वारा सुझाए गए सुझावों का ध्यान रखते हुए अपने आने वाली रचनाओं को और सुदृढ़ एवं प्रभावी बनाएँगे।
यूँ तो यह कहानी संग्रह मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 133 पृष्ठीय कहानी संग्रह को छापा है रश्मि प्रकाशन, लखनऊ ने और इसका मूल्य रखा गया है 180/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।