Protector of subjects in Hindi Moral Stories by Ramesh Yadav books and stories PDF | प्रजा का रक्षक

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प्रजा का रक्षक

मावल प्रांत में कान्होजी नामक एक पराक्रमी सरदार था। उसे अपने राजा द्वारा जागीरदारों जैसा सम्मान प्राप्त था। जागीरदारी देने की परंपरा उसके राजा के दरबार में नहीं थी। शत्रुओं से मुकाबला करते हुए कान्होजी ने कई लड़ाइयों में असामान्य फतह हासिल की थी। इस काम में उसकी मावल सेना और प्रजा जी-जान से उसका साथ देती थी। अपनी प्रजा के सुख-दुख में वह हमेशा शामिल होता था और हर तरह की सहायता के लिए तत्पर रहता था। इस तरह वह अपनी प्रजा का खूब ख्याल रखता था। इससे उसकी कीर्ति चारो ओर फैल गई थी। ये वो दौर था जब मामूली जागीरदार भी अपने आपको किसी राजा या शासक से कम नहीं समझते थे।

कान्होजी की कीर्ति से अन्य प्रदेशों के जागीरदार उससे द्वेष करते थे, जिसके चलते वे उसके दुश्मन भी बन गए थे। इसका मुख्य कारण उनकी सोच थी। जो जागीरदार द्वेष करते थे उनका मानना था कि प्रजा तो शासक की गुलाम होती है और उनका शोषण करना शासकों का अधिकार होता है। पर कान्होजी के सामने अपने राजा का आदर्श था। अपने राजा के पदचिन्हों पर चलते हुए उसने कभी अपनी प्रजा से गुलामों जैसा बर्ताव नहीं किया।

कान्होजी के गांव में देवी कालूबाई का एक भव्य प्रचीन मंदिर था। लोगों की मान्यता है कि देवी कालूबाई कोई और नहीं बल्कि कालीमाता के रूप में वह माता पार्वती का ही एक विक्राल रूप है।

उस मंदिर में हर साल जत्रा (उत्सव) का आयोजन किया जाता था। गांव के पाटिल और ग्रामवासियों ने बड़े स्नेह से इस बार युवराज को देवी कालूबाई के दर्शन और पालकी समारोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। देवी कालूबाई के मंदिर से पालकी निकलकर पूरे गांव का प्रदक्षिणा करते हुए पुन: मंदिर में आने वाली थी।

प्रजा के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए युवराज जावली नगर के उस उत्सव में शामिल हुए। युवराज भी बड़े ओजस्वी, महापराक्रमी और प्रजा के सेवक थे। कम उम्र में ही उन्होंने अपनी तीव्र बुध्दि, शक्ति एवं युक्ति के बल पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे।

युवराज भी ऐसे मौकों की तलाश में रहते थे। ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से वे अपनी प्रजा से खुलकर मिलते थे और हाल समाचार भी जानने की कोशिश करते थे। अपने आस-पास के राजाओं, वतनदारों तथा जागीरदारों की खोज-खबर लेने का यह एक बहाना भी होता था। गुप्तचरों के माध्यम से सारी सूचनाएं ऐसे अवसरों पर मिल जाती थीं।

प्रांत के लोग अपने युवराज को देखने और उनसे मिलने के लिए काफी उत्सुक थे। इस उत्सव के दौरान गांव के बड़े से चौपाल में परंपरानुसार साहसी खेलों का भी आयोजन किया जाता था। इसमें प्रांत के लोग बड़े जोर-शोर से सहभागिता करते थे। इस खेल की परंपरा बड़ी प्राचीन है, ऐसी गांववालों की मान्यता थी।

कहते हैं कि एक बार देवों और असुरों के बीच बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में कई असुर मारे गए। पर जो असुर शेष बच गए थे उनका संहार करना देवताओं के लिए मुश्किल हो गया था। जिस कार्य को देवता नहीं कर पाए उस कार्य को भक्तों के निवेदन पर इस देवी ने किया और उन असुरों का संहार किया। शेष बचे उन असुरों में महिषासुर और रक्तबीज दो ऐसे असुर थे जो किसी भी हाल में पराजित नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें शिवजी द्वारा अभय दान प्राप्त था। लोक कल्याण हेतु उन दोनों दानवों का संहार बड़ा ही आवश्यक था। देवताओं की विवशता को देखते हुए भक्तगण एवं ऋषि-मुनियों ने माता पार्वती का आवाहन किया और वे उनकी शरण में गए। भक्तों ने अपनी व्यथा सुनाई। असुरों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और शोषण के बारे में बताया। तत्पश्चात देवी से निवेदन किया कि वे इन अत्याचारी दानवों से उनकी रक्षा करें।

भक्तों का निवेदन स्वीकार करते हुए माता पार्वती अपने शिवगणों की सेना लेकर मैदान में उतरीं। उनमें दाक्षायणी, चंडिका जैसे कई गणों का भी समावेश था। दोनों ओर से घनघोर युद्ध हुआ और कई असुर मारे गए। देवी काली ने अपना उग्र रूप धारण किया और इस विक्राल रूप को देखकर महिषासुर उनकी शरण में आया। काली माता ने उसे अपने चरणों में स्थान दिया। तब से देवी के इस रूप को महिषासुरमर्दिनी कहा जाता है।

रक्तबीज नामक असुर का संहार करने के लिए माता ने हाथ में अष्टायुध लिया और महाविक्राल रूप धारण करते हुए उसका वध किया। पूरी गर्जना के साथ चारो ओर घूम-घूमकर देवी असुरों का वध कर रही थीं। रक्तबीज के वध के बाद देवी की इस महाभयंकर अवस्था को शांत करने के लिए अंतत: शिवजी को धरती पर आना पड़ा। वे उस उग्र देवी के मार्ग में आकर सो गए। अचानक देवी के पैरों को शिवजी का स्पर्श हुआ। उस स्पर्श से काली मां का तेजपुंज शरीर ढल गया और वे शांत हो गई। देवी के इसी रूप को उस प्रदेश में कालूबाई के नाम से जाना जाता है। असुरों के वध और काली माता का महाभयंकर रूप शांत होने के पश्चात शिवजी और पार्वती  माता श्रमपरिहार के लिए पास के मांढर गड़ पर्वत पर गए। तब से इस पर्वत को  मांढरा देवी के पवित्र स्थान के रूप में जाने लगा। कालांतर में इस स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण किया गया, जिसे लोग अब जागृत देवस्थान मानते हैं।

देवी का मूल मंदिर हेमाडपंती है, जो चार सौ साल पहले बनाया गया था। इसका मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है। प्रति वर्ष यहां पालकी समारोह और मेले का आयोजन किया जाता है। कहते हैं कि देवी के दर्शन मात्र से ही भक्तों का कल्याण होता है। परंपरानुसार महिषासुर और रक्तबीज का वध करने के लिए उस प्रांत के लोग केले के पेड़ों का प्रतिकात्मक रूप से वध करते थे। इस आयोजन में तलवारबाजों को अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका मिलता था।

ऐसी ही कला का प्रदर्शन देखने के लिए युवराज को आमंत्रित किया गया था। युवराज के सामने कई युवकों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। किसी ने एक साथ तीन पेंड़, किसी ने चार, किसी ने पांच पेंड़ काटे। अधिक पेंड़ काटने वाले को इनाम देने की परंपरा थी। जो जीतता था उसे  सोने का कड़ा इनाम स्वरूप दिया जाता था।

इस खेल में उस दिन गांव की एक युवती ‘लाड़ी’ भी अपनी तलवार बाजी की कला दिखाने के लिए आगे बढ़ी। लाड़ी अपने पिता की अकेली पुत्री थी। उसकी मां नहीं थी अत: उसके पिता ने बड़े लाड़-प्यार से पुत्र की तरह उसका पालन-पोषण किया था। इतना ही नहीं अपनी सुरक्षा के लिए उसे सारे मर्दाना खेल एवं कलाबाजी के कई अन्य गुर भी सिखाए थे।

गांववालों ने और गांव के मुखिया ने यह कहते हुए लाड़ी को कला प्रदर्शन करने से रोक दिया कि यह खेल स्त्रियों के लिए नहीं है, इससे उत्सव की परंपरा का खंडन होगा। इस पर युवराज ने सबकी आंखें खोलते हुए कहा कि देश, धर्म, पंथ की रक्षा के लिए यदि कोई आगे आता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। यदि हम स्त्री-पुरुष का भेदभाव करते हुए लड़कियों को उचित मौका नहीं देंगे तो हमारा समाज अधिक विकास नहीं कर पाएगा। उदहारण स्वरूप युवराज ने कई वीर महिलाओं की गाथाओं का जिक्र किया। अंत में युवराज ने देवी कालूबाई का ही उदाहरण दिया। तब जाकर लोगों की आंखें खुली और गांव वालों ने अपनी रूढ़ि- परंपरा को तोड़ते हुए लाड़ी को अपनी कला दिखाने का अवसर दिया।

लाड़ी ने अपनी तलवार बाजी का प्रदर्शन करते हुए सात पेंड़ काटे और उस उत्सव में विजयी घोषित की गई। मगर शत्रु पक्ष के किसी गुप्तचर ने उस प्रांत में युवराज के आने की खबर अपने आका को दी थी।  अत: एक यवन शत्रु भी उस प्रतियोगिता में शामिल हुआ था और उसने अपनी तलवार बाजी का प्रदर्शन करते हुए एक साथ दस पेंड़ काटे। गांव वालों को उसने चुनौती दी कि यदि कोई माई का लाल हो तो आकर उससे अधिक पेंड़ काट के दिखाए। जब कोई सामने नहीं आया तब युवराज स्वयं तलवार लेकर मैदान में उतरे और उन्होंने बारह पेंड़ काटकर उस यवन का घमंड नष्ट किया।

मौका देखकर उस यवन ने अपने खंजर से युवराज पर वार किया किंतु गांव के एक साहसी युवक ने उस खंजर के वार को अपनी छाती पर झेलते हुए अपने लोकप्रिय युवराज की जान बचाई।  दूसरे ही क्षण वह यवन तलवार लेकर युवराज की दिशा पर वह वीर युवती लाड़ी मैदान में आड़े आ गई और उसने उस यवन को अपने तलवार से यमलोक पहुंचा दिया। यह देखकर सारे लोग दंग रह गए। कुछ देर पहले तक जिस युवती को अपनी कला का प्रदर्शन करने से गांव वालों ने रोका था, उसी ने आज युवराज की जान बचाई थी।

उस गांव के लोगों की स्वामीभक्ति देखकर युवराज कफी प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी सेना में उस वीर युवक और युवती को शामिल कर लिया। किसी महिला को अपनी सेना में शामिल करने का एक अनूठा निर्णय लेते हुए युवराज ने सबको चकित कर दिया।