भाग-४
सासू माँ उसे ऐसे कटाक्ष करती ही रहती हैं। आज न जाने क्यों उसे बहुत बुरा लगा उसकी आँखे डबडबा आईं न जाने कौन सा दर्द था जो छलककर उसके गाल पर आँसू बन ढलक आया। ये देखकर एम.के.ने ज़ोर से हँसते हुए कहा-
“अरे मामी माछ मारने से कुछ नहीं होता मज़ा तो उसके खाने में है और खायेंगे तो तब ही न जब पकेगी।”
वह उठ कर जाने लगी तो एम.के.बोला-
“अरे कहाँ चली आप यूँ सारा आसमान अपने साथ लिए हुए।”
पर वह आज नहीं रुकी अपने भीगे गालों के साथ कमरे में चली गई।
उसके जाते ही एम.के. भी बुझा-बुझा सा हो गया और थोड़ी ही देर में वहाँ से चला गया।
एक अजीब सी रौ में दोनो ही बह रहे थे दोनो ही एक दूसरे के प्रति अपना खिंचाव महसूस कर रहे थे। जानते समझते हुए भी एक अनजान राह पर चलने लगे थे।
शफ्फाक मुख मंडल मणि जहाँ चैन की नींद सो रहा था वहीं वह रूपसी सुलोचना करवटें बदलते हुए अपनी रात काट रही थी।
उसका प्यासा मन पहले भी तड़पता था रातों को पर तब वह मणि को देख अपनी प्यास अधूरी ही सही पर बुझा तो लेती थी। पर आज वह मणि की तरफ़ करवट कर के लेटी हुई थी प्यासी की प्यासी।
मरून बालूचरी पर सुंदर पीले रंग के धागे से बनी कलाकृतियों की साड़ी में सजी सुलोचना की निगाहें दरवाज़े पर ही लगी थी।
तभी मणि कपूरकन्द के लच्छे उठा कर खाने को जैसे ही हुआ वह अधीरता से बोल उठी-
“एकटू दाडन, वो एम.के.दादा आ जायें तो उसे तोड़ना कितना सुंदर लग रहा है अभी तुम तोड़ दोगे तो अधूरा दिखेगा फिर वो तारीफ़ नहीं करेंगे।”
मणि के हाथ जहाँ थे वही रुक गये और वह उसे देखने लगा तभी सासू माँ बोली-
“लो आ गया हमारा अमेरिका रिटर्न।”
अपनी चिरपरचित हंसी के साथ एम.के.ने प्रवेश करते हुए कहा-
“सूलू बड़ी अच्छी ख़ुशबू आ रही है क्या बनाया है?”
मणि ने ताना सा मारते हुए कहा-
“कपूरकन्द बना है दादा पर मुझे खाने से माना कर दिया गया है कि पहले दादा खायेंगे, तारीफ़ करेंगे तब मिलेगा मुझे।”
“अच्छा ऐसा क्या अभी करता हूँ तारीफ़।”
उसने एक लच्छा तोड़ कर खाते हुए तारीफ़ों के पुल बांध दिए। फिर उसी रौ में बोला-
“सूलू बस अब ज़्यादा दिन तुम्हें परेशान नहीं करूँगा मेरी टिकट हो गईं है मैं परसों चला जाऊँगा।”
धक से कर गया सुलोचना का दिल ऐसा भी कुछ हो जाएगा उसने सोचा ही नहीं था। वह एकदम चुप हो गई पर मणि तुरंत बोला-
“एटा कि दादा? इतनी जल्दी अभी तो पूरा मस्ती भी नहीं किया हमने।”
मणि की बात से सुलोचना को थोड़ी आस बंधी पर एम.के. के माना कर देने से वह फिर निराश हो गई। कजरारी आँखों के भीगे कोर के उस छोर से उसे देखने लगी। पलकें झपका कर मूक निवेदन भी कर बैठी कि-
“अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं।”
मामी ने भी मणि को रोका पर वह सबको एक ही बात बोल रहा था-
“जाना ज़रूरी है।”
तभी शशिधर बाबू बोले-
“न तुमी कोथाए जाबी न पूजा को दस दिन हैं पूजा के बाद चले जाना एंड इट्स एन ऑर्डर ओके माई डियर।”
मणि ने ओके करते हुए सुलोचना को देखा अब वहाँ गीली आँखो में ख़ुशी चमक रही थी।
शारदीय नवरात्रि का प्रारम्भ हो चुका था पूरी कोठी रौशनी में नहाई हुई थी।
माँ दुर्गा की प्रतिमा के लिए पंडाल सुसज्जित किया जा रहा था।
दो दिन बाद षष्ठी है माँ दुर्गा का आगमन है। पूरा मुखर्जी परिवार पूजा की तैयारी में लगा हुआ है।
सासू माँ कुसुम मुखर्जी की ख़रीदारी अभी भी पूरी नहीं हुई थी। वह रोज़ ही बड़ा बाज़ार,बहू बाज़ार के चक्कर लगा रही थी।
शशि धर बाबू ने सुलोचना को बुला कर चार पाँच साड़ियाँ थमाते हुए कहा-
“ ये मैं लाया हूँ बाक़ी तुम और मणि जा कर अपनी ख़रीदारी कर के आओ सुंदर सा हार लेना वह भी हीरे का।”
मणि और सुलोचना ख़रीदारी के लिए निकल ही रहे थे कि एम.के.दादा आ गए उन्हें बाहर निकलते देख कर बोले-
“अरे वाह आज तो आदर्श पति-पत्नी का जोड़ा अकेले ही मौज-मस्ती करने जा रहा है।”
मणि ने शर्माते हुए कहा-
“अरे दादा आप भी चलो न सुलोचना को साड़ी ख़रीदनी है और मेरा तो कोई इंट्रेस्ट रहता नहीं है इस सब में, आप भी चलो जब तक सुलोचना साड़ी ख़रीदेगी हम दोनो कलकत्ते की भीड़ और फुचके का मज़ा लिया जायेगा साथ ही साथ अपना बचपन याद कर लेंगे।
“न भाई न तुम दोनो जाओ मैं नहीं जाता, मैं चल पड़ा तो सुलोचना कहेगी कबाब में हड्डी।” और ठहाका लगा कर हँस पड़ा।
सुलोचना ने बड़ी - बड़ी कजरारी आँखो से उसे देखा और छोटी सी ज़ुबान निकाल कर उसे चिढ़ाते हुए बोली-
“मैंने कब कहा ऐसा? आप दोनो दोस्त हो साथ चलो मुझे क्या आपत्ति होगी भला?”
“यानी की आप को कोई आपत्ति तो नहीं पर मेरा साथ चलना आप को पसंद नहीं क्यूँ ठीक कहा न मैंने?”
तभी मणि बोला-
“चलो न दादा।”
जब न में सर हिला कर एम.के. कोठी के अंदर जाने लगा तब सुलोचना बोली।
“चलिए न!”
यह सुनते ही एम.के. वापस आ उनके साथ कार में बैठ गया। कार हवा से बातें करते हुए कलकत्ता की सड़कों पर बढ़ चली।आगे बैठा हुआ एम.के.कार के बैक मिरर में सुलोचना की सुंदरता का रस पान करते हुए मणि से पुराने दिनो की याद ताज़ा कर रहा था।
बड़ा बाज़ार पहुँच कर जगत्धात्तरी साड़ी सेंटर में जा वे लोग साड़ियाँ देखने लगे भीड़ भरी दुकान में साड़ियाँ अनगिनत फैली हुईं थी। उनमें से पसंद करना सुलोचना के लिए मुश्किल था।
वह इतनी बड़ी दुकान में ख़रीदारी करने की अभ्यस्त न थी। उसके बाबा तो पूजा पर एक साड़ी ला कर दे दिया करते थे और वह अष्टमी को पहन कर ख़ुश हो लिया करती थी।
आज वह कितनी भी साड़ी ले सकती थी पर वह अपने लिए पसंद न कर पा रही थी।
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