भाग-२
एक शाम मणि के साथ उसकी पिशि के बेटे उसके हम उम्र बड़े भाई एम. के. दादा आए। एम.के. दादा और मणि की बहुत गहरी दोस्ती थी। एम के दादा का नाम वह कई बार मणि से सुन भी चुकी थी।
दादा को सभी एम. के. ही कह कर बुलाते थे।उनका नाम था “माधव केशव बनर्जी” समझदार होते ही उन्होंने अपने नाम का शॉर्ट कट एम. के. रख लिया और इसी नाम से फ़ेमस हो गये। वह पाँच साल से विदेश में थे। शादी में भी न आ पाए थे। तभी तो अभी वह मणि की पत्नी से मिलने ही धर्मतल्ला आए थे।
सुलोचना को सासु माँ ने सबसे पहले हिदायत दी।
“ एम. के. पाँच सालों से विदेश में रह रहा है। उसके सामने ज़रा ज़ेवरों की नुमाइश बन कर मत जाना कुछ सिंपल सा पहन कर मिलने आना मणि को अच्छा लगेगा।”
सुलोचना ने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहनी और जूड़ा न बना बालों को ढीली सी चोटी में गूँथा और सुहाग चिन्ह को दर्शाने वाले ज़ेवरों के अलावा कोई भी गहना बदन पर न सजाया।
सादगी भरा रूप और भी निखरकर अपनी अलग ही छाप छोड़ रहा था।
जब मणि ने एम.के. दादा से सुलोचना को मिलवाया तो सुलोचना के प्रणाम करते ही उसने ने बेबाक़ी से उसके रूप की तारीफ़ करनी शुरू करदी।
तारीफ़ सुन सुलोचना के चेहरे की रंगत भी गुलाबी हो गई। आज उसने भी बेबाक़ हो अपना उलाहना एम.के. दादा के सामने ये कहते हुए रख दिया-
“दादा, पर इन्हें तो मैं पसंद ही नहीं ।”
“अरे क्यों?”
दादा ने मणि की तरफ़ प्रश्न किया पर मणि ने दादा को जवाब न दे उससे ही प्रश्न किया-
“कब कहा मैंने? तुम मुझे पसंद नहीं।”
यकायक यूँ बेबाक़ी से बोल तो गई सुलोचना पर मन ही मन सहम भी गई ।
तभी उसने मणि की तरफ़ से आए प्रश्न का कोई जवाब न दिया। अपने पैरों की उँगलियों से ज़मीन को कुरेदने लगी
जैसे अंतस में दबी अनेका इच्छाओं को बाहर लाना चाह रही हो, पर सूखी धरती को अभी सिंचित करना बाक़ी है और बरखा का आता- पता न था।
सिंदूर माँग में सजाते हुए वह उसे अलसाई आँखो से देख रहा था। साथ ही साथ मन ही मन ग़ुन रहा था, उसके सौंदर्य का आधुनिक स्वरूप।
कि तभी सुलोचना ने आईने में ही उसे पुकारते हुए कहा।
“ कि होलो?”
उसने आईने से नज़रें हटाते हुए करवट बदल कहा।
“कीछु न।”
सुलोचना ने उसे अपनी तरफ़ एकटक ताकते पा सोचा कि शायद वह उसके रूप का मधुर पान कर रहा है। आज भी वह उसे उसी मरुस्थल पर पा एक बार फिर से आहत हो गई।
आज रसोई में वेस्टर्न भोजन का बोलबाला था। दादा की दावत जो थी।
खाने की मेज़ पर एम.के. ने फ़रमाइश करी की-
“ कुछ बंगाली स्वाद खिलाइये ये सब खा-खा के इतने सालों से वह बोर हो गया है।” यह सुन शशि धर बाबू बोले-
“अरे! एखुन तूमी बोलचिस तुमी जानो? सुलोचना तो एक दम मस्त बेंगाली खाना बनती है।”
“ओह! फ़िर ये सब क्यूँ बनवाया कल मैं बंगाली भात और माछेर झोल का ही मज़ा लूँगा वह भी हिल्सा माछ।”
आज के खाने में सुलोचना ने अपनी पूरी पाक कला का हुनर परोस दिया था।
माछेर झोल,लेटामाछ सेला फ्राई माछ,पंतोभात,संदेश पायस,मिष्ठि दोहि रसोगुल्ला और न जाने क्या-क्या।
एम.के. हर कौर के साथ तारीफ़ों के पुल बाँध रहा था।और उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे शशि धर बाबू। मणि बस भोजन का स्वाद सुखद एहसास के साथ ले रहा था।उसे ख़ुशी थी की एम. के. दादा ख़ुश हैं।
सुलोचना के अंग-अंग में स्फूर्ति यूँ आ गई थी जैसे कोई बच्चा किसी कठिन विषय में पास हो अपने मित्रों के बीच स्टार बन गया हो।
भोजन के बाद एम.के. ने फ़िल्म देखने का नेवता मणि और सुलोचना को दिया।
सुलोचना तैयार हो बाहर आई। पीली बालूचरी साड़ी ,सोने के गहनों में सजी सिंदूरी स्वरूप लिये सुलोचना को देख एम. के. की नज़र ठगी सी रह गई । उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-
“स्वर्ण कमल सा रूप तुम्हारा,
पीत वसन में लिपट गया
देख तुझे कंगाल हुआ मैं
तन मन मेरा मचल गया “
उसने ज़ोर दार ठहाका लगाया मणि कुछ अचकाचा गया उसे लगा उसका यूँ सज कर फ़िल्म देखने जाना दादा को पसंद नहीं आया उसने सुलोचना से कहा-
“हम किसी शादी में नहीं जा रहे फ़िल्म देखने जा रहें है तुम कुछ हल्का भी तो पहन सकती थी।”
उसकी बात बीच में ही काट कर एम. के. बोला-
“न मणि, पूरा बैंगाल सामने है और तुम उसे आत्मसात नहीं कर रहे। सुलु, यू आर लुकिंग सो ब्यूटिफ़ुल आई ऐम एमप्रेस।”
सुलोचना के पूरे शरीर में एक सनसनी सी दौड़ गई अपनी तारीफ़ सुन और अपने नाम का प्यार भरा नया संबोधन सुन कर।
एम. के. की तारीफ़ सुलोचना के दिल में अपने क़दम जमा रही थी। एम. के. उसके सौंदर्य का रसास्वादन करने को बेताब रहता था।
वह चाह कर भी सुलोचना को अपने ख़यालों से दूर न कर पा रहा था।
सुलु” आज तक किसी ने भी तो नहीं कहा उसे इतने प्यार से वैसे उसे अपना नाम बहुत पसंद है, पर मन में कहीं एक चाह छुपी बैठी थी कि कोई उसे भी तो प्यार से कुछ अलग सा पुकारे इस चाह को एम.के. दादा ने बहुत ही आसानी से सबके सामने कह दिया। वह उनके इस मोहक अंदाज़ से भीग गई थी।
आज कल उसे भोर के साथ ही शाम का इंतज़ार रहने लगा था।
पहले भी रहता था जब मणि अपने ऑफ़िस से वापस आता था। पर मणि ने कभी उसके इंतज़ार को मान नहीं दिया था।
अब एक अजीब सी कसक रहती है उसे शाम की क्यूँ कि आजकल शाम एम.के.दादा को अपने साथ कोठी पर लेकर आती है।
और उसके आते ही पूरे घर का माहौल ख़ुश नुमा हो जाता है।
उस माहौल में एम.के. सुलोचना की हँसी को भी शामिल रखता तभी तो
एम.के.दादा के जाते ही, उनके आने का इंतज़ार उसका बेचैन मन करने लगता।
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