Distinction - 7 in Hindi Fiction Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | भेद - 7

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भेद - 7

7.

खाना खा पीकर दादी-पोती अपने-अपने बिस्तर में घुसी ही थी कि दादी ने अपनी बात शुरू की....

"जब मैं ब्याह कर आई थी तब तेरे दादाजी के परिवार की बहुत शान-शौकत थी। तेरे बड़े दादाजी और दादाजी में दो साल का ही अंतर था| तेरे पड़ दादा-दादी बहुत जल्दी गुज़र गए थे| बड़े दादा की लापरवाहियों से तेरे पड़ दादाजी बहुत अच्छे से वाकिफ़ थे| वह कहते थे...‘पूत के पाँव पालने में नज़र आ जाते हैं|’ शायद यही वजह थी कि वह उनको कोई रुपयों-पैसों से जुड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपते थे| उनके हिसाब-किताब में भी खोट था| पर तेरे पड़ दादा को तेरे दादा पर पूरा विश्वास था| तभी वह जाने से पहले अपनी सारी ज़मीनों के कागज़ात और कच्चे कागज़ पर लिखी वसीयत तेरे दादा को सौंप कर गए थे|...

जब तेरे बड़े दादा को यह बात पता लगी तो उनको बहुत बुरी लगी| उन्होंने तेरे दादा जी से न सिर्फ़ झगड़ा किया, बल्कि मन-मुटाव भी कर लिया| फिर उन्होंने कभी भी तेरे दादाजी से सीधे मुँह बात नहीं की| उनको हमेशा ही लगता रहा  कि तेरे दादाजी ने उनको हिस्से का पूरा रुपया नहीं दिया|”

“दादी! क्या हमारे दादा जी ने उनका जायज़ हिस्सा नहीं दिया था|” सृष्टि की बात सुनकर दादी ने कहा...

“सच तो यह है बेटा कि तेरे दादाजी ने उनके हिस्से जायज़ रुपया ही दिया...बस समझ का फेर है| अगर वह अपनी घर-गृहस्थी को संभालते तो उनको पूरा  हिस्सा दिया जाता| पर उन्होंने तो अपनी घर गृहस्थी कभी संभाली ही नहीं थी| ...

उनको तो जो भी रुपया दिया जाता वह उसको अपनी मौज-मस्ती या जुए में उड़ा देते| इसलिए तेरे दादाजी ने निर्णय लिया कि जब बेटियों की शादियां भी उन्हीं को करनी है...तो तेरे बड़े दादाजी के हिस्से का कुछ रुपया उनकी बेटियों की शादी के लिए बचा कर रख लिया जाए। बाद में तो दो-तीन ज़मीनों के अलावा बहुत ज्यादा रुपया बचा भी नहीं था| हमको चारों बेटियों की शादी भी करनी थी और  बेटे महेंद्र को भी पढ़ने के लिए बाहर भेजना था| बाद में तो तेरे दादाजी की भी कोर्ट कचहरी से बहुत ज्यादा आय नहीं रह गई थी| तभी तो पुश्तैनी मकान भी बिक गया था| आज जिस छोटे से घर में हम सब रह रहे हैं...वह पुश्तैनी मकान को बेचने के बाद ही लिया था|”

"उस समय रेजिस्टर्ड विल नही होती थी क्या दादी?"

"होती थी बेटा| पर पहले विश्वास पर भी बहुत सारे काम होते थे| कच्चे कागज़ों पर लिखी विल को भी बच्चे बहुत प्यार से स्वीकारते थे| ख़ैर तेरे दादाजी ने बहुत कोशिश की....किसी तरह दोनो भाइयों में प्रेम बना रहे पर ऐसा हुआ नही। बेटियों का कन्यादान करने के लिए भी बहुत मनावने करके उनको बुलाया गया बाकी उसके बाद उन्होंने कभी घर में नहीं झांका| पर सुनते हैं तेरे दादाजी के स्वर्गवास के कुछ साल बाद उनका भी देहांत हो गया था| किसने उनका क्रिया-कर्म किया कुछ पता नहीं| किसी ने इत्तला ही नहीं दी…नहीं तो महेंद्र को भेज देती|” दादी की बात सुनकर सृष्टि ने पूछा...

“बड़े दादाजी कहाँ रहते हैं? किसके साथ रहते हैं? आपमें से कोई उनसे कभी मिलने नहीं गया? बुआओं को अपने पापा से मिलने का नहीं लगा?”

“बेटा! पहले घर की औरतें ऐसे कहीं मिलने नहीं निकलती थी| सिर्फ़ तेरे छोटे दादाजी और महेंद्र को पता था उनका घर| तेरे दादाजी तो उनसे पहले ही स्वर्ग सिधार गए| बाद में महेंद्र भी बाहर पढ़ने चला गया| बुआओं को उन्होंने कभी लाड़ नहीं किया तो उनका जुड़ाव हमारे साथ ही था| तभी तो वो शादी के बाद भी हमारे पास आती हैं|...

दरअसल तेरे दादाजी बहुत सरल प्रकृति के थे| उनको भी मेरी तरह बहुत सारी बातें समझ नहीं आया करती थी|....तेरे पापा ने बारहवीं तक की पढ़ाई फिरोजाबाद से ही की| बाद में उसका दिल्ली के एक कॉलेज में एडमिशन हो गया| तेरे दादाजी ने छोटू को महेंद्र के साथ भेज दिया था| ताकि उसको खाने पीने में कोई दिक्कत न हो|... घर के नौकर-चाकरों पर भी उनका अटूट विश्वास था…तभी तो उनके भरोसे सब छोड़ देते थे|

महेंद्र भी छोटू के साथ बहुत खुश रहता था| बचपन में दोनों साथ-साथ खेले थे| चौबीसों घंटे छोटू भी महेंद्र के सभी हुकूम बजाता था| जब तेरे दादाजी ने महिंद्र के साथ छोटू को भेजने के लिए हामी भरी...तो महेंद्र ही सबसे ज़्यादा खुश था। छोटू महेंद्र से पाँच-छः वर्ष बड़ा था| बारहवीं तक उसकी पढ़ाई का इंतजाम तेरे दादाजी ने ही किया था| उसके बाद उसका मन पढ़ने में नहीं लगा| तो वह घर के ही कामों में मदद करने लगा|....

सृष्टि इसके बाद की कहानी तू अपनी मां से सुनना क्योंकि महेंद्र के सेटल होने के बाद तेरी माँ की शादी महेंद्र से हो गई थी| उसके बाद क्या हुआ वह तू अपने पापा या अपनी माँ से पूछ| आगे की बातें तेरी माँ से ही मैंने ख़ुद समझी ...क्यों कि यह बातें मेरी समझ से बाहर थी| मैं ठहरी पुराने जमाने की स्त्री जिसने घर के बाहर सिर्फ़ मंदिर जाने के लिए कदम रखा| अगर मुझे समझ आता तो समय से चेत न जाती|”....अपनी बात पूरी करके दादी अब चुप होकर सृष्टि के प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी|

दादी की बातें सुनकर सृष्टि संशय में आ गई थी। पर कुछ-कुछ अनुमान भी लगा पा रही थी| हालांकि अपने पापा के लिए ऐसा सोचना उसके भी दिमाग को गवारा नहीं था|

दादी की बात सुनकर सृष्टि ने कहा....

“वह दोनों तो मुझे कुछ भी बताना नहीं चाहते| कम से कम आपने मुझे घर से जुड़ी हुई इतनी सारी बातें बताई तो| नहीं तो मुझे कुछ भी पता नहीं चलता| ख़ैर मुझे तो दोनों के बीच प्यार भरा रिश्ता चाहिए| ताकि मैं उन दोनों को खुश-खुश देख सकूँ|”

सृष्टि की बात को सुनकर दादी ने कहा...

“आज मुझे लग रहा है तू बड़ी हो गई है| पर बेटा यह सब बातें नए जमाने की बातें हैं| जो मुझे कम ही समझ आती हैं| मैं तुझे कितना समझा पाऊंगी यह मुझे नहीं पता| पर हां तेरी माँ ग़लत नहीं है अगर तू उससे ही सुनेगी तो ही ठीक रहेगा|”

 

सृष्टि के दिमाग़ में अब खलबली से शुरू हो गई थी| उसको अब लगने लगा था कि जल्द से जल्द उसको बातें पता चले| जिनको दादी बताना नहीं चाहती...और माँ और पापा दोनों ही उसके थोड़ा और समझदार होने के बात करते थे|

सृष्टि ने दादी को ज्यादा तंग करने का नहीं सोचा क्योंकि दादी ने जितना भी अपने मन से बताया उन सब बातों में कहीं पर भी कोई दुराव-छुपाव नहीं था| हर व्यक्ति की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं जिनको तोड़ना वह कभी नहीं चाहता| ऐसे में सृष्टि को अपनी माँ को ही अपने विश्वास में लेना था| तभी उसको अपने माँ-बाप से जुड़े रिश्ते के बारे में बातें पता चल सकती थी|

दादी की बातों ने सृष्टि को बहुत तसल्ली दी थी कि उसकी माँ और पापा दोनों ही कहीं भी पूरी तरह ग़लत नहीं थे| दादी ने जो भी बातें सृष्टि से साझा की थी...उन बातों ने दादी के प्रति बहुत आदर सम्मान बढ़ा दिया था|

दादी के दिमाग़ में हर स्त्री के लिए बहुत मान-सम्मान था| तभी उन्होंने परिवार की सभी स्त्रियों के मनःस्थिति को न सिर्फ़ समझने की कोशिश की अपितु उनका साथ भी दिया| दादी की बातों से ऐसा लग रहा था कि वह किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकती| तभी उन्होंने जो भी बातें अपनी ज़िंदगी में सीखी थी....उनको निभाने की कोशिश भी की थी| समय के साथ दादी तपकर सोना हो गई थी| तभी वह घर में होने वाले झगड़ों या किसी भी बात पर एकदम प्रतिक्रिया नहीं देती थी| शायद इतना कुछ संभालने के बाद अब वह शांत रहना चाहती थी|

आज सृष्टि को यह भी महसूस हुआ कि समझदारी के लिए बहुत पढ़ना-लिखना भी जरूरी नहीं होता| कई बार परिस्थितियां हमको समय के साथ बहुत सारे अनुभव देती हैं| जिनसे व्यक्ति बहुत समझदार होता जाता है| शायद यही वज़ह थी कि पुराने समय की स्त्रियां बहुत पढ़ी-लिखी न होने पर भी अपने घर गृहस्थी को बहुत तरीक़े से निभाती और चलाती थी|

आज तो दादी ने मां के बारे में यह बोलकर कि ‘तेरी मां ग़लत नहीं है’ उसके दिमाग़ में उनके लिए और भी इज्ज़त बढ़ा दी थी| नहीं तो प्राय: अधिकतर घरों में सास अपनी बहू की बुराई करने से नहीं चूकती थी| सृष्टि अपने मित्रों ऐसे क़िस्से सुने थे| अगर किसी स्त्री को उनके बेटे और बहू में से चयन करना हो तो वह अपने बेटे की गलतियों को भी सही ठहराती हैं| सृष्टि को ख़ुद स्त्री होने की वज़ह से दादी की इस बात ने बहुत प्रभावित किया|