Distinction - 6 in Hindi Fiction Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | भेद - 6

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भेद - 6

6.

तेरे दादा जी ज़िद थी कि सभी बच्चों को ख़ूब पढ़ाकर समर्थ बनाना है| उन्होंने घर में पढ़ाई के लिए बहुत अनुशासन रखा| तभी सब बच्चे पढ़-लिख गए। कोर्ट-कचहरी में इतना कुछ देखने के बाद, उनको हमेशा ही लड़कियों का पढ़ना  भी बहुत जरूरी लगता था|

पर तेरे बड़े दादाजी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि उनकी बेटियां क्या कर रही हैं। कौन-कौन सी कक्षा में आ गई हैं। उनको अपने मन का पहनने-ओढ़ने को मिल रहा है या नहीं| उन्होंने कभी नहीं पूछा|...उनको अपनी बेटियों पर कभी प्यार उमड़ा हो, मुझे  ध्यान नहीं आता|....

जो एक बार उन्होंने घर छोड़ा...फिर कभी लौटकर रहने के लिए नहीं आए| बाद में भी वह अपने भाई से रुपयों-पैसों के लिए मिलने आते थे। बाक़ी वह कभी अपनी बेटियों से नही मिले। जब उनकी तीनों बेटियों की शादियाँ हुई  तब उनके कन्यादान करने के लिये आए| चौथी बेटी का कन्यादान तो तेरे दादाजी ने किया|....

बेटा! आज सोचती हूँ तो लगता है कि इंसान कितना खु़दगर्ज़ हो सकता है....जिसकी मिसाल तेरे बड़े दादाजी थे| उन्हें अपने ऐशों-आराम के अलावा कोई दूसरा मतलब नही था।... कभी-कभी महेंद्र को अपने पास बुला लेते थे| बाकी उनको अपने भाई से भी सिर्फ़ रुपयों-पैसों का मतलब था|”

सृष्टि बहुत तल्लीनता के साथ दादी की बातें सुन रही थी| आज उसको एक औरत की परिवार में महती भूमिका और त्याग के साक्षात दर्शन दादी के रूप में हो रहे थे| दादी ने जब आगे की बात कहना शुरू की तब सृष्टि का ध्यान टूटा|

"दादी.. कितने आश्चर्य की बात है कि आपके समय में पापा को पता ही नही होता था कि बच्चे क्या कर रहे हैं।" सृष्टि ने अचंभित होकर पूछा।

"हाँ... अधिकतर परिवारों में ऐसा ही होता था। पर तेरे दादा जी तो कोर्ट-कचहरी जाया करते थे तो उनकी सोच-समझ बहुत परिपक्व हो गई थी। तेरे दादाजी की वजह से ही इस घर की बेटियां ग्रेजुएशन तक तो पढ़ गई। तभी तो हम उनकी बहुत अच्छे परिवारों में शादियाँ कर पाए| तेरे दादाजी ने मेरा भी हमेशा ही  बहुत मान रखा| मेरी किसी बात को न नहीं दिया| दोनों भाइयों के स्वभाव बिल्कुल उलट थे|"...

दादी ने सृष्टि के दिमाग में थोड़ी-सी सकारात्मकता छोड़ने की कोशिश की क्यों कि वह जिस समय की  पैदाइश थी..वहाँ लड़का हो या लड़की सभी उसको पढ़ाने-लिखाने का सोचते थे।

"दादी! एक बात और पूछूं?

"हाँ पूछ न बेटा?"

"लड़कियों का दान क्यों करते थे? अपने बच्चे कोई दान में देता है क्या?..सृष्टि ने इतनी मासूमियत से प्रश्न पूछा कि कुछ समय को दादी निरुत्तर हो गई क्योंकि सदियों से चली आ रही रस्मों को पहले की स्त्रियां बस निभाती थी...प्रश्न नही उठाती थी।  ख़ैर उनको सृष्टि के प्रश्न का उत्तर तो देना ही था।

"बेटा! तेरी बात बिल्कुल सही है। पर बहुत सी ग़लत प्रथाओं को बदलने में बहुत समय लगता है। समय के साथ यह भी बदलेगा। देख आज काफ़ी चीज़ें बदल ही गई हैं न।"

 

सृष्टि ने हम्म करके दादी से फिर आगे की बातें बताने के लिए आग्रह किया। आज उसको अपनी दादी से परिवार की बहुत सारी बातें पता चल रही थी।

"फिर क्या गुज़रते समय के साथ एक-एक कर बेटियों की खू़ब अच्छी शादियाँ  की। तेरे दादा जी को सारी उम्र रुपया कमाने से फ़ुरसत नही मिली क्यों कि उनके ऊपर ज़िम्मेदारी बहुत थी। घर की ज़मीन ज़ायदाद एक-एक कर ज़रूरत के हिसाब से बिकती गई। घर की चार बेटियों की शादी करना एक जने की कमाई से तो संभव नही था।....

ईश्वर ने मुझे बेटियां नही दी पर मैंने तेरे बड़े दादा की बेटियों को अपनी ही बेटी समझ कर पाला और बड़ा किया। आज सोचती हूँ तो महसूस होता है, सिर्फ़ खाना-पीना कर देने से बच्चे को सब कुछ नही मिल जाता। बेटियों की देख-रेख बहुत ज्यादा थी| कहीं न कहीं मन में डर भी था कि उनके पालन-पोषण में कमी न रह जाए| नहीं तो लोग क्या सोचेंगे| बस इसी सोच की वजह से महेंद्र को लाड़ कम मिला|

"आपको ऐसा क्यों लगता है दादी? आपने ही तो बताया। तीन बेटियों की शादी होते ही पापा भी आगे की पढ़ाई करने दिल्ली शहर को निकल गए थे। आप दोनों  ने तो पापा के साथ एक नौकर भी भेजा था। ताकि उनको कोई खाने-पीने की दिक्कत न हो।  मां-बाप इससे ज़्यादा और क्या करते है अपने बच्चों के लिए।" सृष्टि ने बहुत मासूमियत से पूछा।

"मां-बाप तो बहुत कुछ करते है बेटा। शायद हम दोनों घर गृहस्थी की दूसरी ज़िम्मेदारियों में अपना सब भूल गए।"

"दादी आप भी सच में कितनी पहेलियाँ बुझाती हो। कोई भी बात सीधी-सीधी क्यों नही बताती।" सृष्टि ने उनको कुरेदते हुए कहा।

"क्या जीवन इतना सीधा-सीधा होता है बेटा? जो तुझे सब सीधा-सीधा बता दूं|.. चल अब सो जा कल बातें करेंगे।"

अपनी बात बोलकर दादी थक गई थी सो करवट लेकर सो गई।  अब उनकी  उम्र भी कम नही थी। शायद अस्सी में कुछ साल कम ही थी| सृष्टि की आंखों में पर नींद नही थी।

आज उसको पता चला कि जो बुआएँ घर में तीज-त्योहारों पर आती थी..वो उसके पापा की सगी बहनें नही थी। जबकि वह तो आज तक यही सोचती थी कि चारों उसकी असल बुआएँ हैं।

दादी ने कितने दुलार से पाला होगा आज इस बात का अहसास सृष्टि को हुआ। उसके मन में दादी की जगह बहुत ऊंची हो गई थी। अब उसको कल आने वाली रात का बेसब्री से इंतज़ार था| ताकि दादी से आगे की बातें सुन सके...और उसको शायद मम्मी और पापा के बारे में कुछ पता चले। दादी की बताई सभी बातों को सोचते-सोचते सृष्टि कब सोई उसको पता न चला।

इतवार का सारा दिन कॉलेज के कामों और घर के कामों में गुज़र गया। सृष्टि को बहुत ख़ुश देखकर विनीता ने पूछा भी...

"कल रात दादी-पोती के कमरे से काफी देर रात तक आवाज़ें आ रही थी| कुछ बातें हो रही थी क्या?"

"हाँ माँ! दादी मुझे बड़े दादा और हमारे दादा के बारे में बता रही थी। क्या-क्या उनके समय में होता था। पर मां मैं आपसे से भी बहुत कुछ जानना  चाहती हूं। आपके और पापा के बारे में|"

"फिर वही बात बेटा। मैंने कब मना किया बताने को| सही वक्त तो आने दे... सब बातें जरूर बताऊँगी| पर पता नही वो वक्त आना भी चाहिए या नही। कहीं सब बिखर न जाए....तुझे पता चलते ही|”

"आपको ऐसा क्यों लगता है माँ। मैं किसी भी बात को सही तरीके से नहीं सोच पाऊँगी| आपने मुझे सोचने समझने की शक्ति दी है....आप मेरा विश्वास तो कीजिए|"

सृष्टि ने बहुत बार कोशिश की  कि उसकी माँ सब बता दे| पर माँ थी कि हाल-फिलहाल उसे सब बताना उचित नहीं समझती थी|

"तू अपने पापा से मेरे से ज्यादा प्यार करती है। तुझे हमेशा वह ही सही लगे हैं। या तो उनसे सच जानने की कोशिश कर या अपनी दादी से।"

"पर दादी भी तो नही बताना चाहती। वह भी तो पापा की बात आते ही बात बदल देती हैं। हुआ क्या है? कहीं मैं ही सोच-सोचकर पागल न हो जाऊँ|"

"समय गुजरने दे बेटा। थोड़ी और समझदार  हो जा....सब एक न एक दिन पता चलना ही है।"

"ठीक है माँ....आप अभी न बताना चाहे तो मत बताइए।"

सृष्टि जितना सोचती उसके लिए रहस्य उतना ही बढ़ता जाता। पर उसके घर वाले थे कि इस रहस्य से पर्दा ही नही उठने देना चाहते थे। ख़ैर सृष्टि ने भी रात का इंतज़ार किया क्यों कि उसको दादी की बातों में बहुत मज़ा आ रहा था।