Sulochna - 1 in Hindi Fiction Stories by Jyotsana Singh books and stories PDF | सुलोचना - 1

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सुलोचना - 1

भाग-१

सुलोचना! जैसा नाम वैसा ही रूप बड़ी-बड़ी आँखे गेहुँआ रंग लम्बे काले बाल, उसके रूप को और भी निखार देते थे। उसकी गहरी सिंदूरी माँग बड़ी सी सुर्ख़ लाल सिंदूरी बिंदी! बहुत सलीक़े से माथे पर सज़ा कर गोलाकार रूप में उसके श्रृंगारिक मनोभाव को दर्शाते थे।

सुलोचना के ब्याह को तीन वर्ष हो चुके थे।

शशिधर मुखर्जी ने अपने से कम हैसियत के घर की बेटी को अपनी बहू बनाया था। उसके पीछे सुलोचना का रंग- रूप और गुण ही सबसे बड़ा कारण था। हालाँकि सासु माँ कुसुम मुखर्जी का मन बिलकुल भी नहीं था। बिना दान- दहेज़ वाले घर की कन्या उनके सुंदर सजीले बेटे के लिए आए। वह भी जब बेटा सरकारी नौकरी में ऊँची पदवी पर बैठा हुआ हो। वह तो कोई पढ़ी- लिखी मेम टाइप की बहू लाना चाहती थी।

पर क्या करती शशि बाबू के आगे एक न चली, बेटा तो विवाह की क्या कहें पिता जान भी माँग ले तो देने से माना ना करता। चाहत तो उसकी भी आधुनिक सी संगनी की ही थी। जब सुलोचना को ब्याह के ले आया तब पसंद भी बन गई रूप गुण की धनी तो थी ही वह, तभी तो कोई भी नुक्स उसमें चाह कर भी वह न निकाल पाया था। बस मन कुछ बुझ सा गया था उसका। मणिधर ख़ुद कहीं से कम न था। कालेज टाइम से ही लड़कियों में ख़ासा चर्चा का विषय बना रहता था। पढ़ाई में भी अव्वल रहा सदैव और अब तो नौकरी भी सरकारी ऊपर से अपने ही शहर में।

कलकत्ता के धर्मतल्ला शहर में बड़ा रसूखे दार परिवार था शशिधर मुखर्जी बाबू का। पुरानी रियासत के लोग थे। उनका ख़ानदान अंग्रेजों के ज़माने से अपना ख़ासा वजूद रखता था। माना अब वह वक़्त न रहा था पर सलीक़ा और तौर तरीक़ा घर में अभी भी अंग्रेज़ीयत को ही ओढ़ता- बिछाता था। जिसमें कुसुम मुखर्जी तो वन टू आल रूल फ़ालो करती थी। उनको सुलोचना का हिंदुस्तानी रूप वह भी पूरा का पूरा बंगाली सज- धज ज़रा कम ही भाता था। करती भी क्या जब भी वह उसे मार्डन सज- धज का लोहा मनवाती वह कुछ न कुछ ऐसा काट रखती की वह चुप ही रह जाती। हाँ पर उसका पारंपरिक रूप रंग उसके ससुर को बेहद पसंद था।

कोठी के छोटे हाल में सासु माँ की सखियों का जमघट लगा हुआ था।

अक्सर महिलाओं की बैठक छोटे हाल में और पुरुषों की महफ़िल बड़े दीवान खाने में लगा करती थी। पुरुष वर्ग राजनीति समाज और शिक्षा के मुद्दों पर चर्चाएँ करते तो महिलायें गहने कपड़े, सौंदर्य और नए-नए पकवानो की चर्चा करा करती।

सुलोचना ने सासु माँ की सहेलियों के चाय नाश्ते का प्रबंध करवाया और अपनी ख़ास काम वाली के साथ छोटे हाल में प्रवेश किया।

प्रवेश के साथ ही सासु माँ ने अपने मुखड़े पर गज़ भर की मुस्कान बिखेरी और बोली-

“ देखुन तो मिसेज़ दास अमार बहु लक्खी।”

“हें देखते पारी ख़ूब सुंदर।”

सुलोचना अपनी तारीफ़ सुन मंद-मंद मुस्कुराने लगी और सासु माँ के प्रति कृतज्ञता से भरकर सबको चाय नाश्ता परोसने लगी।

तभी सासु माँ ने आवाज़ में वज़न पैदा करते हुए कहा-

“ बहु, अभी तुम अंदर जाओ मणि आता होगा। मीना सबको सर्व कर देगी।”

वह समझ गई थी कि उसका सबको नाश्ता सर्व करना न भाया था सासु माँ को। उनकी शान में बट्टा जो लग गया था। आख़िर कोठी की परम्परा है कि नौकर ही लोगों की प्लेट लगायेगा। जब वह उठ कर जाने को हुई तो उसके पाँव की पाज़ेब की रुनझुन ने हाल में मद्धिम सी खनक गूंज उठी, सभी उस आवाज़ से एक बारगी फिर सुलोचना को देखने लगे। आवाज़ को सुन मिसेज़ तनेजा ने कहा-

“मिसेज़ मुखर्जी आप अपनी बहू को इतने बंधनों में क्यूँ रखती हैं अब कौन पहनता है पाज़ेब! ऊँची सैंडिल के ज़माने में?”

सभी ने एक बनावटी सी मुस्कान बिखेरी और जाती हुई सुलोचना को देखती रहीं। यह बात कुसुम मुखर्जी को चुभ गई पर फिर भी अपने ढाई तोले के सोने के कड़े को कलाई पर थोड़ा सा घुमाकर हाथों को हवा में नाचते हुए बोलीं-

“ज़ेवर पहनना कोठी का रिवाज रहा है। और ये पाज़ेब बंधन नहीं बहू की ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं। उसके रंग-रूप को और सँवारते हैं।”

जाती हुई सुलोचना का दिल ख़ुश हो गया सासु माँ के दिये जवाब को सुनकर। मन ही मन ये सोच ख़ुश होने लगी की मोरपंखी रंग की शांतिपुरी साड़ी में उसका रूप देख आज मणि बाबू भी ज़रूर उसकी सुंदरता के क़सीदे कसेगे।थोड़ी ही देर में सासु माँ उसके द्वार आ खड़ी हुईं और बोली-

“क्यों इतना सब लादे रहती हो? मैं तो नहीं कहती पल्ला करो ज़ेवरों से लदी रहो। न ही मणि को पसंद फिर क्यों ये देशी वेष - भूषा में ख़ुद को समेटे रहती हो ? कुछ मोर्डनिटी लाओ अपने अंदर।”

थोड़ी देर पहले उसके रूप गुण की तारीफ़ करने वाली सासू माँ इस वक़्त उसे गँवार साबित करने पर आमद थी।तभी मणि ने प्रवेश किया और माँ की बातें सुन बोला-

“मार्डन होने के लिये मार्डन शिक्षा का बड़ा योगदान है माँ! उच्च शिक्षा ही उच्च विचार ला पाते हैं।”

निराशा के काले बादल उसकी श्रिंगरिक सोचों पर बरसकर मन मयूर के सारे रंग धो गए।

 

सुलोचना सज सँवर दर्पण में ख़ुद को निहार अपने ही नयनों को तृप्त करती रहती। उसकी उम्र का एक पड़ाव आभाव में बीता था मोटा खा पहन कर तभी तो अब मिले अथाह ज़ेवर साड़ी उसे आपार सुख देते।

तीन साल हो गए थे उसे इतना सब कुछ पाये हुए। तभी तो वह बहुत शुक्रगुज़ार थी माँ काली की और पिता तुल्य अपने ससुर की।

हाँ, पर मणि के स्नेह का अभाव अभी भी उसके जीवन की रिक्तता को बनाए हुए था। उसके प्रेम का सावन अभी तक न बरसा था। मणि उसके साथ तटस्थ सा व्यहवार रखता था। वह उसकी हर माँग को पूरा तो करता पर कभी भी तारीफ़ के या प्रेम के दो शब्द उसके लिये न बोलता, बल्कि व्यंग्य बाण चलाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता था।

उसका नारी सुलभ हृदय अपने पति से प्रेम भरे तारीफ़ के दो शब्द सुनने को व्याकुल ही रहता।

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