Break bond - 4 in Hindi Fiction Stories by Asha sharma books and stories PDF | तोड़ के बंधन - 4

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तोड़ के बंधन - 4

4

आजकल निधि का समय आईने के सामने कुछ ज्यादा ही गुजरने लगा है. कभी अलग-अलग स्टाइल से बाल बनाये जाते, कभी मुँह की अजीबोगरीब भाव-भंगिमाएं बनाई-बिगाड़ी जाती... कभी कपड़े पहन-पहन कर कई बार उतारे जाते तो कभी चेहरे पर तरह-तरह के लेप लगाये जाते.

उम्र के इस दौर की नजाकत को मिताली बहुत अच्छी तरह से समझती थी. माँ थी ना! वह जानती थी कि निधि को इस समय उसके भावनात्मक साथ की बहुत जरुरत है लेकिन इस तथ्य से भी किसे इनकार था कि जीने के लिए पैसा और पैसे के लिए नौकरी बहुत जरुरी है. बेशक मिताली ऑफिस टाइम के अलावा अपना सारा समय बच्चों को ही देती थी लेकिन फिर थी आठ-नौ घंटे तो घर से बाहर रहती ही थी.

“स्कूल से आने के बाद दोपहर के तीन-चार घंटे जब सारा मोहल्ला आराम कर रहा होता है तब न जाने बच्चे कैसे अपना टाइम पास करते होंगे. विशु के खेलने जाने के बाद दो घंटे तो निधि बिल्कुल अकेली ही रहती है. मोबाइल तो मैंने उसे ला दिया लेकिन क्या पता वह उसका इस्तेमाल किस तरह से करती है. नेट पर क्या देखती है. कौन जाने किस-किस से फोन पर बात करती होगी. किशोर बच्चों की सैंकड़ों समस्याएं होती हैं. क्या पता किससे शेयर करती है. कहीं किसी साईट से अधकचरी जानकारी न जुटाती हो. नादान है, किसी साइबर जाल में न फंस जाये. ” मिताली ऑफिस में भी अक्सर यही सोचती रहती.

एक दिन न जाने क्यों दोपहर में खाना खाने के बाद अचानक मिताली का सिर भारी हो गया. चक्कर से आने लगे. वह आँखें बंद करके कुछ देर सीट पर निढाल सी पड़ी रही लेकिन जी को शांति नहीं मिली. तभी चपरासी ने आकर कहा कि सिन्हा साब उसे बुला रहे हैं. अनमनी सी मिताली बॉस के चैंबर की तरफ चल दी.

“क्या बात है मिताली! कुछ सुस्त लग रही हो.” सिन्हा साब ने चिंतित होते हुये पूछा.

“कुछ खास नहीं सर. बस यूँ ही जरा सिर भारी हो रहा था. आप कहिए. आपने बुलाया था.” मिताली सकुचा गई.

“काम तो बाद में भी होते रहेंगे. स्वस्थ रहना ज्यादा जरूरी है. तुम घर जाकर रेस्ट करो.” बॉस ने कहा. मिताली भी यही चाह रही थी.  तय तो किया था कि पहले किसी डॉक्टर से मिलेगी लेकिन न जाने क्यों, गाड़ी अपने आप ही घर की तरफ मुड़ गई.

अभी वह डोर बेल बजाने ही वाली थी कि अंदर से निधि के साथ किसी पुरुष स्वर के खिलखिलाने की आती आवाज ने उसके हाथ रोक लिए. वह कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगी लेकिन उसे फुसफुसाहट के अतिरिक्त कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा. झुंझला कर उसने डोर बेल पर उंगली रख दी. घर के भीतर एक कर्कश आवाज गूँज गई. घंटी की आवाज की निरंतरता बता रही थी कि उसे बजाने वाला कितना बेसबरा है. निधि ने दरवाजा खोला. माँ को देखते ही उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी.

सोफे पर बैठे एक लड़के को देख कर मिताली की आँखों में अनेक प्रश्न तैरने लगे. उसने एक भरपूर नजर उस लड़के पर डाली. निधि और उस लड़के को काटो तो खून नहीं. मिताली कमरे का मुआयना करने लगी. टेबल पर दो आधे भरे गिलास कोल्डड्रिंक के रखे थे. एक प्लेट में कुछ खाने का सामान भी रखा था. शायद पैटीज या फिर कुछ और... सोफे पर लड़के के पास वाली सीट का कवर सिलवटों से भरा दिख रहा था. दीवान पर बिछी चादर पर भी कुछ सलवटें नजर आ रही थी. मिताली अनुमान लगाने लगी कि ये दोनों कहाँ बैठे होंगे.विशु घर में नहीं था. लड़के ने उसे नमस्ते किया लेकिन मिताली ने कोई जवाब नहीं दिया.

अनजानी कल्पना से मिताली का सिर और भी अधिक चकराने लगा. वह किसी तरह अपने आप को घसीटती हुई बेडरूम तक लाई. मिताली के भीतर जाते ही वह लड़का भी खिसक लिया.

“ममा वो... ये...” कहती निधि अपराधी की तरह सिर झुकाए माँ के पास खड़ी थी. डर, क्रोध, हताशा, दुःख, नाराजगी और अपराधबोध... एक-एक कर भाव मिताली के चेहरे पर आ-जा रहे थे. अचानक ही सोच ने अपनी दिशा बदली और मिताली कुछ संयत हुई.

“इस बेचारी की भी कहाँ गलती है. अकेलापन दूर करने के लिए इसने भी कोई साथी चुन लिया. अब ये साथी सही है या गलत ये भला ये नादान क्या जाने.” मिताली को मासूम निधि पर प्यार उमड़ आया. उसने निधि को अपने पास बिठाया.

“फ्रेंड है क्या तुम्हारा?” मिताली ने प्रश्न किया.

“जी.”

“फ्रेंड या बॉय फ्रेंड?”

निधि चुप.

“क्या यह अक्सर इसी तरह चोरी-छिपे तुमसे मिलने आता है?”

निधि चुप.

“देखो बेटा! न तो लड़कों से दोस्ती बुरी है और ना ही प्रेम करना गलत है.” मिताली ने निधि को खींच कर अपने से सटा लिया. स्नेह और सुरक्षा की आंच पाते ही निधि पिघलने लगी.

“माँ! मेरा क्लासमेट है. मैं समर्थ से प्यार करती हूँ.” निधि के मुँह से प्यार का नाम सुनकर मिताली जरा भी नहीं चौंकी बल्कि यदि वह प्रेम से इनकार करती तब वह जरुर चौंकती.

“तुम्हें पता है निधि कि तुम अपनी माँ के लिए कितनी कीमती हो? तुम्हारे पापा कितना गुमान करते थे तुम पर? क्या ये लड़का समर्थ जिससे तुम प्रेम का दावा कर रही हो वह तुम्हारे माँ-पापा की इस कीमती धरोहर को सहेजने के लायक है? जरा ठीक से विचार करना बेटा. क्या ये लड़का प्यार के साथ-साथ तुम्हारी इज्जत भी करता है? क्या इसने दोस्ती की आड़ में कभी तुम्हारे एकांत का लाभ उठाने की कोशिश नहीं की?” मिताली की नजर निधि की गर्दन पर पड़े नीले निशान पर जाकर अटक गई जिसे वह अपने खुले बालों से छिपाने की कोशिश कर रही थी. मिताली ने आँखों में किरकिराते नीले निशान को अनदेखा करने की कोशिश की.

“अपनी दोस्ती को परखना निधि. अपने आप से तर्क करना. इस उम्र में भावनाओं का बहाव बहुत तेज होता है. यदि इन पर बांध न बनाये जाएँ तो भारी तबाही हो सकती है. हालाँकि मैं जानती हूँ कि तुम्हें मेरी ये सब बातें अभी जरा भी अच्छी नहीं लग रही होंगी लेकिन बेटा! मैं उम्र के इस दौर से गुजर चुकी हूँ. मुझे तुम्हारी पसंद के लड़के से तुम्हारी शादी करने में भी कोई एतराज नहीं होगा. बशर्ते! वह तुम्हारे लायक हो. लेकिन प्रेम करने के लिए अभी तुम बहुत छोटी हो. हो सकता है कि कुछ समय बाद तुम्हें अपनी ये हरकत बचकानी लगे. ये प्रेम महज आकर्षण लगे. वो फिल्म देखी थी ना हमने. क्या नाम था उसका... हाँ राँझणा... वैसे ही...” मिताली धीरे-धीरे निधि की पीठ सहलाते हुए उससे बात करती जा रही थी. निधि ने उसका हाथ कस कर थाम रखा था. हालाँकि वह मुँह से कुछ नहीं बोल रही थी लेकिन कई बार कुछ कहने के लिए शब्दों की आवश्यकता भी नहीं पड़ती. निधि मिताली का पल्लू खारे पानी से भिगोती रही.

“कच्ची उम्र के इस आकर्षण से पार पाना क्या इतना आसान है? आजकल के बच्चों में ही क्यों, क्या स्वयं उसकी उम्र में नहीं होता था ये आकर्षण? वह भी तो तब इसे प्यार ही समझती थी. क्या आज भी वह पिछली गली वाला गब्दू सा टिंकू जो उसके साथ दसवीं कक्षा में पढ़ता था, वह हाई स्कूल के बाद साथ कोचिंग जाने वाला सांवला सा मुरली और वो कॉलेज वाला मयंक... आ खड़े नहीं होते उसके ख़यालों में??

कितनी जुगत लगाती थी वह उन की एक झलक देखने के लिए. लेकिन मुरली के आने के बाद टिंकू और फिर कॉलेज में आने के बाद जब मयंक उसकी जिंदगी में आया तो मुरली... बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही धीरे-धीरे जिंदगी के फ्रेम से बाहर हो गए थे. मयंक के आने के बाद तो उसे लगने लगा था जैसे अब उसकी जिंदगी के फ्रेम में कोई दूसरी तस्वीर जड़ेगी ही नहीं लेकिन वह पूरी तरह से फ्रेम में आया भी नहीं था कि कॉलेज से चला गया.

उसके बाद वैभव से शादी हो गई तो फिर फ्रेम में एक ही तस्वीर सेट होकर रह गई थी. हालांकि मयंक और मिताली के बीच किसी तरह का कोई कमिटमेंट नहीं था लेकिन फिर भी शादी के शुरुआती दिनों में तो मयंक को याद करके पति की बाहों में भी उसका दिल धड़क उठता था.” मिताली एक चक्कर यादों की पुरानी बस्ती का लगा आई.

वह निधि की स्थिति समझ सकती है. वह जानती है कि उससे जोर-जबर्दस्ती नहीं की जा सकती. यूं भी इंसानी फितरत होती है कि उसके पास उम्र के हर दौर के लिए खुद के पक्ष में ढेरों तर्क होते हैं. जब वह स्वयं निधि की वय में थी तब उसके अलग तर्क थे और आज जब वह उसकी माँ और अभिभावक की भूमिका में है तब उसके अलग तर्क हैं.

मिताली के बॉस सिन्हा साब को मिताली के पापा की उम्र का तो नहीं कहा जा सकता लेकिन वे उससे दस-बारह वर्ष तो अवश्य ही बड़े हैं. ऑफिस में सबके साथ स्नेह रखने वाले सिन्हा साब का व्यवहार उसके लिए भी सहानुभूतिपूर्ण है. इस लिहाज से मिताली उनका बहुत सम्मान करती है.

स्वयं के पक्ष में हमारे पास लाख तर्क हो सकते हैं लेकिन किसी दूसरे को कटघरे में खड़ा करते समय हमारे वही तर्क अपना पाला बदल लेते हैं. सिन्हा साब का मिताली के प्रति नरम रवैया भी जल्द ही लोगों की आँखों में रड़कने लगा.

"आजकल साहब बहुत मेहरबान हो रहे हैं मैडम पर. भई, गुलदस्ते में यदि अतिरिक्त गुलाब आ जाए तो किसे बुरा लगेगा भला?" ऑफिस में कोई चटकारे लेता.

“अरे! उम्र का फासला तो देखो. वैसे भी सिन्हा साब घर-परिवार वाले हैं.” कोई एक मिताली के पक्ष में बोलता.

“एक उम्र के बाद उम्र के फासले कोई मायने नहीं रखते.” कटाक्ष करता दूसरा तुरंत उसे काट देता. लोगों को टाइम पास करने के लिए हमेशा ही कुछ चटपटा चाहिए होता है.

ऑफिस में सिन्हा साब और मोहल्ले में लोकेश... दोनों  की हरसंभव कोशिश रहती कि मिताली और उसके परिवार को कोई परेशानी न हो. चाहे सहानुभूति कहो या इंसानियत... लेकिन लोकेश और सिन्हा साब हर समय उनकी मदद के लिए तैयार रहते. मिताली भी पूरे मोहल्ले में सिर्फ लोकेश के साथ सहज होकर बातचीत करती है. सिन्हा साब से अवश्य ही वह जरा दूरी बनाकर रहती है.

वैसे तो बातें बनाने के लिए लोगों को अधिक कुछ चाहिए भी नहीं होता... उन्हें कुछ दाने चावल-मूंग ही काफी होते हैं खिचड़ी पकाने के लिए... बाकी नमक-मिर्च-मसालों की कमी वे खुद अपनी तरफ से डाल कर पूरी कर देते हैं. मिताली के चालचलन को भी इसी तराजू पर तोला गया. मोहल्ला हो या ऑफिस... जितने मुँह... उतनी बातें...

वे दोनों तो पुरुष थे और पौरुष को चुनौती देने की परंपरा अभी हमारे समाज में नहीं है लेकिन स्त्रीत्व पर दोषारोपण करना और उसकी पवित्रता को ललकारना तो सदियों से ही चलन में रहा है फिर भला मिताली इससे अछूती कैसे रह सकती है. उसका हंसना-बोलना और उससे भी कहीं अधिक बिना पुरुष साथी के जीने की कोशिश करना समाज की निगाहों में खटकने लगा.

इधर इन सब बातों से बेखबर मिताली किसी तरह से अपने उजड़े घोंसले के तिनको को समेटने की कोशिश में लगी थी. व्यक्ति बाहरी रूप से कितना भी मजबूत दिखे या दिखने की कोशिश करे, कहीं न कहीं भीतर से अकेला होता ही है. शरीर से कहीं अधिक मानस को साथी की आवश्यकता होती है. और यही संबल मिताली को कभी लोकेश तो कभी सिन्हा साब के रूप में मिल रहा था.

घर-बाहर की न जाने ऐसी कितनी ही बातें थी जो मिताली इन दोनों के साथ हर रोज साझा करने लगी.

मिताली जहाँ लोकेश से अपनी हर परेशानी मित्रवत साझा करती है वहीं आवश्यकता पड़ने पर सिन्हा साब से भी सलाह-मशवरा कर लिया करती है. विशेषकर तब जब वह किसी दौराहे पर खड़ी हो.

“सर जरा एक सलाह दीजिये तो! निधि स्कूल ट्रिप पर जाना चाहती है. क्या उसे यूँ अकेले भेजना सही होगा?” मिताली ने बॉस से पूछा.

“अरे! इसमें सोचना क्या? उसे जरुर भेजना चाहिए. बाहर निकलेगी तो जिम्मेदारी का अहसास होगा. उसमें परिपक्वता आएगी. उसका आत्मविश्वास बढेगा. वैसे भी आजकल के बच्चे हमारी पीढी से कहीं अधिक समझदार हैं. हमें उन पर भरोसा करना चाहिए.” सिन्हा साब ने कहा तो मिताली मुस्कुरा दी. ट्रिप पर जाने की परमिशन मिलते ही निधि ने माँ के गले में बाँहें डाल दी.

“थैंक यू मुझे नहीं सिन्हा अंकल को कहना उन्होंने ही तेरी सिफारिश लगाई है.” मिताली ने कहा और  स्नेह से  बेटी के गाल थपथपा दिए. तभी मिताली का मोबाइल बज उठा. वह फोन उठाने के लिए चली गई. फोन जेठानी का था.

“ये हम क्या सुन रहे हैं मिताली? तुम्हारे यहाँ किसी पड़ौसी का आना-जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ गया है.” जेठानी ने अपनी नाराजगी दर्शाई.

“घर में किसी का आना-जाना अपराध है क्या? वैसे भी मैं कोई सुपर वुमन तो हूँ नहीं. मुझे भी मदद की जरुरत पड़ती ही है. बाकी सब लोग तो अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हैं, किसी को हालचाल पूछने तक की फुर्सत भी नहीं. ऐसे में यदि कोई भला आदमी हमारी मदद करता है तो इसमें बुरा क्या है?” मिताली ने स्वर को यथासंभाव संयत रखने का प्रयास किया.

“मदद तक तो ठीक है लेकिन जरा सावधान रहना, लोग अकेली औरत को लोग रेडीमेड ड्रेस समझते हैं. पहन के देख लिया, जच गई तो ठीक वरना उतार कर रख देते हैं.” जेठानी उसे बहुत देर तक ऊँच-नीच समझाती रही. मिताली कभी लोकेश तो कभी बॉस के बारे में सोचती केवल हाँ-हूँ में ही जवाब दे रही थी. विचारों का स्वेटर बुनता-उधड़ता जा रहा था.

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