Monk in Hindi Motivational Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | संन्यासी महाराज

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संन्यासी महाराज



निःसंतान राजा की अचानक मृत्यु हो गई! दरबारियों में व राज्य की प्रजा में शोक की लहर दौड़ गई।
सूनी राजगद्दी को देखते हुए प्रधान बहुत चिंतित थे। आखिर गद्दी किसे सौंपी जाए? यह यक्ष प्रश्न सभी के सामने था। सभी दरबारियों की सहमति से इसपर कोई फैसला करने के लिए मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई। मंत्रियों की बैठक में राज्य के राजपुरोहित भी शामिल हुए!
बैठक में सबने अपनी अपनी पसंद व परिचय के एक से बढ़कर एक काबिल व्यक्तियों का नाम सुझाया जिसपर विमर्श होने के बाद मंत्रियों में सहमति नहीं बन पाई। इससे पहले कि बिना किसी फैसले के सभा समाप्त होती राजपुरोहित ने सुझाव दिया कि क्यों न इस मसले के लिए उनके गुरु महाराज से मिल लिया जाए? इस बात पर सबने अपनी सहमति जताई।
दूसरे दिन सभी मंत्रियों की सवारी राजपुरोहित के गुरुजी जो कि एक संन्यासी थे ,उनके आश्रम में जा पहुँची। गुरुजी का अभिवादन करने के बाद यथोचित स्थान ग्रहण करके राजपुरोहित बोले," हमारी समस्या आपसे छिपी नहीं है गुरुजी
? हम चाहते हैं कि अपने राज्य के लिए योग्य राजा के चुनाव में आप हमारी मदद करें!"
उनकी बात सुनकर गुरुजी मुस्कुराए और बोले," देखो! किसी भी प्रदेश का राजा वह व्यक्ति होना चाहिए जिसमें दया , करुणा , शौर्य व बुद्धि के साथ ही आत्मविश्वास व साहस कूट कूट कर भरा हो! कोई गृहस्थ एक आदर्श राजा हो सकता है जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन भली भांति करता हो। ऐसा राजा जनता को भी अपने परिवार की तरह मानेगा और उनकी हर तरह से सहायता करेगा। राज्य पर आए किसी आकस्मिक संकट का सामना भी वह उसी धैर्य से करेगा जिस धैर्य से वह अपने परिजनों पर आई विपदा का सामना करता है।
वह वणिक बुद्धि का न हो। वणिक बुद्धि का जातक कभी भी अपनी प्रजा से न्याय नहीं कर सकता। वह जनता की भलाई के कार्यों से पहले राज्य के नफे नुकसान का हिसाब लगाया करेगा और फिर वह भलाई के कोई काम नहीं कर पाएगा।
वह निःसंतान भी न हो तथा परिवार विहीन भी न हो। जिसे खुद की संतान न हो, अपना परिवार न हो वह जनता के सुख दुःख व उनकी परेशानियों को भला कैसे समझ सकता है? वह चरित्रवान हो, आस्थावान हो ताकि राज्य की जनता उसपर पूर्ण विश्वास व उसका सम्मान कर सके!" कहकर गुरुजी चुप हो गए।
सभी मंत्रियों ने उनकी बात ध्यान से सुनी। सभी कुछ देर सोचते रहे व फिर आपस में बातें करने लगे। राजपुरोहित ने प्रस्ताव रखा,"क्यों न हम गुरुजी से ही यह पद स्वीकारने का आग्रह करें? गुरुजी मोहमाया से दूर हैं अतः खजाना इनके हाथों में पूरी तरह सुरक्षित रहेगा। कोई मित्र रिश्तेदार नहीं जिसके लिए ये धन संग्रह करेंगे सो सभी काम ईमानदारी से होने की पूरी संभावना है।" सबने एकमत से राजपुरोहित की बात का समर्थन किया।
कुछ देर के विमर्श के बाद प्रधान ने दोनों हाथ जोड़ते हुए गुरुजी से कहा," महाराज ! हम सभी मंत्रियों ने आपस में विमर्श कर आपकी सुझाई सभी बातों पर गौर किया लेकिन अफसोस कि हमारे राज्य में इस तरह का एक भी जातक किसी के संज्ञान में नहीं है जिसके अंदर आपके द्वारा सुझाये गए गुण अथवा काबिलियत हो ! हम सर्वसम्मति से आपसे निवेदन करते हैं कि अब आप ही हमारी यह समस्या हल करें ! आप इस राज्य के सिंहासन का स्वीकार करें और हमें व राज्य की जनता को कृतार्थ करें ! "
गुरुजी मुस्कुराए और बोले ," एक बात बताना तो भूल ही गया था कि किसी सन्यासी या समाज से विरक्ति महसूस करने वाले व्यक्ति को भी किसी प्रदेश का राजा नहीं बनाना चाहिए ! "
राजपुरोहित बीच में ही बड़े अदब से बोल पड़ा ," वह क्यों भला गुरुजी ? भला एक संन्यासी से किसी राज्य को क्या नुकसान हो सकता है ? "
" जिसे समाज से कोई सरोकार न हो , लाभ हानि से परे हो उसकी मानसिकता वह भला राज्य का भला कैसे कर पायेगा ? कभी ऐसा भी हो सकता है कि जब भी उसका मन करेगा वह अपना कमंडल उठाएगा और फिर अपनी कुटिया पकड़ लेगा और प्रभु के शरण में पहुँच जाएगा । " गुरुजी ने समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन राजपुरोहित के तर्क का किसी के पास कोई जवाब नहीं था सो प्रधान सहित सारे मंत्री गुरुजी से मान मनुहार करते रहे ।
कई बार की नानुकुर के बाद अंततः हारकर वह संन्यासी राजा बनने के लिए तैयार हो गया !
एक संन्यासी के सत्तारूढ़ होने पर राज्य की प्रजा बेहद खुश थी । सब सोच रहे थे ' इसका तो कोई है ही नहीं , फिर ये किसके लिए लूटेगा ? ' बात सच भी थी । दिन रात धर्म कर्म व ज्ञान की बातें करते राजा का समय बीतने लगा । अपनी वाक्पटुता व व्यवहारकुशलता से वह अन्य पड़ोसी राजाओं का भी प्रिय हो गया ।
एक दिन उसके प्रधान ने उन्हें राज्य के बारे में बताया कि अब बेरोजगारी बढ़ रही है । संन्यासी महाराज ने कहा ," कोई चिंता की बात नहीं ! जिस परमपिता परमेश्वर ने मुँह दिया है , निवाले भी वही देगा ! "
कुछ दिन के बाद प्रधान ने उसे फिर चेताया ," महाराज ! जनता में आपके खिलाफ असंतोष बढ़ रहा है ! अब कुछ लोग तो आपकी निंदा पर भी उतर आए हैं ! "
मुस्कुराते हुए संन्यासी महाराज बोले ," कोई चिंता नहीं ! निंदक नियरे राखिये ....की हमारी संस्कृति व संस्कार रहे हैं ! "
कुछ दिन बाद फिर प्रधान ने अपने गुप्तचरों के हवाले से राजा को सावधान किया ," महाराज ! राज्य के लिए बेहद मुश्किल की घड़ी आन पड़ी है । पड़ोस का राजा आपकी प्रजा के मन में आपके लिए असंतोष की स्थिति का फायदा उठाने के लिए हमारे राज्य पर हमले की तैयारी कर रहा है ! आप आदेश दीजिये हम क्या करें ? "
राजा हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए बोला ," होइहैं वही जो राम रचि राखा .....! हमारे तुम्हारे चाहने से क्या होता है ? "
प्रधान अपना सा मुँह लेकर वापस चला गया ।
कुछ दिन और बीते । एक दिन प्रधान फिर भागा भागा महाराज के पास आया ," महाराज की जय हो ! अभी अभी खबर मिली है कि पड़ोसी राज्य की सेना ने हमारी सीमा में प्रवेश कर लिया है । हमारे बहादुर सिपाही उनसे लोहा ले रहे हैं । आपकी आज्ञा हो तो उनकी सहायता के लिए अपने और सैनिक भेज दूँ ? " कुछ पल विचार करने के बाद वह शांत मुद्रा में बोला ," हमारा शास्त्र हिंसा की इजाजत नहीं देता । और तुम ये जो बार बार आकर मुझसे पूछते हो न यह तुम्हारी मेरे ऊपर निर्भरता दिखाती है जो सर्वथा अनुचित है ! जाओ ! सबसे कह दो ' आत्मनिर्भर ' बनो ! वक्त पड़ने पर राजा भी किसी के काम नहीं आता ! समझ गए ? और फिर मेरा क्या है ? मैं तो ठहरा संन्यासी ! अपना कमंडल उठाऊंगा और वन में जाकर भगवान की शरण ले लूँगा ! "
कुछ देर बाद वह संन्यासी महाराज हाथों में कमंडल लिए राजमहल के पिछले गुप्त दरवाजे से बाहर की तरफ जा रहा था । उसी समय दुश्मन की सेना राज्य की सीमा में प्रवेश कर रही थी ।