"माँ हूँ... तभी तो कह रही हूँ. एक माँ से दूसरी माँ की तड़प देखी नहीं जा रही; हमारा आबिद ना सही, किसी और का बेटा तो ज़िंदगी जी सकता है और फिर आबिद तो उसके दिल में; हमेशा ज़िंदा रहेगा." शबाना सुबकते हुए बोली.
आपकी बेगम बिलकुल ठीक कह रही है युसूफ जी... डॉक्टर बोले. आइये मैं आपको समझाता हूँ. "ब्रेन-डेड की स्थिति में कई बार मरीज के घरवालों को लगता है कि अगर मरीज का दिल धड़क रहा है, तो उसके ठीक होने की संभावना है. फिर उसे डॉक्टरों ने मृत घोषित करके उसके अंगदान की बात क्यों शुरू कर दी. लेकिन ऐसी सोच गलत है. ब्रेन-डेड होने का मतलब यही है कि इंसान अब वापस नहीं आएगा और इसीलिए उसके अंगों को दान किया जा सकता है.
ब्रेन-डेथ वह मौत है; जिसमें किसी भी वजह से इंसान के दिमाग को चोट पहुंचती है. इस चोट की तीन मुख्य वजहें हो सकती हैं: सिर में चोट, अक्सर ऐक्सिडेंट के मामले में ऐसा होता है(जैसा आबिद के केस में हुआ), ब्रेन ट्यूमर और स्ट्रोक (लकवा आदि). ऐसे मरीजों का ब्रेन-डेड हो जाता है लेकिन बाकी कुछ अंग ठीक काम कर रहे होते हैं - मसलन हो सकता है दिल धड़क रहा हो। कुछ लोग कोमा और ब्रेन-डेथ को एक ही समझ लेते हैं; लेकिन इनमें फर्क है. कोमा में इंसान के वापस आने के चांस होते हैं। यह मौत नहीं है। लेकिन ब्रेन-डेथ में जीवन की संभावना बिल्कुल खत्म हो जाती है। इसमें इंसान वापस नहीं लौटता.
"आप मान जाइये ना, हमारा आबिद किसी के दिल में हमेशा के लिए ज़िंदा रहेगा" शबाना एक उम्मीद की नज़र से युसूफ को देखती है और युसूफ हां कर देता है और इस प्रकार उनके जिगर के टुकड़े; आबिद का हृदय प्रत्यारोपण संपन्न हो जाता है. साथ ही दूसरे अंगों को भी किसी ज़रूरतमंद इंसान को प्रतियोपित कर दिया जाता है. शबाना और युसूफ के चेहरे पर एक सुकून की रेखा उबर आती है.
आंटी जी, दीपक की आवाज़ सुनकर दोनों वर्तमान में आ जाते हैं.दीपक थोड़ा झिझकते हुए बोला; "क्या मैं आपको अम्मी बुला सकता हूँ?" शबाना दीपक का हाथ अपने हाथ में लेकर; आँखों से स्वीकृति देती है.
"अम्मी! अपने आबिद को जन्मदिन की मुबारक नहीं देगी ..." दीपक ने शबाना जी के पैर छूटे हुए कहा.तभी दीपक ने शबाना जी का हाथ अपने सीने पर रखा और कहा; "आपका जब भी मन हो अपने आबिद से बात कर सकती है और अब्बू; आपका भी जब दिल करे अपने शहज़ादे को गले लगा सकते हो."
दीपक एक बड़ा सा बॉक्स शबाना जी के हाथ में थमाता है. शबाना उस बॉक्स को खोलती है और उसमे एक बड़ा-सा 'दिल' के आकार का केक होता है, जिस पर "जन्मदिन आबिद" लिखा होता है... शबाना की आँखें नम हो जाती है और दीपक, शबाना और युसूफ को गले लगा लेता है.
"शबाना जी, किन लफ़्ज़ों में मैं आपका शुक्रिया करूँ? उस दिन तो बस मुझे कुछ होश ही नहीं था और डॉक्टर ने आपका पता बताने से भी मना कर दिया, क्योंकि आप गोपनीय रखना चाहती थी, आज चेकप के लिए गए, तो बहुत कोशिश करने के बाद आपका पता मिला. हमें वहीँ से पता चला की, आबिद का आज जन्मदिन है. दीपक की माँ ने कहा...
"शबाना जी! आपने, एक माँ की ही झोली नहीं भरी, बल्की जात-पात, धर्म की परवाह ना करते हुए मोहब्बत को तवज़्ज़ो दी.. केवल रक्त -सम्बंध से ही कोई अपना नही होता; प्रेम, सहयोग, विश्वास, सहानुभूति और सम्मान... ये सभी ऐसे भाव है जो परायो को भी अपना बनाते हैं." दीपक की माँ ने शबाना का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.
नहीं ...; एक माँ ही दूसरी माँ का दर्द समझ सकती है. अगर आबिद मेरे लिए शेह्ज़ादा था, तो आपका बेटा भी किसी राजा से कम नहीं. आज उसने आबिद की कमी महसूस नहीं होने दी. आबिद के "दिल की आवाज़" में दीपक के "दिल की धड़कनों" में महसूस कर सकती हूँ. मैंने अपना बेटा खोया नहीं बल्कि एक और बेटा पाया है. शबाना मुस्कराते हुए, एक बार फिर अपने बेटे की दिल की आवाज़ सुनने के लिए दीपक को गले लगा लेती है.
सच में दोस्तों; "जब आप अपने अंग का दान करते हैं, तो आप ज़िंदगी ही नहीं बचाते; बल्कि आप भी उनमें ज़िंदा रहते हैं ..." आपकी क्या राय है? कृपया अपने विचार ज़रूर साँझा करें.
मंजरी शर्मा ✍️