Choti si bat in Hindi Women Focused by प्रीति कर्ण books and stories PDF | छोटी सी बात

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छोटी सी बात

मैं उजाला को गौर से देख रही थी। अपने नाम की तरह शांत और आकर्षक चेहरे वाली वो बेहद खूबसूरत लड़की थी। पिछले सात-आठ महीने पहले उसने मेरे पार्लर में काम पकड़ा था। उसे सिखाने में मुझे मुश्किल से ढाई महीने लगे थे, पर अब वो कुशलता से सब कुछ करने लगी थी। मेरे सारे कस्टमर उससे बहुत खुश रहते थे। वो जब सबसे अपनी मधुर मुस्कान से बात करती, मेकअप करती तो सब उसके सुन्दर चेहरे को देखने लगते थे। अभी वो एक लड़की का फेशियल कर रही थी। उसके हाथ तेजी से कस्टमर के चेहरे पर इधर-उधर फिसल रहे थे।

वो मेरे पार्लर में काम करने के साथ ही अपनी पढ़ाई भी करती थी और घर जाकर दो-तीन टयूशन भी पढाती थी। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और घर की बड़ी संतान होने के कारण सारी जिम्मेदारी उसके कंधे पर आ पड़ी थी।

शाम होने लगी थी। आज महीने की आखिरी तारीख है तो मैने अपने यहाँ काम करने वाली सब लड़कियों को उनकी तनख्वाह देकर विदा करने के बाद, पार्लर बंद करके अपने घर चल पड़ी। उजाला भी ऑटो रिक्शा में बैठकर चल पड़ी।

मैं सुधा, अपने एक बेटे को अकेली इसी ब्यूटी पार्लर के बल पर पाल-पोस रही हूँ। मेरा पार्लर शहर के अच्छे खासे पार्लरों में गिना जाता था। मेरे पति से मेरा तलाक हुए पाँच साल हो गये है। उन्हें मेरा साँवला रंग बहुत बुरा लगता था। वो खुद गोरे-चिट्टे, बहुत हैंडसम थे, इसीलिए मेरा प्यार और बच्चे का मोह भी उन्हें रोक नहीं पाया। मेरे सास-ससुर के स्वर्ग सिधारते ही वो मुझसे तलाक लेकर, अपने मनपसंद लड़की से शादी करके दूसरे शहर बस गये और मुझे एक बेटे के साथ अकेला छोड़ गये। मेरे भी पिता गुजर चुके थे और माँ, भाई के सहारे जी रही थी, इसीलिए भाई ने यह पार्लर खुलवाकर अपने आप को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था।

मैंने जब अकेले जीना शुरू किया तो कदम-कदम पर रोना आता था, पर बेटे का मुँह देखकर मैं अपने आँसू पोंछकर चल पड़ती थी। खैर ये तो हुई मेरी बात। अब मैं संभल गयी हूँ और अपने बेटे के साथ बहुत खुश हूँ।

आज जब उजाला आयी तो बहुत उदास थी। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसने बारहवीं की परीक्षा में अच्छे नबंरो से पास होकर कॉलेज में एडमिशन लिया था। वो एक मुस्लिम फैमिली से थी। उसकी खानदान में ही उसकी शादी की बात चल रही थी। उनलोगों को अब शादी की जल्दी मच गयी थी और वो लोग उसकी माँ से शादी की तारीख निकलवा चुके थे। वो मेरे पास बैठकर खूब रोती रही कि मेरी पढाई अधूरी रह जायेगी, पर वो अपनी माँ को दुखी नहीं कर सकती थी इसीलिए शादी के लिए तैयार हो गयी थी। वो मुझे अपने काम छोड़ने की खबर देने आयी थी। मैने उसे खूब समझाया और उससे कहा कि अगर तुझे कभी भी काम करनी हो तो बेहिचक मेरे पास आ जाना और उसके हाथों पर पाँच हजार रूपये शादी के गिफ्ट के रूप में देकर विदा की। वो जाते समय सबसे गले मिलकर खूब रोई थी। मेरी भी आँख भर आयी, वो मुझे बहनों की तरफ प्यारी हो गयी थी।

समय का काम चलना है। वो किसी के लिए नहीं रूकता है। इसी समय के साथ मैं भी अपनी दुनिया में आगे बढ गयी थी। मेरा बेटा अब चौथी कक्षा में चला गया था और मेरे अकेलेपन का सबसे बड़ा सहारा बनता जा रहा था। कभी मैं बहुत थक जाती तो अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मेरा सर दबाता, धोये कपड़े फैलाने में मदद करता और मुझसे खूब बातें करता था। मैं अपनी छोटी सी दुनिया में बेहद खुश थी।

एक दिन मैं पार्लर में बैठी थी। दोपहर हो चला था तो सब नाश्ता करने में लगी थी, तभी दरवाजा खोलकर वो अंदर आयी थी। मैं उसे देखकर बेहद हैरान हो गयी। वो उजाला थी। खूबसूरत तो वो थी ही पर शादी के बाद तो निगाहें उसपर से हटाना मुश्किल था। वो मेरे गले लग गयी। फिर सबसे मिलने में लग गयी, तभी गाड़ी के हार्न की आवाज बाहर से आयी। वो अपने सर पर हाथ मारती बोली--"दीदी! वो बाहर खड़े है, आपलोगों से मिलना चाहते है, बुला लूँ?"

मैंने, उसे हाँ कहा तो वो बाहर जाकर अपने पति को लेकर आ गयी। दुबला-पतला, साँवला सा पर दिखने में ठीक-ठाक ही था। वो मुझे हाथ जोड़कर नमस्ते कहने लगा। मैने, उनदोनों को बैठाया और बगल के दुकान से समोसे-चाय लाने एक लड़की को भेज दी।

वो दोनों जब जाने लगे तो उजाला ने मुझसे कहा कि वो काम फिर से पकड़ना चाहती है, क्या वो आ सकती है?

उसके जाने के बाद बहुत कस्टमर उसे ढूंढते थे। मैने उससे कहा--"अगर तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है तो जरूर काम पर आ जाओं, तुम्हारा स्वागत है।" वो दोनों चले गये।

उजाला दूसरे दिन से ही काम पर आ गयी थी। वो बहुत खुश थी। उसने बताया कि उसकी सास को लगता था कि कही दूसरे जगह मेरा रिश्ता ना तय हो जाए, इसीलिए वो इतना जल्दी शादी करवा कर उसे अपने घर ले गयी। अहसन बहुत ही अच्छा शौहर था। उसने उजाला की पढाई रूकने नहीं दी और उसे आगे पढने को कहा और काम भी पकड़ लेने को मान गया था। उसकी सास को भी कोई एतराज़ नहीँ था तो, वो मेरे पास फिर से काम पर आ गयी।

उजाला बेहद अहसानमंद थी अपने खुदा की, कि उसे ऐसा नेक और भला शौहर मिला। उसका शौहर बाजार में किसी दुकान पर काम करता था और अपने परिवार का खर्चा अच्छे से चला लेता था। उजाला की खुशी देखकर मुझे भी अच्छा लग रहा था।

आज रविवार है। आज मैं पार्लर बंद ही रखती हूँ । मेरे बेटे को मटन खाने की इच्छा हुई, तो मैं उसे टीवी में लगाकर मार्केट आ गयी। एक मटन की दुकान पर गयी तो वहाँ मैंने अहसन को मीट काटते देखा। उसके कपड़ों पर जगह-जगह खून के दाग लगे थे। वो मुझे देखकर पहले तो चौंका, फिर नमस्ते करके मटन पैक करके दे दिया। उसने मुझसे आग्रह किया कि मैं उजाला को उसके बूचड़खाना चलाने की बात ना बताऊँ। मैने सहमति में सर हिला दिया था।

खाना पीना होने के बाद मैं बेड पर लेटी उजाला और उसके पति के बारे मे ही सोचे जा रही थी कि क्या उजाला से अहसन झूठ बोलता है या फिर उजाला ने ही मुझसे झूठ बोला था? अहसन ने मुझे मना क्यों किया उजाला को बताने से? यहीं सब सोचते-सोचते मैं देर रात जाकर सोयी थी।

उस दिन उजाला किसी कस्टमर में लगी थी। आज बस मैं और उजाला ही थे, बाकी चारों लड़कियां छुट्टी ली हुयीं थीं। पार्लर के बाहर हार्न की आवाज आ रही थी। मैं बाहर निकल आयी। सामने अहसन खड़ा था। मुझे नमस्ते करके अपनी गाड़ी की डिक्की से सफेद कपड़े में लिपटा किताबों का बंडल निकाल कर थमाते हुए उजाला को देने कहा। मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठी--"अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहनी थी।"

"हाँ पूछिए दीदी!" वो भी उजाला की तरह मुझे दीदी बोलने लगा था।

"एक तरफ तो आप बूचड़खाना चलाते है और फिर ये किताबों को सफेद कपड़ों में लपेट कर क्यों लाए है? आपने उजाला से अपनी सच्चाई क्यों छुपाई है?" मैंने साफ शब्दों में पूछा था।

"दीदी! उजाला को मैं बचपन से पसंद करता हूँ। ये बूचड़खाने का काम मैंने मजबूरी में करना शुरू किया था। मेरा पढाई में दिल नहीं लगता था तो मैं बस आठवी तक ही पढ पाया, इसीलिए मुझे कोई नौकरी नहीं मिल पायी। उजाला को पाने की खातिर मैंने घर में किसी को अपने काम के बारे में नहीं बताया था। वो जितनी खूबसूरत है, उसका मैं एक हिस्सा भी नहीं हूँ, फिर भी मैंने हमेंशा उसी के सपने देखे थे। मेरी अम्मी, मेरी हमराज थी तो वो उजाला के बारहवीं करते ही उसकी माँ से मेरा रिश्ता तय करवाने मे लग गयी थी। दीदी! उजाला का मिलना मेरे लिए अनमोल खजाना जैसा है। मैने जरूर मोती दान किये होंगे, तभी तो वो मुझे मिली है। उसकी खुशी की खातिर मै कुछ भी कर सकता हूँ। उसकी पढने की ललक देखकर, मैंने उसे पढाना शुरू किया और आपके पास काम पर भी भेजना शुरू किया, ताकि वो खुश रहें। वो नहीं जानती है कि मैं बूचड़खाने में काम करता हूँ, मीट काटता हूँ। मैने, आपसे इसीलिए मना किया था कि वो ये जानकर कही मुझसे नफरत ना करने लगे। मैं तो ज्यादा पढा-लिखा भी नहीं हूँ, उसके साथ बिलकुल नहीं जँचता हूँ, ऊपर से पशुवध की बात सुनकर वो मुझे छोड़ ना दे, बस इसी कारण मैं उससे छुपाता हूँ, दीदी।" कहकर वो चुप हो चुका था। उसके चेहरे पर सच्चाई की रौशनी फैली थी, मुझे खुशी हुई कि उजाला को इतना नेक इन्सान जीवनसाथी के रूप में मिला है।

"आपसे मैं कभी नफरत नहीं कर सकती, अहसन! आपने मेरे सपने पूरे किए, मेरे भाई को शहर के अच्छे स्कूल में पढाना शुरू करवाया और मेरी माँ को इतनी इज्जत देते है, मैं तो आपसे चाहकर भी नफरत नहीं कर सकती।" मुझे देर हो चुकी थी तो उजाला मुझे ढूंढते बाहर आ गयी थी और हमारी बातें सुनकर बोल रही थी--"आप कोई भी काम करे पर वो इमानदारी का हो, मुझे कोई एतराज नहीं है। आप मेरी जिंदगी के हीरो है। मेरी आपसे शादी हुयी है, आप मेरे शौहर है, भला मैं आपको कैसे छोड़ दूंगी?" वो हँसते हुए बोली। उसके मोती जैसे सफेद दाँत चमक उठे थे। अहसन उसकी ओर प्यार से देखने लगा था। मैने किताबों का बंडल उजाला हाथों में थमा दिया--"लो, अहसन ये तुम्हारे लिए किताबे लेकर आया था।" और आगे बढ़कर दोनों के सर पर हाथ फेरकर मुस्कुराती अंदर चल पड़ी।

वो कुछ देर बाद आयी थी, तबतक मैं बैठी सोचती रहीं थी--"अगर कम पढे-लिखे लोग अपनी पत्नी की दिल बात समझ जाते हैं तो ज्यादा शिक्षित, कल्चर्ड, वेल मैनर्स वाले लोगों को इतना एतराज क्यों हो जाता है? क्यों वो सामने वाले का बस रूप-रंग देखते है? उसका व्यवहार, उसकी नीयत और उसकी अच्छाई, उसका प्रेम क्यों नहीं? मेरे पति को मेरी अच्छाइयाँ कभी क्यों नजर नहीं आयी???..........."

समाप्त