कहानी- हमसाया
कुछ ही दिन हुए थे उस नए शहर में मुझे नौकरी ज्वाइन किये। हर दिन लगभग पांच-छः बजे मैं अपने ठिकाने यानि वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल पहुँच जाती थी। उस दिन कुछ जरुरी काम निपटाते मुझे देर हो गयी। माँ की सीख याद आई कि रात के वक़्त रिज़र्व ऑटो में अकेले न जाना, सो शेयर्ड ऑटो ले मैं हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। वह मुझे सड़क पर उतार आगे बढ़ गया, रात घिर आई थी, कोई नौ -साढ़े नौ होने को था। पक्की सड़क से हमारा हॉस्टल कोई आधा किलोमीटर अंदर गली में था।
अचानक गली के सूनेपन का दैत्य अपने पंजे गड़ाने लगा मानस पर। इक्के दुक्के लैंप पोस्ट नज़र आ रहें थें पर उनकी रौशनी मानो बीरबल की खिचड़ी ही पका रहीं थी। सामने पान वाले की गुमटी पर अलबत्ता कुछ रौशनी जरुर थी पर वहां कुछ लड़कों की मौजूदगी सिहरा रही थी जो जोर जोर से हंसते हुए माहौल को डरावना ही बना रहे थें। मैं सड़क पर गुमटी के विपरीत दिशा से नज़रें झुका जल्दी जल्दी पार होने लगी,
“काश मैं अदृश्य हो जाऊं, कोई मुझे न देख पाए”,
कुछ ऐसे ही ख्याल मुझे आ रहें थें कि उनके समवेत ठहाकों ने मेरे होश उड़ा दिए। अचानक मैं मुड़ी तो देखा कि एक साया बिलकुल मेरे पीछे ही है। लम्बें -चौड़े डील डौल वाले उस शख्स को अपने इतने पास देख मेरे होश फाक्ता हो गएँ। घबरा कर मैंने पर्स को सीने से चिपका लिया और दौड़ने लगी। अब वह भी लम्बें डग भरता मेरे समांतर चलने लगा। अनिष्ट की आशंका से मन पानी-पानी होने लगा।
“छोरियों को क्या जरुरत बाहर जा कर दूसरे शहर में नौकरी करने की”, दादी की चेतावनी अब याद आ रही थी।
“दादी, सारी लडकियां आज कल पढ़-लिख कर पहले कुछ काम करतीं हैं तभी शादी करती हैं...”, इस दंभ की हवा निकल रही थी।
तभी एक कार बिलकुल मेरे पास आ कर धीमी हो गयी, जिसमें तेज म्यूजिक बज रहा था. दो लड़के शीशा नीचे कर कुछ अश्लील आमंत्रण से मेरे कान में पिघला शीशा डाल ही रहें थें कि उस हमसाये ने टार्च की रौशनी उनके चेहरे पर टिका दिया। शीशा ऊपर कर कार आगे बढ़ गयी। वह अब भी मेरे पीछे था, उसके टार्च की रौशनी मुझे राह दिखा रही थी पर उसके इरादे को सोच मैं पत्ते की तरह कांप रही थी।
“क्या देख रहा वह पीछे से रौशनी मार मुझ पर, शायद कार वाले इसके साथी होंगे और लौट कर आ ही रहे होगें ?”,
मैं अनिष्ट का अनुमान लगा ही रही थी कि तभी माँ का फ़ोन आ गया।
“माँ, मैं बस पहुँचने वाली हूँ हॉस्टल, मुझे अब रौशनी दिखने लगी है....”, एक तरह से खुद को ही ढाढ़स बढाती मैं माँ से बातें करती कैंपस में प्रवेश कर गयी। तेजी से हाँफते मैं पहली मंजिल पर अपने रूम की तरफ दौड़ी। लगभग अर्ध बेहोशी हालत में बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी रूम मेट ने मुझे पानी पिलाया और एक साँस में मैं उस हमसाये की बात बता गयी जो मेरा पीछा करते गेट तक आ गया था. अब चौंकने की बारी मेरी थी,
“लगभग तीन महीने पहले इसी वर्किंग हॉस्टल के बगल घर में रजनी रहती थी। एक रात वह लौटी नहीं, अगले दिन सुबह गली की नुक्कड़ पर उसका क्षत-विक्षत लाश पाई गयी थी। ये उसके ही भाई हैं जो तब से हर रात गली में आने वाली हर अकेली लड़की को उसके ठिकाने तक पहुंचाते हैं”, सुनीला बोल रही थी और मैं रो रही थी. उठ कर खिड़की से देखा मेरा वह भला हमसाया दूर गली के अंधियारे में पीठ किये गुम हुए जा रहा था शायद किसी और लड़की को उसके ठिकाने तक सुरक्षित पहुँचाने.
- रीता गुप्ता