कहानी
नीला आसमान खो गया. .
बलदेव राज भारतीय
(1)
"क्या तुम पिछले वर्ष गर्मियों के पश्चात पहली बौछार को भूल सकती हो?" चातक ने अपनी चातकी से पूछा।
"कैसे भूल सकती हूँ? भयंकर गर्मी के पश्चात प्यास से व्याकुल हो समस्त चातक समुदाय घनश्याम की बाट जोह रहा था। हमारा पुत्र हमारे कठोर व्रत का पालन करने में ईश्वर से शीघ्र वर्षा की प्रार्थना कर रहा था। काले काले बादल उमड़-घुमड़ कर आते और बिन बरसे ही चले जाते। हमारा अबोध बच्चा अपने कमजोर कोमल पंखों से इन काले काले बादलों का पीछा करता। परंतु निर्मोही बादल बरसने का नाम न लेते। हमने कैसे उसे अनंतकाल से चले आ रहे अपने व्रत की कथाएँ सुना- सुनाकर किसी अन्य जगह का जल ग्रहण करने से रोके रखा था।" चातकी गत वर्ष की स्मृतियों में खो सी गयी।
" हाँ, और एक दिन. . . जब काले काले घन भयंकर गड़गडा़हट के साथ उमड़कर आये तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उनकी भयंकर गड़गडा़हट भी उसके कानों को स्वरलहरियों का सा भान दे रही थी। वह मेघों के अमृतमयी रस का पान करने के लिये कैसे उतावला हो रहा था।" चातक ने भी अपने मानसपटल पर अंकित चित्रों को सहेजते हुए कहा।
" हाँ, तुमने उसे रोका भी था। क्योंकि वर्षा का जल अब पहले की भांति अमृत नहीं रह पाता- विशेषकर पहली-पहली बौछार का जल। मनुष्य के किये गये गलत कर्मों का भुगतान हमें ऐसा करना पडे़गा -यह तो हमने सोचा भी न था।" चातकी की आँख से अश्रु झर पडे़।
" मत दिलाओ याद वह दिन! पहली बौछार की वे बूँदें तेजा़ब से कम नहीं थी। दो दिन तक तड़पता रहा था हमारा बच्चा। कैसे छटपटाकर प्राण त्यागे थे उसने!" पंख फड़फड़ाते हुए चातक विह्वल हो उठा।
"उन माँ-बाप की पीडा़ का अनुमान लगाना कितना मुश्किल होता है, जिनके सामने उनका बच्चा तड़प-तड़प कर प्राण त्याग रहा हो और वे उसके लिये कुछ भी न कर सकते हों. . . कैसे खून के आंसू रोये थे हम!" चातकी तड़प उठी।
जंगल में खिल रहे टेसू के फूल ग्रीष्म ऋतु के आगमन की सूचना दे रहे थे। दूर दूर तक ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी ने धरती पर अंगारे बिछा दिये हों। चातक दंपत्ति अपनी कोटर में बैठे हुए अपने बीते हुए साल की स्मृतियों में खोये थे। वही बीता हुआ साल - जिसने उन्हें कभी न भूलने वाला दुख दे दिया। ग्रीष्म ऋतु अब उन्हें किसी सजा से कम नहीं लगती। उन्हें अपनी चातक प्रजाति का अस्तित्व संकट में दिखाई दे रहा था। चातक केवल वर्षा का पानी पीता है-वह भी स्वाति नक्षत्र का। क्योंकि वर्षा का जल सबसे शुद्ध माना जाता था। परंतु अब वह जल मनुष्य के कारनामों की वजह से सबसे शुद्ध नहीं रह गया था। अब तो पहली बारिश के समय कोटर में ही छुपकर बैठना पड़ता है। कौन जाने आकाश में व्याप्त प्रदूषण तेजा़ब बनकर उनको पंखविहीन ही न कर डाले या कोई उस जल को ग्रहण करे और चातक-पुत्र की भांति तड़प तड़प कर मर जाये।
चातक दंपत्ति प्रति सुबह अपने कोटर से निकलते और अलग अलग दिशा की ओर उड़ान भरते। दिन भर के भ्रमण के पश्चात शाम को अपने कोटर में लौट आते। उस दिन इतनी अधिक गर्मी भी नहीं थी, परंतु दोनों दोपहर से पूर्व ही अपने कोटर में लौट आये।
" तुम आज जल्दी लौट आयी. . ? "
"हाँ, तुम भी तो जल्दी लौट आये, क्यों?"
" जिधर देखो-उधर सुनसान था। न सड़कों पर मोटरगाडि़याँ रेंग रही थी न बडे़ बड़े कारखानों में घर्र-घर्र करती मशीनें। बाजार बंद थे, लोग अपने घरों से बाहर कदम नहीं रख रहे थे। मुझे लगा कि कुछ न कुछ अनिष्ट होने वाला है। इस भय से मैं जल्दी लौट आया।"
" हाँ, जिस ओर मैं गयी थी- उस ओर भी यही हाल था। आज सच में समस्त वातावरण में भय व्याप्त था।"
"अच्छा, तुम यहीं रुको। मैं भनक लेकर आता हूँ कि वातावरण में इतनी खामोशी क्यों? "
"तुम अकेले नहीं . . . . . . . मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी।"
"ठीक है. . . . . आ जाओ फिर।" कहकर चातक दंपत्ति ने निकटवर्ती गाँव की ओर उड़ान भरी।
(2)
एक चौपाल के आंगन में खड़े एक नीम के वृक्ष पर दोनों पक्षी जा बैठे। चौपाल - जहाँ अकसर हुक्के के साथ दुनिया भर की खबरों पर चर्चा होती थी, आज सुनसान पडी़ थी। लोग अपने घरों में बंद थे। हाँ अपने अपने आंगन में कुछेक स्त्री-पुरुष आवश्यक घरेलू कार्य कर रहे थे।
"लगता है हमें किसी के घर की मुंडेर पर बैठकर जानकारी लेनी होगी।" चातकी बोली।
"हाँ, चलो वहाँ चलते हैं।" दोनों नीम के वृक्ष से उड़कर सुखराम के घर की मुंडेर पर बैठ गये।
सुखराम अपने पशुओं के बाडे़ में पशुओं के लिए चारे में दाने की सानी कर रहा था। उसकी स्त्री सरोज अपने बेटे वैदिक को डांटते हुए बोली, " पेपर चल रेय तेरे. . . अर तू खेल का दादा बणया होया । जो कुछ टैम मिलया तन्नै उसका फैयदा ठायले अर अपणी त्यारी ठीक तरयां कर ले। तब ई तो अच्छे नंबरां ते पास होवैगा।"
"पेपर तो कैंसल होय लिये मम्मी। इब त्यारी का क्या फैयदा? . . . . अर जो होय बी गये तो डेटशीट तो दुबारा आवैगी। अर जिब डेटशीट आवैगी - तब देखया जावैगा।" वैदिक मोबाइल गेम खेलते-खेलते बोला।
"इब नी तो कदै तो होंवैगे। तू तो अपणी त्यारी रख। गेम खेलदे खेलदे जो दिमाग म्हं थोड़ा बहोत है-वा बी कती साफ होय जैगा।" सरोज ने उसके हाथों से मोबाइल छीनते हुए कहा।
तभी पाँच युवकों ने घर के आंगन में प्रवेश किया। इन सबके मुँह और नाक मास्क से ढके हुए थे। इनमें से एक युवक ने घर के दरवाजों और खिड़कियों आदि पर सेनिटाइज़र का छिड़काव किया। इन्हीं में से एक युवक ने घर के सभी सदस्यों को समझाते हुए कहा, " सारी दुनिया म्हं करोना ते मरण वाल्यां की गिणती रोज़ बढ़दी जै री अर करोना का दुनिया म्हं कहीं बी कोई इलाज नी। इब तक दुनिया के बड़े बड़े देशां म्हं बी इस बीमारी की कोई दवा नी बणी । यो ऐसा वायरस आ जो छूणे ते ई नी दो गज़ दूर ते बी माणस ने पकड़ लेआ। इस खात्तर इस बीमारी ते बचण का सबते सौखा तरीका - ना तो किसी ते छुओ अर ना घर ते बाहर निकलो। सबते दो गज़ की दूरी बणाय का रखो। इटली, फ्रांस अर अमरीका जैसे बडै़-बडै़ देशां म्हं हर रोज़ दो हजार ते ज्यादां लोग इस बीमारी कारण अपणी जान ते हाथ धोयरे आं।"
"इसते म्हारै डंगरा-बछुआं ने तो कोई खतरा नी?" सुखराम ने अपने पशुओं की चिंता करते हुए पूछा।
"इब तक तो ऐसी कोई खबर नी बी यो कहीं डंगरा या पंछियां म्हं फैलया ओ। यो तो ऐसी बीमारी है जो बस माणसां म्हं ही फैलदी जायरी आ।" दूसरा युवक बोला।
"मन्नै तो यो सुणया अक पडौ़सी देश चीन ने इसका वायरस अपणी लैब म्हं अपणे ई देश के गरीब लोकां ते मारण खात्तर बणाया।" तीसरे युवक ने इंटरनेट से प्राप्त जानकारी को सांझा करते हुए कहा।
"हाँ, मन्नै सुणया अक उसने इस वायरस ने अपणे दुश्मन देशां म्हं फलाण की स्कीम बणायी आ। ताकि उन देशां की अर्थव्यवस्था ठप होजै अर उन सबनै मदद खात्तर चीन की तरफ देखणा पडै़।" चौथे युवक ने तीसरे युवक की बात को आगे बढा़ते हुए कहा।
" जिस तरयां रोज़ मरण वालयां की गिणती बढ़दी जायरी आ तो इस धरती ते माणस की जाति तो जल्दी ही खतम हो जावैगी।" सुखराम ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।
" होय बी सकै. . . . पर म्हारे वैज्ञानिक अर डाकटर कुछ ना कुछ तो जरूर करैंगे। यूं ही हाथ पै हाथ धर के तो बैठांगे नी।" उनमें से एक युवक ने कहा।
"इस टैम तो यो सारी धरती प्रयोगशाला बणगी आ। डाकटर तरह तरह की दवाइयां का इस्तेमाल मरीजां पा करण लाग रै आं।" दूसरे ने पहले वाले की बात को आगे बढ़ाया।
"तो क्या कोई मरीज ठीक बी होया . . . ?" सुखराम की पत्नी सरोज ने भी जिज्ञासा प्रकट की।
"तू चुप रह भागवान्! जिस बीमारी का कोई इलाज ई नी तो किस तरयां ठीक हो जैगा कोई? जिब देखो तब बुड़बुड़ करदी रहया कर। लाख बेर समझाया अक जिब चार मर्द आपस म्हं बात करण लागरे ओं तो बीच म्हं अपणी टांग नी अडा़णी चइये। पर मजा़ल आ जै खोपडी़ म्हं यो बात घुसजै।"
" भाबी ठीक ई तो कैह री आ भाई साब। बहोत से मरीज ठीक होयका घर बी आयगे।" तीसरा युवक बोला।
" कमाल है भई थारा बी! एक तो यो कहरै ओ अक इस बीमारी का कोई इलाज़ नी, दूसरे यो बी कैहरे ओ अक बहोत से मरीज़ ठीक बी होयगे। यो दोनों बातां एक साथ किस तरां सच होय सकां ? " सुखराम ने आश्चर्य जताते हुए कहा।
" पर भाई है यो बात बी सच। कोई दवा ना होंदे होये बी बहोत से मरीज़ ठीक होयका घर वापस आयगे।" पहले वाले युवक ने कहा।
"फेर क्या डर आ करोना का?" सुखराम ने निश्चिंत होते हुए कहा।
"डरणा नी भाई. . . . सिर्फ सावधानी बरतणी आ। किसी ते हाथ नी मिलाणा, दो गज दूर ते ई बात करणी, किसी भी चीज़ तै बिना जरूरत के नी छूणा।"
"ठीक आ भई! पर यो तो बताय देयो अक इन बच्चयां के स्कूल कद नै खुलैंगे? इन सबनै तो चार दिनां म्हं ई नाक म्हं दम कर दिया। सारा दिन आपस म्हं लडा़ंगे या मोबाइल म्हं गेम खेलांगे।" सुखराम बच्चों के विषय में चिंतित होते हुए बोला।
"बच्चयां के स्कूल तो जिब खुलांगे-तब खुलांगे, इबी तो सारे काम-धंधे अर कारखाने भी बंद होयगे - इक्कीस दिन खात्तर। किसी को ना बाहर जाणा अर ना घर म्हं बुलाणा। लाॅकडाउन आ लाॅकडाउन पूरी तरां लाॅकडाउन।"
"इसका मतलब तो यो होया अक सब घर म्हं ई नज़रबंद होयगे।" सुखराम ने कहा।
" बिलकुल ऐसा ई समझ लयो।" युवक ने उत्तर दिया।
" अरी भागवान्! इन खात्तर चाय तो ले आ।" सुखराम ने सरोज की ओर संकेत करते हुए कहा।
" नहीं भाई साहब! इब तो ना किसी के घर खाणा ना पीणा। ना किसी के घर जाणा ना किसी ते घर बुलाणा। बार-बार साबण गैल हाथ धोणे अर किसी चीज ते छूणे ते पहल्यां सेनिटाइज करणा नी भूलणा। . . . सावधानी ई बचाव आ ।" दूसरे युवक ने चलते हुए सुखराम से कहा।
"अजीब बीमारी है यार! सारे रिश्ते-नातेयां ने खतम करण लागरी आ।" सुखराम अपने मुँह में ही बुदबुदाया।
पाँचो युवक एक बोतल सेनिटाइजर और घर के सदस्यों की संख्या पूछकर मास्क देकर दूसरे घर की ओर आगे बढ़ गये।
"पापा! पापा! . . . . मन्नै कल टीवी पर देखया था कि जो लोग करोना ते मरैं हैं, उनकी बाॅडी उनके घरवालेयां ते बी नी दें दे। दो-चार डाक्टरां की टीम ई उनका अंतिम संस्कार कर दे आ।" सुखराम की बेटी वंदना बोली।
"बहोत बुरी बीमारी बतावैं इसनै। यो कहवैं अक मरणे पर अपणे घरवालेयां के हाथ की लकड़ी बी ना मिलै मरण वालयां ते।" सरोज बोली।
"थम सब ज्यादा ध्यान ना देयो इसपै। सावधानी बरतो अर घर पै मस्त रहयो। कुछ नी होयगा किसी ते। मस्त रहो अर स्वस्थ रहो।" कहकर सुखराम दरांती उठाकर खेतों में घास के लिए चला गया।
चातक दंपत्ति, जिन्होंने यहाँ हुए वार्तालाप को ध्यानपूर्वक सुना, ने भी अपनी कोटर की ओर उड़ान भरी।
(3)
कोटर में पहुँच चातकी चातक से बोली, "यह बीमारी मनुष्यों में ही है, पशु-पक्षियों में नहीं? इसका कोई न कोई तो कारण रहा होगा।"
"मनुष्य स्वयं को समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ कहता है। मगर है यह सबसे अधम। इसको ईश्वर ने सोचने समझने की अद्भुत शक्ति दी है। परंतु वह हमेशा उलटी दिशा में ही सोचता है। इस शक्ति के दंभ में वह पृथ्वी तक को मिटाने पर तुला है। ईश्वर इसे सद्बुद्धि दे।" चातक ने अपने मन के उद्गार चातकी के समक्ष रखे।
"तुम्हारे कहने का अर्थ है कि मनुष्य ही इसके लिए जिम्मेदार है। मगर कैसे?"
"मनुष्य ने हरे-भरे वनों को काटकर बस्तियाँ बसा ली।"
"लेकिन उसे रहने के लिए घर भी तो चाहिए।"
"क्यों. . . ? क्या किसी पशु-पक्षी ने वनों को नुकसान पहुँचाकर अपना आश्रय बनाया? नहीं न, तो फिर मनुष्य भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किये बिना अपना घर क्यों नहीं बना सकता? "
" तुम्हारी इस बात में दम तो लगता है मगर. . . !"
" मगर. . . ?"
" मगर वह अपना जीवनयापन कैसे करता? वह खाने के लिए अनाज कैसे उगाता, नए नए बीज कहां से और कैसे लाता?"
" हाँ, यह तो मैंने भी नहीं सोचा था। मगर जैसे हर पशु-पक्षी अपना जीवनयापन कर लेता है, वैसे ही मनुष्य भी कर सकता था। परंतु उसे तो संग्रह करने की बुरी लत लग चुकी है। वह तो कईं कईं पीढ़ियों के लिए इकट्ठा करते हुए अपने वर्तमान की बलि चढ़ा देता है।" चातक ने कहा।
" हां तुम्हारी बात सही है. . . । ये बड़े-बड़े कंक्रीट के महल, ये धरती का सीना दहलाती घर्र-घर्र करती मशीनें, यह दरकते पहाड़- यह सब प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?" चातकी ने चातक के सुर में सुर मिलाया।
" सृष्टिकर्ता ने धरती बनायी, आकाश बनाया, स्वच्छ हवा मिले- पेड़, झीलें, झरने इत्यादि बनाये। फल बनाये, फूल बनाये अन्न उगाया, ताकि कोई भूखा ना रह सके। मगर मानव ने धरती, आकाश, नदियाँ-नाले पर्वत सागर सभी को बांट दिया। हवा और जल का भी व्यापार करने लगा- यह दो पैर वाला जंतु! इसकी भूख कभी शांत नहीं होती। यह जीवन रूपी मृग मरीचिका में मृग की तरह ही तृष्णा-ग्रस्त रहता है और अपने प्राण त्याग देता है।"
" सुना है इसने ऐसे-ऐसे अस्त्र-शस्त्र बना लिए हैं, जिससे यह संपूर्ण धरती को कईं बार नष्ट कर सकता है।"
"एक बार ऐसी धरती बनाकर तो दिखाए. . . फिर नाम ले इसे नष्ट करने का. . . दंभी मानव!"
"ऐसी धरती बनाना तो दूर. . . ऐसे ही किसी चाँद सितारे पर दुनिया बसाकर दिखा दे. . .!"
" इसके वश में कुछ नहीं. . . कुछ नहीं। यह विनाश ही कर सकता है निर्माण नहीं।"
"दुनिया में इससे गंदा प्राणी कोई और नहीं। इसकी फैलाई गंदगी से ही आसमान का नीला रंग कहीं खो गया है। इसके लगाये कल-कारखानों ने हवाओं में जहर भर दिया है। यह अपने आपको सभ्य कहता है, मगर इससे असभ्य जीव इस धरती पर दूसरा कोई नहीं है।"
"यह वही है. . . . जो हमारे पुत्र की असमय मृत्यु का कारण बना। इसी के कारण चातक प्रजाति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। तुम सही कहती हो. . . आसमान अब पहले जैसा नीला नहीं रहा। विषैली गैसों ने इसे मटमैला और भद्दा कर दिया है।"
"यह कोरोना महामारी भी उसकी अपनी ही करनी का फल है। उसे ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए। जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदेगा वह स्वयं ही उस गड्ढे में गिरेगा।"
उधर समाचारपत्रों में आंकड़े निरंतर बढ़ते जा रहे थे। बढ़ते आंकड़ों के साथ लाॅकडाउन भी बढ़ता जा रहा था। आसमान का नीला रंग धीरे धीरे वापस आ रहा था। हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ अब दूर से ही नज़र आने लगी थी। मगर. . . यह सब एक बहुत बड़ी कीमत पर संभव हो रहा था- सब कुछ थम जाने की कीमत पर। लेकिन भूख थम सकती है क्या. . ? लाॅकडाउन से अनलाॅक की ओर कदम रखते ही एक बार फिर से नीला आसमान कहीं खो सा गया।
*************************************
बलदेव राज भारतीय
असगरपुर (यमुनानगर)
पिन 133204
मोबाइल : 8901006901