yahan kuchh log the-rajendr lahariya in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | यहां कुछ लोग थे- राजेन्द्र लहरिया

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यहां कुछ लोग थे- राजेन्द्र लहरिया

समीक्षा कहानीसंग्रह: यहां कुछ लोग थे- राजेन्द्र लहरिया

.....भारतीय समाज की कथा

सामान्यतः हिन्दी का पाठक यह जानता है कि लम्बी कहानी हिन्दी की अपनी निजी खोज है क्योंकि गद्य की फिक्शन विधाओं में पष्चिम देशों में या तो नावेल (उपन्यास) है, या फिर शार्ट स्टोरी (छोटी स्टोरी) वहां लम्बी कहानी जैसी मध्य की कोई आख्यान परख विधा मौजूद नहीं है। जबकि लम्बी कहानी भी पष्चिम की परम्परा से ही हिन्दी में आई है। लम्बी कहानी की अपनी कुछ निजी खासियतें होती हैं जो उसे उपन्यास जैसे बडे़ फलक का और कहानी जैसा सधा हुआ बनाती है। हिन्दी की कुछ पत्रिकाऐं अपने हर अंक में एक लम्बी कहानी भी छापती हैं, इस कारण कहानी के इस चेहरे को लोग खूब पहचानने लगे है। बडे़ शौक और शिद्द्त से पाठक लम्बी कहानी पढ़ते है। हिन्दी के लगभग सभी सक्रिय लेखकों ने लम्बी कहानियां लिखी हैं, जिनमें अखिलेश, उदय प्रकाश, प्रियवंद, प्रभा खेतान, शिवमूर्ति, ए. असफल राजेन्द्र लहरिया, शैलेन्द्र सागर जैसे कल्पनाशील लागों के नाम शामिल है। राजेन्द्र लहरिया की कुछ लम्बी कहानियां बड़ी चर्चित हुई थी, कोई उन्हें लेखक के लम्बे होमवर्क का परिणाम मानता था, तो कोई सर्वथा नया क्षितिज छू लेने वाली रचनायें, जबकि कुछ लोग लहरिया पर किसी दूसरे बड़े लेखकों का प्रभाव देखते थे। लहरिया की छह कहानियों का एक संग्रह ‘यहां कुछ लोग थे’ नाम से पिछले दिनों मेधा बुक्स ने प्रकाशित किया, जो कि सिर्फ लम्बी कहानियों के संग्रह के रूप् में एक नया कदम था।

संग्रह की पहली कहानी ‘दीक्षांत’ सरयूकांत शर्मा नाम के भोले व समर्पित व्यक्ति के सर्वोत्थान सेवा संघ में दीक्षित होने और मोहभंग होने पर दीक्षा देने वाले गजानन भाई की हत्या कर देने की कथा है। कथा यह है कि उमर कैद की सजा काट रहा सरजू उर्फ सरयू कांत शर्मा को तब अपना विगत याद आता है, तब सरकार द्वारा उनकी सजा की अवधि में कमी करते हुये पन्द्रह अगस्त को उन्हें रिहा करने की तैयारी की जा रही है। यह कहानी भारत में प्रचलित समाज सेवा और राजनीति के तमाम द्वंद्व उठाती है। भारतवर्ष में जाति का अस्तित्व कभी नहीं मिटेगा यह वाक्य अरसे पहले जब सरजू अपने उन आदर्श पुरूष के मुंह से सुनता है, जिन्हें वह पक्के गांधी वादी और देवसदृष्य मानता था तो वह अति रोस में भरकर उनकी हत्या कर देता है। दरअसल सरजू ने सर्वोत्थान आंदोलन से प्रभावित होकर अपना अहंकार छोड़ कर दलितों के बीच पहंचकर उनके विकास के काम करना शुरू किया हैं, जिनको दलित वर्ग गहराई से नहीं लेता हैं जबकि सवर्ण उन्हें धोखेबाज, विष्वासघाती के रूप् में देख रहे हैं। इस आख्यान का रोचक पक्ष यह है कि सरजू को जिन-जिन पर भरोसा था, एक-एक कर वे सब उसका भरोसा तोड़ते है जिनमें उसका मित्र पत्रकार रघुनन्दन का नाम भी शामिल है। जिनसे दुनिया की सूरत बदलने की सरजू ने आशा बांध रखी थी। इस तरह लेखक ने चौथी सत्ता और गैर सरकारी संगठनों में काम कर रहे है लोगों को कटघरे में खड़ा किया है। सरजू के पत्र को दृष्य करते लेखक ने लिखा है, ‘इस बीच मैने पांच बच्चे पैदा किए है। इस दौरान में तुमने कितनी तरक्की कि है? लिखना , बच्चे पैदा करना तरक्की और बिस्तर को मैदान लिखना, लेखक की नई और असरदार भाषा शैली का नमूना है।’

दूसरी कहानी ‘यहां कुछ लोग थे ’ पुस्तक की शीर्षक कथा है जो एक गाईड़ द्वारा लेखक को गॉंव के मठ में प्राचीन मूर्तियां दिखाते समय मूर्तियों के हाव-भाव पकड़ते हुए कथा जोड़कर कही जाने के अंदाज में लिखी गयी है। कथा यह है कि एक गॉंव में एक महात्मा का ऐसा प्रभाव था कि हर छोटी जी बात पर भी उनसे परामर्श लेने लोग इकट्ठा हो जाते थे। जब लम्बे समय तक बरसात नहीं होती और लोग उनके आश्रम में इकट्ठे होते हैं तब गॉंव में भागवत कथा का आयोजन कराने का प्रस्ताव महंत त्यागी तब रखते हैं । वहां के मुख्य यजमान तय करने के लिए सबसे बड़े दानदाता को चुने जाने का का निर्णय सुनकर, तमाम इच्छुक लोग बड़ी राशि के निर्धारण हेतु अपनी अपनी दानराशि नीलामी की तरह बढ़ाते जाते है कि इस बीच उसी गॉंव का दलित व्यक्ति निहालिया मैम्बर सबसे ऊंची दानराशि बोल देता है कि जिससे न केवल महात्मा जी वरन् पूरा गॉंव सकते में आ जाता है, अंततः निहालिया को यजमान यानि पारीशित न बना कर उनकी तरफ से रामेष्वर भाटी को पारीक्षत बनाया जाता हैं, उधर दलित लोग अपनी अलग कथा बैठाते हैं जिसमें पहले ही दिन खून खराबा हो जाता है और पांच आदमी मौत के घाट उतर जाते है। जो कि बाबा जी अपने इस कथन का प्रमाण बताते है कि दलित यानि शम्बूक द्वारा तपस्या करने के कारण ब्राम्हण का बेटा मर गया था, इस का तात्पर्य यह कि दलितों द्वारा कोई भी धर्माचार करना सवर्णों के लिये भला नहीं है। बल्कि बुरा होने का संकेत है। गॉंव के विचारशील अध्यापक सुभाषचंद्र लम्बे समय से गॉंव और बाबा की हरकत पर नजर रखे हुये थे। खून खराबे से क्षुब्ध होकर सुभाषचंद्र आपा खो बैठते हैं और आदमखोर बाबा की गर्दन टीप देते हैं कि जिसके परिणाम में उन्हें भी अपनी जान गंवाना पड़ती है। इस कहानी में भागवतकथा को पुरूषवाचक लिखना जैसे कुछ शब्द अखरते हैं, लेखक ने लिखा है कि भागवत बंच रहा है, जबकि लोक समाज में कहां जाता है कि भागवत बंच रही है।

तीसरी कहानी ‘एक इतिहास विरूद्व समर’ का मूलतत्व भारतीय समाज और राजनीति में आरंभ से ही हासिल पर पड़ी चीजों और जातियों के केन्द्र में आ जाने के फलस्वरूप पैदा होने वाली जद्दोजहद हैं । नरेन्द्र नामक जाग्रह आधुनिक युवक जब अन्र्तर्जातीय विवाह करके गॉंव आता है तो उसको तारीफ व आलोचना की प्रतिक्रिया मिली जुली मिलती है। मास्टर सोभाराम गॉंव के निवासी होने के बावजूद भारतीय समाज की विसंगतियां और राजनैतिज्ञों की दुर्भावनाओं से परिचित है। उनका साला एक जातिवादी पार्टी का कार्यकर्ता है, इसलिए सोभा अपनी बच्ची को उसके घर नहीं रखता चाहतें। सोभा और नरेंद्र दोनों की खूब पटती है। जाति आधारित एक राजनैतिक दल के बारे में नरेन्द्र से शोभाराम कहते हैं, यहां जाति एक कुंआ है- एक अंधा और जादुई कुंआ कि उसमें जोभी एक बार गिर गया वह कभी लौटकर बाहर नहीं आता। खत्म हो जाता है हमेशा-हमेशा के लिये उसके अंधेरों में । नरेन्द्र और शोभाराम साथ-साथ दिल्ली की यात्रा पर निकलते है और इसी यात्रा के दौरान वे दोनों एक स्टेशन पर ऐसी एक कटटर जातिवादी संगठन की रैली की भीड़ में फंस जाते है। मास्टर शोभराम का रैली के कुछ लोगों से विवाद होता हैं जिसके परिणाम में भीड़ के कुछ सिरफिरे यानि गर्म स्वभाव के लोग शोभाराम मास्टर को उठाकर दूसरी पटरी पर आ रही राजधानी एक्सप्रेस के सामने फेंक देते है। यह वैचारिक रूप् से बहुत सशक्त है। कहानी मे भाषा का प्रामाणिक रूप् ही अपनाया गया है। तमाम ख्ूाबियों के बावजूद संग्रह की एक बड़ी खामी को नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता कि लहरिया की कहानी में दुनिया की आधी आबादी लगभग नदारद ही रहती है। इस बात का जबाव नही मिलता कि नारी विमर्श और स़्त्री स्वातंत्रय के इस जमाने में स्त्री पात्रों से इतना परहेज क्यों? ताज्जुब तो यह है कि इस संग्रह की कहानी ”एक इतिहास विरूद्ध” में प्रेम विवाह करने वाली मीरा भी उतनी मुखर और मुकम्मल स्त्री नहीं लगती जैसी उम्मीद की जाती है। इन सभी कहानियों में पुतलीवत् स्त्री पात्र हैं जो कोई सक्रिय दखल नहीं देती। इस कहानी में जाति का जहर शुरू से अखीर तक अपने विषैले असर छोड़ता दिखाई देता है। कहानी की मुकम्मल बनावट से भिन्न यह कहानी कुछ बिखरी-बिखरी सी लगती है, फलतः पाठक उबने लगता है। उनास पुरूष वाचक व बीमारी घूमती देखी गई वाक्य पाठक को अखरते है।

कहानी ‘डायनासौर युग में ठुमरी ’ एक सिक्वेंस है। यह तीसरी कहानी एक इतिहास विरूद्ध......का उत्तरार्द्ध बल्कि आयाम या विस्तार भी कहा जा सकता है, लेकिन इसका कन्टेन्ट अलग है। नरेन्द्र को अन्तर्जातीय विवाह के लिये बधाई देने वाले रामभोग बाबू एक अजीब किस्म के संकीर्ण इंसान है। जिन में धार्मिक कट्टरता कूट-कूट कर भरी हुई है। रामभोग बाबू एक रात नरेन्द्र को अपने घर बुलाकर हिंदुवादी संगठन के लिए काम करने का मशवरा देते है। इस बैठक का मुख्य वक्तव्य बाहर से आये कार्यकर्ता देते है, यह वक्तव्य सुनकर सोभाराम जैसे ेजाति विरोधी का मित्र रहा नरेन्द्र हक्का-बक्का रह जाता है। और उस दिन से की ऐसा चुप होता हैं कि लोग उसे पागल समझ लेते है।

पांचवी कहानी में लहरिया एक बार फिर से सामंतवादी युग की वह सजा पाठकों के सामने पंस्तुत करते हैं, जिसमें अपराधी को एक खाट के दोनों ओर जांघे फैलाकर खड़ा होने की सजा दी जाती हैं, यही सजा लहरिया के उपन्यास राक्षसगाथा के किसी पात्र में भोगी थी। इस कथा कायान्तर में पुरानी जंमीदर परिवार का नौकर राधों यह नाम सामान्यतः प्रचलित नहीं हैं- राधे प्रचलित है, खाट वाली सजा पाता है और उसकी जांघे चिर जाती है। उसका अनाथ बेटा जंमीदार की हवेली में बंधुआ मजदूर बन जाता है। जिससे इस तरह से शो़षण-दोहन किया जाता है कि वह मनुष्य की जगह पशु की जिंदगी जीने लगता है। खड़े-खड़े सो लेना बहुत सारा भोजन भकोस लेना उसकी ऐसी आदतें है। उसका ब्याह होता है। पर जमींदार के बेटे उसे घुंछी नहीं देते उल्टे उसकी मढैंया पर जमींदार का बिगड़ैल बेटा बलवीर पहुंचने लगता है और ऐसा जड़वत जीवन जीने वाला व्यक्ति अचानक ही एक दिन हवेली के मुख्य दरवाले से लटककर फांसी लगा लेता है । जिसे जमींदार के बेटे तुरन्त उतार के अस्पताल ले जाते हैं और उसकी मृत्यु बीमारी से होना बताकर मामले को रफादफा करने में जुट जाते है। गांवों में आज भी चल रहे इस जंगलराज की नंगी सच्चाई लहरिया इस कहानी में लाए तो हैं लेकिन पूरी कथा में वृतान्त की रोचकता कहीं नहीं मिलती, इस वजह से पाठक की सहानुभूति राजम के साथ होने के बावजूद तादात्म नहीं होता।

‘वधभूमि के बीचों बीच’ वह कथा है जिसका कभी नाम ‘मकतल’ रखा गया था। इस कहानी में उमानाथ पांड़े नामक व्यक्ति संस्कृत सीखने काशी जाता है और अपने आश्रयदाता परिवार के साथ रहते हुये अचानक परिवार की बाल विधवा सरोज से उसके देह सम्बन्ध हो जाते है। इस अनिर्वचनीय सुख में डूबे उमानाथ को अपना ब्याह तय होने की खबर मिलती है तो वह विवाह करने गॉंव लौटता हैं और अपनी पत्नी में बार-बार काशी से उसके मनोमस्तिष्क पढ़कर आई सरोज को तलाशता है। पर असफल रहता है। शादी के बाद काशी पहुंचने पर उसे गर्भवती सरोज की आत्महत्या का समाचार मिलता है। तो वह क्षुब्ध होकर वहां से मंजिलहीन यात्रा पर भाग खड़ा होता है। भटकते हुए वह खालिया आता है और यहां-वहां रोजी रूजगार तलाशता तमाम उद्यम अपनाता है । अचानक ही उसे गॉंव की याद आती है। वो वह गॉंव लौटता है। सबकुछ बदला हुआ मिलता है- भौतिक रूप से भी और वैचारिक रूप से भी । उसकी मां मर चुकी है, पत्नि बूढ़ी हो गई और बेटी पन्द्रह साल की हो चुकी है। रोजी-रोटी की समस्या से दो-चार होने पर उसे सोलह साल की गुमनामी में की गई कंपाउण्ड़री याद आती है और वह जनता क्लीनिक नाम से गॉंव में एक अस्पताल खोलते हैं। वह पाता है कि इस बीच गॉंव के शोषकता और ब्याज हिंसक हो उठे हैं तथा दुनिया भर के गलत काम करने वाले गुण्ड़े गॉंव में नये मंदिर-मस्जिद् बनाने पर आमादा हैं और इसके लिये गुण्डा गर्दी के तरीके से चंदा वसूली की जा रही है। चंदा के सवाल पर उमानाथ का विवाद होता है। वह कहता है- ”नहीं हूं मंै हिन्दु” क्योंकि गुण्डा देवेन्द्र शर्मा एक हुंकार भरा नारा लगाता हाजिर हुआ था- गर्व से कहो हम हिन्दु है। विवाद की वजह से उमानाथ का जीना हराम हो जाता है। रोज दरवाजे पर उसकी युवाबेटी के साथ कोई नाम जोंड़कर पर्चो में लिखकर चिपका दिया जाता है। वह एक दिन निराश होकर गॉंव छोड़ देता है। इस कहानी में कहानी इतनी घुमाव लेती है कि वह उपन्यास लगने लगती है। क्योंकि हर मोड़ का अलग भाव हैं, अलग अंदाज और अलग ही विस्तार। लेकिन आपस में कोई एक सूत्र नहीं दिखता। यद्यपि लहरिया का नैरेशन बड़ा सशक्त होता है लेकिन नैरेशन भर पाठक नहीं चाहता, उसे बांधे रखने योग्य कौतूहल की भी दरकार होती है। प्रस्तुत संग्रह का शीर्षक ड़ायनासौर युग से ढुमरी भी हो सकता था, क्योंकि इन सब कथाओं में दर्शाया गया हमारा समय ड़ायनासौर वाला हिंसक समय ही तो बनता जा रहा है। हिंसक और बेअकल जानवरों की तरह के मनुष्य समाज के सर्वेसर्वा बन रहें हैं- ऐसे युग में ठुमरी जैसे द्रुत बिलंबित गान और सुसंस्कृति की कहां गुंजाइश है?

संग्रह में भाषा के तौर पर लहरिया चूके तो नहीं है लेकिन पाठक को बांध पाने का कौशल जो उनकी आरंभिक कथाओं में था, वह इन कथाओं में सिरे से गायब है। इस कारण कई जगह उनकी कथायें विचार-विमर्श, सैंद्वांतिक बहस व नारों और मुद्दों के पोस्टर सी लगती है। यद्यपि व्यक्तिगत बातचीत में लहरिया हिन्दी कथा में निरन्तर बढ़ रही सपाट बयानी और अपठनीयता को लेकर चिंतित दिखते हैं, लेकिन उनकी रचनाकार कलम इस सपाट बयानी पर खुद ही कहानियों में भी लगाम नहीं कस पाती। लहरिया अपनी कहानी में कला के प्रति अतिरिक्त आग्रही हैं, और उनका यह आग्रह बाज अफसाने में झलकता भी है। लेकिन कई दफा उनके सूक्ष्म विवरण मन में झल्लाहट पैदा करते है।

समाज के प्रति लेखक के सरोकार लहरिया की इन कहानियों के माध्यम से स्पष्ट और मुखर बनकर उभरे है। बड़े परिपक्व सोच और साफ-साफ देख पाने-कहपाने की उनकी क्षमता विलक्षण है। नयी कहानी के लेखकों की तरह वे अपनी हर कहानी को महत्वपूर्ण कहते हैं, लेकिन आसपास की कथाओं को वे अच्छी, बढ़िया या बहुत अच्छी आर कह लेते है- यह आत्म मुग्धता उनके आगामी लेखक को बाधा पहुंचा सकती है। लेखक की सामने के सारे आयामों पर, सब दिशाओं पर, सब क्षेत्रों पर व समाज के हर वर्ग, हर चरित्र को भी देखना होता है। सिर्फ कुछ समस्याओं पर थिर रहना विशेषज्ञ या उल्लेखनीय तो बना सकता है परन्तु संपूर्ण या महत्वपूर्ण नहीं। फिर एक जगह पर कदमताल करना अंततः न तो गतिशील बनाता है, ना ही विशिष्ट।

फिर भी खास मुद्दों पर केन्द्रित इन कथाओं में पाठक को तमाम सवालों से मुठभेड़ मिलेगी, विचार-विमर्श मिलेगा और साफ दृष्टि भी इसलिये यह संग्रह चर्चित होगा।