Ek Duniya Ajnabi - 38 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 38

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एक दुनिया अजनबी - 38

एक दुनिया अजनबी

38-

कभी-कभी ऐसा भी होता है, छिपाने का कोई प्रयोजन नहीं होता पर बात यूँ ही छूट जाती है | कुछ ऐसा ही हुआ, कभी कोई बात ही नहीं हुई मंदा मौसी के बारे में | अचानक मंदा मौसी का नाम सुनकर प्रखर का उनके बारे में पूछना स्वाभाविक ही था |

अब तक निवि प्रखर की ज़िंदगी में पूरी तरह आ चुकी थी | उम्र का अधिक फ़र्क होने पर भी उसे प्रखर का साथ अच्छा लगने लगा था |अपने टूटे हुए दिल का मरहम वह प्रखर में पा गई थी और प्रखर अपने एकाकीपन को उसके साथ से भर रहा था |

मन का ख़ालीपन तो है ही किन्तु शरीर की ज़रूरतें भी तो इतनी आसानी से समाप्त नहीं होतीं बल्कि शरीर की भूख और भी तेज़ होने लगती है जब समय पर उसे भोजन न मिले | बेचैनी उसके मन और शरीर को नोच ही रही थी जब तक उसे निवेदिता नहीं मिली थी |

निवेदिता अपने पिता के जीवित रहते ही प्रखर को अपने घर पर ले जाने लगी थी| कुछ ही दिनों पहले जब उसके पिता का स्वर्गवास हुआ, प्रखर उस परिवार की सांत्वना बनकर रहा | निवेदिता की एक बड़ी बहन विवाहित थी और भाई विदेश में शिक्षा प्राप्त कर रहा था | ऐसे में प्रखर निवि के घर आने-जाने से निवि की माता जी के साथ काफ़ी सहज महसूस करने लगा था |

वास्तव में प्रखर ने अपना सौ प्रतिशत खोकर मानो कुछ प्रतिशत फिर से पाया था| उसको अपने लिए एक सहारा मिल गया था यह कहें तो गलत न होगा |सब इतने सशक्त नहीं होते कि हर परिस्थिति में सहज रह सकें, अकेले रहकर युद्ध में जीत सकें | उन्हें किसी के हाथ की ज़रुरत बहुत शिद्द्त से होती है | बहुत मुश्किल समय से गुज़र रहे थे, दोनों ही----ओह !बेहद करुणापूर्ण स्थिति !

यूँ तो अभी भी जीवन की पतँगों के उड़ने की कोई दिशा दिखाई नहीं दे रही थी किन्तु इंसान साँस लेता है तो जिधर की ओर से वायु आती है, उधर की ओर ही मुह करके खड़ा होना उसे अच्छा लगता है | बस--ऐसी ही कुछ दशा थी प्रखर की |

"कितने दिन हो गए मंदा मौसी को मिले ---बहुत फ़ोन आ चुके हैं उनके --" निवि ने कहा तो अचानक तय हो गया और तीनों मंदा मौसी से मिलने चले |

"प्रखर !आज तुम्हें एक ऐसे इंसान से मिलवाऊँगी जो तुम्हें बहुत प्रभावित करेगा --"सुनीला ने रास्ते में प्रखर से कहा |

"प्रखर को प्रभावित करना क्या मुश्किल है --? " निवि ज़ोर से हँसी थी |

"अच्छा ! तुमसे प्रभावित हुआ इसलिए ----? "

"सुनीला तुम जानती हो मैं और निवेदिता किस्मत के तहत ही मिले हैं, हमारी ज़रूरतों के तहत --" प्रखर कुछ अधिक स्पष्ट हो गया था और गंभीर भी !

"इसमें नया क्या है ? सब जुड़ाव, तुड़ाव किस्मत के और ज़रूरत के तहत ही होते हैं, प्रारब्ध ---केवल प्रारब्ध ! अंत में हम उसीके हाथों में लट्टू से नाचते नज़र आते हैं --"

"अब --इतना भटकने के बाद तो मुझे भी ऐसा ही लगता है ---"

"यानि --अभी भी लगता ही है, ऐसा विश्वास नहीं ---? निवि बोल उठी|

"नहीं, ऐसा नहीं --विश्वास तो करना ही पड़ेगा, जीवन की इन अनहोनियों को देखते हुए इससे भागा भी तो नहीं जा सकता ---"प्रखर विश्वास-अविश्वास के झूले में झूलता रहा था इतनी सारी अप्रत्याशित सी चीज़ें देखने के बाद वह मूक सा हो गया था |

कितने स्थानों, पंडितों, गुरुओं के पास भटका है लेकिन प्राप्त क्या किया ---ये बड़ा ---शून्य--o !

हमेशा सर मुंडाते ही ओले पड़े |परिवार का एक इंसान अविवेकी हो जाता है और भोगना पूरे परिवार को पड़ता है |

बड़े सपने देखना अच्छी बात है लेकिन अपनी चादर से बाहर पैर फ़ैलाने में भी तो कोई बड़प्पन नहीं है | वैसे भी जब आनंद का समय होता है अपने सब हैं लेकिन जब कठिन समय होता है तब पीले पात से सब तथाकथित अपने झरने लगते हैं!

विवेकहीन होकर मनुष्य न जाने कितनी परेशानियाँ खुद मोल लेता है और न जाने उनको कितनी तकलीफ़ें देता है जिनका उस सब में कोई रोल ही नहीं होता |

क्या बिगाड़ा था विभा ने ? केवल कि प्रखर ने उसके गर्भ से जन्म लिया था, इसमें उसका वश कहाँ था ? अपना घर होते हुए वह अपने दामाद के घर पर शरण पा रही थी |

बेशक ! उसका बहुत ध्यान रखा जाता लेकिन कोई चसक तो थी ही जो पीछा ही नहीं छोड़ती थी |

उसके पास ऐसा था भी क्या जो अपनी बेटी-दामाद को दे पाती ! यह संस्कार था उसके दामाद का जो अपनी माँ की तरह उसकी इज़्ज़त करते थे |हर माह की दवाइयों का समय पर आकर रखा जाना, यह उसके दामाद की ही काबिलियत थी | इस उम्र में चैक-अप के लिए डॉक्टर के पास जाना होता तो कभी बिटिया या कभी दामाद ही लेकर जाते |

अजीब सी नुकीली सलीबों पर टँगा रहता है मन !ख़ौफ़ से छिपने की कोशिश प्राणहीन हो जाना होता है | ऊपर से मज़बूत बने मन में भीतर जाने कितने छेद होते जाते हैं |

प्रश्न बड़ा विकट है लेकिन है तो है ही ---किस पर ठीकरा फोड़े इंसान ? क्या हमारे परिणाम के लिए परिवार ज़िम्मेदार होता है ? पड़ौसी या फिर माँ-बाप ? आख़िर कौन ? हम स्वयं ही तो ----