Ek Duniya Ajnabi - 36 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 36

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एक दुनिया अजनबी - 36

एक दुनिया अजनबी

36-

आश्चर्यचकित था प्रखर ---ऐसा भी होता है ? तभी उसके मन से आवाज़ आई ;'अभी दुनिया देखी ही कहाँ है प्रखर बाबू ---'

वह खो गया था नरो व कुंजरो व में? किसको सच माने ? कितने-कितने रूप दुनिया के, एक यह भी ---उसने अपना चकराता हुआ सिर पकड़ लिया |

"शर्मा अंकल के बारे में माँ ने बताया था --"अचानक अपनी माँ की व अपने जन्म की कहानी बताते हुए वह प्रखर के पिता की बात पर आ गई थी |

"हाँ, मृदुला जी आईं भी थीं मम्मी के पास, जब पापा -----"रूँध गया प्रखर का गला |

पापा का न रहना चोटों से शरीर व दिल को छलनी कर गया था लेकिन किसी को समझाना मुश्किल था, शायद ज़रूरत भी नहीं थी और उसके खिलंदड़े स्वभाव के कारण किसीका समझना भी उतना ही कठिन था जितना उसके लिए किसीको समझाना, लेकिन फिर वह टूटन उसे क्यों कमज़ोर करती रहती थी ? एक कंपकंपी उसके शरीर में झुरझुरी सी बनकर इधर से उधर घूमती रहती |

पापा के न रहने के बाद ही तो वह अकेला रह गया था | जब पापा थे, कुछ दीन -दुनिया का पता ही नहीं था, पापा के जाते ही दिन में तारे गिनने की नौबत आ गई |

"लेकिन ---मृदुला जी तो ठीक थीं न ? क्या हुआ उन्हें अचानक ? "प्रखर की आश्चर्य से भरी आँखें पनीली हो आईं | आज वह उस व्यक्ति के लिए आँखें भर रहा है जिसको उसने सदा हिकारत की दृष्टि से देखा था| किसी के बारे में बिना जाने ही राय बना लेना कितना बड़ा गुनाह है ! उसके मन ने सोचा |

माँ को क्या हुआ ? प्रश्न पर सुनीला काफ़ी देर तक चुप ही बैठी रही, न जाने वह कहाँ खो गई थी | आज निवि भी बहुत चुप थी, उसने सुनीला का हाथ अपने हाथ में ले लिया और स्नेह से उसे सहलाने लगी |

"मृदुला आँटी मन से बहुत टूट चुकी थीं | वो किसीसे कुछ नहीं कहती थीं लेकिन उनके मन पर बहुत बोझ था -----"निवि ने पहली बार इस चर्चा में मुह खोला, सुनीला की जगह उत्तर दिया |

"मम्मा शुरू से ही असहज थीं, इसमें कोई शक नहीं कि यहाँ उन्हें माँ-पिता सबका प्यार, स्नेह, दुलार मिला | उनकी बहुत केयर हुई पर इस भीड़ में भी वो हमेशा खुद को अकेला महसूस करती थीं ---"सुनीला स्वयं को कंट्रोल करने की कोशिश कर रही थी |

"सबने उन्हें कहा भी कि वो उनके साथ ऐसे काम पर न आया करें जो उनके योग्य है ही नहीं ---पर उनकी समझ उन्हें कचोटती | आख़िर उनका पालन-पोषण करने की इन लोगों को ज़रूरत भी क्या थी ? नन्हे से बच्चे को पालना आसान नहीं होता फिर उस समय तो बिलकुल भी नहीं जब इन्हें पता चल गया था कि वो एक भरी-पूरी लड़की में परिवर्तित हो रही थीं |

वह इन लोगों के लिए एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी बनती जा रही थीं | जिस ज़िम्मेदारी को इन इन सबने गले लगाया, सहलाया, प्यार किया, पाला-पोसा वह मेरी माँ थीं, मृदुला प्रेम माँ को बाध्य करता था वह उनके लिए कुछ करें --बल्कि बाद के दिनों में तो इन लोगों ने उन्हें अपने साथ ले जाना बंद कर दिया था -----"

"हाँ, बीच में कुछ दिनों मैंने उन्हें नहीं देखा ----नहीं तो वो माँ के पास आए बिना रहती ही नहीं थीं | उनके बीच के रिश्ते मेरी समझ में कभी नहीं आए --"प्रखर की आँखें तरल थीं और चेहरे पर उतरा अफ़सोस उसकी आँखों के माध्यम से छूआ जा सकता था |

"प्रखर ! रिश्ते सदा बाहरी शरीर के नहीं होते, आत्मा के होते हैं | जब मैं बड़ी होने लगी , वो मुझसे अपने मन की बातें शेयर करने लगीं थीं | उन्होंने मुझे सब बता दिया था ---"

"पापा हमसे मिलने आते, मैं, माँ व वो तीनों साथ बाहर जाते | यह पूरा काफ़िला ऐसा खुश होता था जैसे उनकी बिटिया उनके दामाद के साथ घूमने जा रही हो ---" सुनीला ने अपने टपकते आँसुओं को रुमाल में समेट लिया |

"जो इन्हें बेशर्म और संवेदनहीन कहते हैं, मुझे लगता है मैं उनको ---" सुनीला फफक पड़ी |

"जब मैं और माँ-पापा साथ घूमने जाते, बहुत देर तक सब लोग हाथ हिलाकर हमें 'बाय' करते रहते थे ---|" उसने अपने दुपट्टे में अपने आँसू सोख लिए और दुपट्टे के एक कोने को गीला करके पूरे चेहरे पर फिराकर स्वयं को स्वस्थ दिखाने की चेष्टा की |

"पापा ही माँ को चैकअप के लिए ले गए थे, उन्हें हल्का सा हार्ट-अटैक पड़ा था | तबसे ही पापा की चिंता उनके लिए बढ़ गई थी | मुझे लेकर भी पापा बहुत चिंतित रहते थे| "

"तुम्हारे पिता ने माँ को वहाँ से कहीं दूर रखने के लिए नहीं सोचा? " प्रखर के मुख से फिर निकल गया |

"क्यों नहीं सोचा ? लेकिन रहने वाले को भी तो मानसिक रूप से तैयार होना चाहिए न ? "

"पापा अपने घर ले नहीं जा सकते थे और वो कहीं और घर लेकर उन्हें रख भी लेते तो वो ही जाने को तैयार नहीं थीं | इन सबका किया हुआ मम्मा के सामने आकर उनसे हज़ारों सवाल पूछने लगता ---आखिर उन्हें ज़िंदा तो इन सभी ने रखा था न? "

"मैं जानती हूँ, विभा आँटी को सब-कुछ मालूम है ---" सुनीला ने कहा |

प्रखर के चेहरे पर प्रश्न देखकर सुनीला ने कहा ;

"ये सभी बातें जो मैंने तुम्हें बताई हैं -----"

सुनीला की बातें सुनकर प्रखर सन्न रह गया, अब उसे अपनी माँ विभा व सुनीला के संबंधों के बारे में पता चल रहा था | कितना ख़राब व्यवहार था उसका!पश्चाताप के निशान जैसे उसके मन के आँगन में पसर रहे थे |

"जबसे माँ के दिल की बीमारी का पता चला तब से इन सबने माँ की कितनी केयर की ---मैंने देखा है | शायद कोई घरवाले भी इतना ध्यान नहीं रख सकते जितना इन सबने रखा है लेकिन किसीके आने-जाने के समय पर कौन रोक लगा सका है ? उन्हें जाना था, वो गईं ---" आज पहली बार सुनीला को प्रखर ने टूटकर रोते हुए देखा था | जैसे एक खारा झरना बहता जा रहा था जिसका कोई अंत न था |

टूटे हुए दिल को संबल मिलना क्या होता है, वही बता सकता है जो बिखरा हुआ हो | देखा जाए तो ये तीनों मित्र ही बिखरे हुए थे जैसे सागर किनारे बच्चों अथवा प्रेमियों के रेत के घर बनकर बुरने लगते हैं ऐसे ही उनके मन भीतर से धीरे-धीरे बुरते हुए चकनाचूर हो रहे थे |

जीवन में एक न एक समय सबके सामने जीवन में आता है, सब कुछ होने के बावजूद भी मनुष्य कुछ अधूरा ही बना रहता है तृप्त ही नहीं हो पाता|

वैसे जीवन में कितने लोग पूरी तरह संतुष्ट रहते हैं ? एक बात पूरी हुई नहीं की दूसरी पर छलाँग लग जाती है |

ऐसा ही है मनुष्य का जीवन ! बहुत कम लोग होते हैं जो अपने पास जो कुछ है उससे संतुष्ट रहते हैं अन्यथा मनुष्य की पिपासा कभी शांत होने का नाम ही नहीं लेती ---

जीवन की नैया न जाने कितनी बार डगमगाती है, हिचकोले खाती है, फिर से स्थिर होती हुई आगे बढ़ने लगती है और फिर वही वृत्ताकार --मन ही तो सब-कुछ है ये ही तो सब गड़बड़ करता है | सारी बात ही तो मन की है |

"मन चंगा तो कठौती में गंगा "बड़ी मम्मी यानि प्रखर की नानी कहा करती थीं |पर चंगा रख सकते हैं क्या सभी लोग मन को? प्रखर कितना रख सका था ? बड़ा सवाल था|

प्रखर को बचपन के किस्से, अपने वो बुज़ुर्ग सब याद आने लगे हैं जो अब नहीं रहे | कुछ परछाइयाँ सी मन को घेरकर रखती हैं | उनसे चाहकर भी वह निकल नहीं पाता इसीलिए मन और भी अशांत रहता है |

मन शांत तो मनुष्य मन-तन से स्वस्थ्य अन्यथा ---

सुनीला तीनों में सबसे अधिक शांत थी, ठहरी हुई | उसका लक्ष्य स्पष्ट था | उसे भी अपनी माँ की भाँति उन सबकी सेवा करनी थी जिन्होंने उसको व उसकी माँ को पाला था, ज़िंदा रखा था, पहचान दी थी |

नहीं डरकर रहना चाहती थी वह समाज से ! उस समाज से जिसने उसकी माँ से अमानवीय व्यवहार किया था ? उसकी माँ के पिता यानि उसके नाना उस समाज का ही तो अंग थे जिसमें वह और सब रह रहे थे | वैसे भी समाज को उसने अधिकतर कमज़ोर पर हँसते ही देखा है | क्यों करे वह उस समाज की परवाह जिसमें उसके नाना ----नहीं, उसे अपनी माँ के पिता का कोई भी रिश्ता स्वीकार नहीं था |

उस दिन सभी दिलों की ज़मीन पर उदासी ओढ़कर बिछुड़े थे |

प्रखर परिवार से लापरवाह और परिवार उससे लापरवाह ! प्रखर को फिर से अपने पाँव मज़बूत करने थे | इतने लंबे समय में वह बिलकुल ख़ाली हो गया था | पहले दुर्घटना फिर व्यवसाय की क्षति से वह टूटता जा रहा था | न जाने कहाँ-कहाँ से उसने लोन ले लिए थे, कैसा हो गया था उसका भाग्य !