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गर्मी के दिन थे । जलता तपता जेठ का महीना । मई खत्म हो चुकी थी और जून की आमद हो रही थी । गरमी, उसका हाल न ही पूछा जाए तो अच्छा है । सुबह सवेरे जैसे ही सूरज अपनी चारपाई छोङ धरती की सैर को निकलता, उसका चेहरा तमतमा जाता । गाल लाल सुर्ख हो उठते । जला डालता सामने आती हर चीज को । उसे तपता देख धरती भी तपने लगती । लोग काम के लिए निकलने को होते कि ये सूरज देवता सिर पर सवार हो जाते । लोग अपना सिर और चेहरा छिपा लेते । मरद अपने साफों में या पहनी हुई पगङी के छोर में और औरतों दुपट्टों में । शरीर पसीने से भिगो लेते । फिर भी चमङी झुलस - झुलस जाती । जो लोग इस समय घरों में बैठे होते, उनकी हालत बाहरवालों से भी पतली होती । कमरे तपकर भट्ठी बन जाते । लोग बैचेन होते तो घबराकर घरों से बाहर आ जाते । हाथ पंखा लेकर झलते हुए खुद को हवा देते और पास बैठे साथी को भी । हवा पहले ही सूरज के ताप से तपी होती । लू वाली धूल, आँधी भरी हवाएँ एक पल भी साँस न आने देती । लोग उम्मीदभरी नजरों से आकाश की ओर देखते, कहीं बादल का टुकङा तैरता दिखे तो मन को शान्ति मिले पर दूर दूर तक वर्षा के कोई आसार नजर न आते । लोग अंदर से बाहर, बाहर से अंदर होते रहते । बातों से मन को बहलाने की कोशिश करते पर बहता पसीना और सूखते हुए गले बातों से मन उचाट कर देते ओर वे हाथ में पकङे पंखे की डंडी से अपनी पीठ खुजाने लगते ।
शाम होते ही लोग हाथपंप से या कुँओं से पानी खींचते । खुद नहाते । पशुओं को नहलाते और धरती पर पानी का छिङकाव करते । मिट्टी की थोङी बहुत तपन मिटती तो वह अपनी देह की खुशबू से नहा उठती । वातावरण उस दिव्य सौंधी महक से सराबोर हो उठता । उस पानी छिङके आँगन और छतों पर शाम से ही खाटें विछा दी जाती । हर छत पर लोग होते । एक दूसरे का दुख सुख सुनते लोग दिनभर की तपिश भूल जाते और हँसी ठहाकों का दौर चल पङता । अगले दिन के लिए हिम्मत जुटाने के लिए ये ठहाके किसी टानिक से कम नहीं थे ।
किसी एक छत पर सारे बच्चे इकट्ठे होते । किसी दादी या दादा या बुआ को घेरकर बैठ जाते । बुझारतें, कहावतें, पहेलियाँ बूझते । कहानियाँ सुनने लगते । रूपबसंत की कहानी, रानी सुंदरा की कहानी, पूरनभगत और लूणारानी की कहानी, राजा- रानी की कहानी, परियों और देओ की कहानी, रामायण और महाभारत की कहानी । एक खत्म जाती तो दूसरी शुरु हो जाती । उस के बाद तीसरी,तीसरी के बाद चौथी । शाम के सात बजे से नौ दस बजे तक चलता यह सिलसिला अगली शाम के इंतजार और नयी कहानी के वादे के साथ खत्म होता ।
एक कोने में युवतियों की महफिल जमती । बहुएँ, लङकियाँ सब जुङ बैठती । कोई सब्जी काट रही होती । कुछ मगज निकाल रही होती । कुछ जवे तोङती । कोई लोकगीत गुनगुनाती । बीच बीच में कोई ऐसी बात छिङ जाती कि हँसी का फुहारा फूट उठता । फिर याद आता कि साथवाली छत पर बङे - बुजुर्ग बैठे हैं तो चलती हँसी को ब्रेक लग जाते । निशब्द हँसी के साथ अकेले बदन हिलते रह जाते । आकाश में चाँद अपनी ज्योत्सना के साथ विहार कर रहा होता । तारे उसकी रखवाली करते ।
अचानक किसी बुजुर्ग का बोल सुनाई देता – अब सो जाओ भई, सप्तर्षि की मंजी घूमनी शुरु हो गयी । रात का पहर बदल गया है और सब सोने के लिए अपने अपने खाट पर टेढे हो जाते । धर्मशीला को न अंदर चैन आती न बाहर । बेचैनी से कभी उठ जाती, कभी बैठ जाती । आषाढ की उमस भरी रातें और तपती दोपहरी अपना आतंक जमाए थी । उस पर नजदीक आता प्रसवकाल का समय । उसका रक्त इस सोच से ही निचुङ जाता । एक एक दिन काटना भारी हो रहा था । इस बच्चे को लेकर उसने लाखों सपने देखे थे । जागती आँखों के सपने जिनमें कभी गार्गी और सती दिखाई देती, कभी बालकृष्ण । हर रुप सुंदरतम । ये बच्चा उसका अपना था । वह अपने सपने के शिशु की चर्चा पति से भी न करती । एक राज था जो दिनोंदिन बङा हो रहा था । बस कुछ दिन और । फिर यह ख्वाब हकीकत में बदलने वाला था । वह अपने मन को लगातार तसल्ली देती रहती । पाठ में मन टिकाए रखने की कोशिश करती ।
और फिर वह दिन अचानक से सामने आ खङा हुआ । रात को गरमी बहुत ज्यादा थी । लोग पहले ही बेचैन थे । अचानक धम्मो को बेचैनी हुई । दर्द भी महसूस हुआ । पर डाक्टर की दी हुई तारीख में तो तेरह चौदह दिन बाकी थे । धम्मो ने करवट बदलकर लेटने की कोशिश की पर दो मिनट बाद ही उठ खङी हुई । लोटा उठाया, पानी पिया । लोटा रखकर फिर से लेटने की कोशिश की । पर दरद तो बढता ही जा रहा था । वह चारपाई पर बैठ गयी । बैठा नहीं गया तो टहलने लगी । भागभरी आजकल उसीके पास सोती थी । इस उठकबैठक से उसकी नींद खुल गयी –“ क्या हुआ भरजाई “ ?
“ कुछ नहीं, बस पेट में थोङा दर्द है “ ।
“ रात तूने मांह -चने की दाल खाई थी न, उसी से हो रहा होनै । तू ऐसा कर, चौंके से थोङी अजवाईन लेकर पानी के साथ खा ले । ठीक हो जाएगी “ ।
“ ला दे न बीबीरानी बनके । मुझसे चला नहीं जा रहा “ ।
भागभरी अधमुँदी आँखों से चौंके में गयी और अजवाईन और पानी लाकर धम्मो को पकङा दिया और दुपट्टा ओढकर सोने की कोशिश करने लगी । अभी लेटे एक मिनट भी नहीं बीता होगा कि छलांग मार के खङी हो गयी –
“ ओये मैं मर जाऊँ . माँ ने तो कहा था, भरजाई को जरा सा भी दरद हो या कोई तकलीफ हो तो तुरंत मुझे बताना “
और वह लङकी बिना चप्पल पहने ही दौङ गयी । चंद मिनटों में ही कक्कङ झाई और अम्मा जवाई दोनों आ गयी ।
रात अभी चौथे पहर तक पहुँची थी । सब लोग गहरी नींद में सो रहे थे । झाई ने बादाम और छुहारे डालकर दूध औटाया । अच्छे से काढके धम्मो को पिलाया । दर्द घटने की जगह बढ रहे थे । अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी । तुरंत सामान जुटाया जाने लगा । पुरानी चादरें, कपङे,तौलिए, साबुन तेल और भी न जाने क्या । इसी सबके बीच आसमान में सिंदुरी रंग बिखरना शुरु हो गया था । रवि को उठाया गया । पितरों के नाम से पैसे रखवा पौ फटते ही यह लोग अस्पताल पहुँच गये । रवि भागा नर्स को बुलाने ।