उन दिनो स्कूल से आकर जल्दी से होम वर्क ख़त्म करने की जल्दी रहती थी ,क्योंकि शाम होते ही खेलने जो जाना होता था ।सब अपना अपना काम ख़त्म करके बाहर उपस्थित हो जाते थे ।अगर किसी का काम ख़त्म ना हो रहा हो तो मदद के हाथ तैयार रहते थे ,इतनी एकात्मकता थी सबमें । मँझली और छोटी तो सीमा का हाथ बँटाने को हरदम तैयार रहती थीं ।
सीमा के कोने वाले घर दिन में ना जाने कितनी बार दौड़ कर जाना होता था ।उसके घर में अनुशासन बहुत था । उनके यहाँ दोनो बहनो और भाई सबके काम बँटे थे । सीमा खेलते खेलते भी पाँच बजते ही जाकर अंगीठी भर कर आती थी । उसे अंगीठी भरते देखना मज़ेदार काम लगता था । मिट्टी लगी हुई लोहे की बाल्टी में एक जाली रखी होती जिस पर तरीक़े से कोयले भरे जाते , नीचे थोड़ा हिस्सा जो कटा होता वहाँ सीमा अख़बार के टुकड़े भर कर आ जाती ।ठीक साढ़े पाँच बजे उसका भाई सोनू उसमें आग लगाकर आता ताकि धीरे धीरे कोयले सुलग जायें और अंगीठी खाना बनाने को तैयार मिले ।ये रोज़ का नियम था जो खेल के बीच से जाकर उन्हें करना होता । और हम इस चक्कर में कि खेल रुका है उसकी मदद करने साथ जाते जबकि अपने घर में कभी अंगीठी भरी नहीं ।आज भी कभी कभी हर घर में उन जलती हुई अँगीठियों की याद आ जाती है ।
बाद में तो गैस का चूल्हा आ गया था सबके यहाँ और तब लगा था कि कितने समय की बचत होने लगी थी ।पर अंगीठी जलने का एक और फ़ायदा था की रात्रि भोजन सबके घरों में एक ही निश्चित समय पर ख़त्म हो जाता था ।फिर सबके पापा घर के भीतर अपने अपने काम करते, जैसे हमारे पापा उन दिनो वकालत करते थे तो उन्हें पढ़ना बहुत पड़ता था ।ऐसे ही रंजू और सिया के पापा पढ़ाते थे तो उन्हें भी पढ़ने का काम रहता था ।
फिर सोनू को कैन्सर हो गया ।वो बाहर खेलने नहीं आ पाता था,अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखता रहता था ।तब हमें तब सिर्फ़ इतना पता था कि उसकी टाँग में दर्द रहता है इसलिए वो कमरे में बैठा हुआ बाहर सबको खेलते देखता है पर ख़ुद बाहर नहीं आता ।उसका असमय इस तरह चले जाना एक बड़ी त्रासदी थी जो उस उम्र में हमें समझ नहीं आयी थी । बस इतना लगा था कि खेल का एक साथी कम हो गया ।
सीमा और उसकी छोटी बहन रीमा बराबर हमारी हर खेल की साथी बनी रही ।जन्माष्टमी की झांकी बनाने से लेकर रामलीला तक में भरपूर सहयोग दिया ।कुल मिलाकर हम सब छः आठ लड़कियाँ मोहल्ले के तक़रीबन पंद्रह हमारी हमउम्र और कुछ छोटे लड़कों पर भारी पड़ जाती थीं और यदि हमारी बात ना मानी जाती तो पल भर में कुट्टा हो ज़ाया करती थी । पर किसी का भी एक दूसरे के बिना काम कहाँ चलता था तो जल्दी ही अब्बा भी करनी पड़ती अपने मुँह में अंगूठा डालकर और नाम से बुलाकर ।फिर मेल हो जाता और मछली जल की रानी का खेल शुरू । झगड़ा भी किस बात पर होना कि आज ये खेल नहीं ये खेल खेला जाएगा ,इस पर सबकी सहमति होना ज़रूरी था जो आसानी से नहीं हो पाती थी ।
अब सोचकर हंसी आती है क्या क्या करते थे हम ।पर चाहे झगड़ा हो या शिकवा शिकायत ख़ुद ही सब आपस में सुलझा लेते थे कभी भी हमारे माँ बाप को सुलह कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी ।वो सब तो अपनी अपनी ही ज़िंदगी की उलझनों को सुलझाने और हमारी ज़िंदगी को बेहतर बनाने की कोशिशों में व्यस्त थे ।हमें उनका भरपूर प्यार और देखरेख मिली । पर शायद वो सब भी हमें बाहर खेलने भेज कर निश्चिंत हो जाते होंगे कि उनके बच्चे बेहद सुरक्षित और प्रसन्न है ।
आज की तरह कभी वो हमारे पीछे खाना ले ले कर नहीं भागे । उन्हें पता था कि भूख लगेगी तो भाग कर आएँगे और माँ काम करते करते रोटी में घी नमक लगा रोल बनाकर दे देगी या घर के बने लड्डू और कनस्तर भर कर रखे बिस्कुट में से थोड़ा सा पकड़ा देगी और हम खाते खाते बाहर भाग जाएँगे ।
आज घर में क्रिसमस कूकी बन रही थी तो बचपन के उन आटे के बने बिस्कुट याद आ गए ।
उफ़्फ़ क्या स्वाद आटे के बिस्कुट होते थे । हम सबकी माँए एक साथ मिलकर आटा चीनी घी आदि लेकर सब्ज़ी मंडी में पीछे की तरफ़ बनी बेक्री में जाती थी बिस्कुट बनवाने ।कभी कभी हम बच्चे भी साथ चले जाते थे ।
कितना मज़ा आता था वो बिस्कुट बनते देखने में ,बनियान पहने दुकानदार आटा घी चीनी मिलाता फिर उनके लम्बे लम्बे बिस्कुट बनाकर भट्टी में डालता सिकने के लिए, और कुछ ही देर में सुनहरे भूरे बिस्कुट बन कर तैयार ।नमकीन बिस्कुट के फूल से बनाकर वो जब साँचे से निकालता तो लगता बड़ा ही आसान काम होगा हम भी कर लेंगे । शायद उस समय की उस इच्छा ने आज बेकिंग में इतनी दिलचस्पी करा दी ।और फिर बिस्कुट भरे कनस्तर के साथ रिक्शा में बैठकर ,माँ की उँगली पकड़े हम घर आते इस इंतज़ार में कि अब रोज़ खाने में कितना मज़ा आएगा ।उन बिस्कुटों का स्वाद आज भी याद है ।
तब आज की तरह बाज़ार से बिस्कुट के पैकेट लाने का रिवाज कम ही था ,हाँ जन्मदिन पर बिस्कुट का पैकेट ,टॉफ़ी के पैकेट भी तब जन्मदिन में उपहार में मिलते थे ।सीधी सरल प्यारी सी ज़िंदगी जी हमने ।परीक्षा आने से पहले पढ़ने की फ़िक्र कम ,इस बात की ज़्यादा होती थी कि माँ ने बेसन के लड्डू ,बिस्कुट और नमकपारे बना लिए या नहीं ? वरना पढ़ना मुश्किल होगा बिना इस नाश्ते के जो हम थोड़ी थोड़ी देर बाद खाने के लिए उठते थे । हमारा तो ये सिलसिला दसवीं बारहवीं कक्षा तक चला ।तब तो ऐसा लगता था मानो पढ़ने के लिए बैठकर हम कोई एहसान कर रहे हो ।
परीक्षा से पहले जनवरी की कड़कती ठंड में लोहरी का त्योहार आता था । वैसे तो सब लोग इसे अपने अपने घर में मनाते है ,बहुत हुआ तो बच्चे की शादी की पहली लोहरी या नए जन्मे शिशु की पहली लोहरी पर लोग मित्रों और रिश्तेदारों को बुला लेते थे ।पर हमारी लेन की तो बात ही सबसे अलग थी। यहाँ तो लोहरी हर साल बड़ी धूम धाम से मनायी जाती थी ।
हफ़ता पहले से बच्चों का लोहरी माँगने जाना शुरू हो जाता । सबके घर रात में जाकर लोहरी का गाना गाते और बदले में पैसे मिलते । वो लगता हमारी कमाई है । फिर वर्मा चाचा जी सबसे पाँच पाँच रुपए का चंदा लेते । उन रूपयों से लकड़ियाँ आती बीच लेन में बड़ा सा ढेर लग जाता ।सारे बच्चें उत्साह से उस ढेर के आस पास मंडराते रहते ।अंधेरा होते ही सब घरों से बाहर निकल कर अपनी लेन के बीच आ जाते । पुरुष बच्चे सब कुर्सियों पर जम जाते । फिर सबकी माँ बड़ी बड़ी थालियों में मूँगफली ,रेवड़ी ,गज़क ,भुनी मक्की आदि लेकर आती ।फिर आग जलाकर उसमें रेवड़ी मूँगफली आदि डालकर सबको बाँटी जाती । हमारे पास खूब ढेर लग जाता ।बच्चों के झुंड को सब ज़्यादा ज़्यादा देते । और सब मिलकर खूब गाने गाते । घंटो ये सिलसिला ऐसे ही चलता । फिर आग पर चाय का बड़ा सा पतीला रखकर चाय बनती और मिट्टी के डोलों में सब चाय पीते ।
हमें पूरे साल का ये सबसे मज़ेदार त्योहार लगता क्यूँकि देर रात तक घर से बाहर रहना वो भी खाते पीते मज़े करते और जी भर के गाते हुए ,आज भी वो समय आँखो के सामने आ जाता है और भावुक कर जाता है । आज ना वर्मा चाचा जी रहे ना चाचीं जी उनका परिवार भी बिखर गया ।अब उस घर में कोई और आ गया रहने पर आज भी सपनो में उस घर घूमती हूँ कई बार ,वर्मा परिवार की यादें विचलित कर जाती हैं ,इतना जुड़ाव उस घर से था हमारा ।
और होली को कोई कैसे भूल सकता है वो भी हमारी लेन की होली ।होली के दिन सबके घर तरह तरह के पकवान बनते और थालियों में भर भर कर मेज़ पर रखे जाते कि जब घर में लोग रंग लगाने आएँगे तो उन्हें खिलाया जाएगा । अगले दिन जब रंग खेलने का समय आता तो हम तो डर कर अपनी माँ की टोली के साथ लग जाते क्यूँकि ये लड़के ठहरे शरारती ,पक्का रंग लगा देते तो ? वो तो थोड़ा सा बड़े क्या हुए कि जाने कहाँ से पक्के रंग और सफ़ेद पेंट लाकर एक दूसरे को लगाते और कीचड़ से होली खेलते ,पर हम तो दूर दूर ही रहते ।
लेन में सबके घरों से थाल भर भर कर लड्डू नमकपारे शक्कर पारे आदि आते और बाहर रखी कुर्सियों पर बैठे बड़े लोगों को भी दिए जाते ।हम बच्चे बीच बीच में जाकर हाथ साफ़ कर लेते उन पर । पर रंग बस सूखा ही लगाते और वही लगाने भी देते । होली पर पुष्पा चाची बड़े बढ़िया गोलगप्पे बनाती ,माँ बेसन की बर्फ़ी और रंजू संजू की माँ दही बड़े , मज़ा आ जाता खाकर ।आज भी रंजू हर होली पर उसी तरह खूब सारे पकवान बना कर सबको अपने घर बुलाता है ,इस तरह सालों की परम्परा को आज भी जीवित रख रखा है उसने ।
ये सब त्यौहार तो थे ही जो सब मिलकर मनाते थे पर उससे भी मज़ेदार होता था हमारी सुरनगरी का टेलेंट शो ।आज टी वी पर ऐसे तरह तरह के शो देखने को मिलते हैं पर हमारे यहाँ साल में एक बार ये कार्यक्रम आयोजित किया जाता था जिसमें सब बच्चे अपने अपने हुनर का प्रदर्शन करते थे ।
बाक़ायदा शामियाना लगता ,टेंट हाउस से कुर्सियाँ आती थी और स्टेज बनता था । माइक ,तबला और हार्मोनीयम का प्रबंध गुरुद्वारे से हो जाता था ।वर्मा चाचा जी बड़े उत्साह से ये सारी तैयारियाँ करवाते और मंच संयोजक बनते थे रंजू संजू के पापा ।गिफ़्ट लाकर सुंदर काग़ज़ों में लपेटे जाते थे ताकि पुरस्कार दिए जा सकें ।फिर सब बच्चे मंच पर अपनी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते और खूब तालियाँ बटोरते ।
हम सभी बच्चों की छिपी प्रतिभा को बाहर लाकर ,आत्मविश्वास में वृद्धि करने का जो काम जो हमारे बड़ों ने उस समय किया उसी के कारण हम सब जीवन में अपने अपने स्थान पर श्रेष्ठतम ऊँचाइयों तक जा सके ।
अतीत की शृंखला को जो खोलने के प्रयास में बचपन की ना जाने कितनी भूली बिसरी यादें दामन थामने लगी ,ना जाने कितने चेहरे फिर से मेरी स्मृति टटोलने लगे । ऐसा लगा फिर से एक बार फिर उन बीते मधुर पलों को साथ साथ जी रहे है ।अब तो ना वो लोग रहे ना वो रिश्ते ,सूरनगरी बड़ी सूनी सूनी सी हो गयी है । लड़कियाँ तो विवाह कर दूर दूर चली गयीं ,लड़के भी कोई वहीं रह गया कोई बाहर चला गया ।अपनी अपनी ज़िंदगी और रोज़ी रोटी की तलाश ने कुछ समय के लिए सबको दूर कर दिया ।सबसे सारे सम्पर्क ही टूट से गए पर फिर से ढूँढ लाने की कोशिश तो करनी पड़ेगी भले ही यादों में करूँ।
जब छोटे थे तब तब कहाँ सोचा था कि कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि एक दूसरे का अतापता भी ना होगा ।तब तो हम सभी को अपने ख़ूबसूरत वर्तमान को जीने की ललक थी ,भविष्य की तब कौन सोचता था ।बचपन ही एक ऐसा समय है जहाँ हम केवल वर्तमान में जीते है ।फिर थोड़ा बड़े क्या हुए कि भविष्य में जीना शुरू कर देते हैं ।उम्र के पचास दशक पार करते ही भविष्य के बारे में अधिक कुछ जानना शेष ही नही रहता और तब अतीत की स्मृतियों में डूबना ,यादों के समंदर में डुबकी लगाना सुखद सा लगने लगता है ।
और बचपन की यादों का समंदर तो इतना मनमोहक होता है कि इससे बाहर निकलने को जी ही नही चाहता ।
आज फिर लिखने बैठी तो जिन यादों पर वक्त की धूल सी पड़ गयी थी जैसे फिर से साफ़ उजली सी नज़र आने लगी ।कितनी ही स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर उभर आयी ।कितने ही दोस्तों के मासूम से चेहरे आँखो के सामने आ गए ।कितने बदल गए होंगे ना वो सब भी ? शायद कहीं अपने अपने नाती पोतों की उँगली पकड़े टकरा भी जायें तो हम एक दूसरे को पहचाने भी ना ! उम्र की छाप ने कुछ तो बदल ही दिया होगा और बालों में छलकती चाँदनी ने भी शायद गरिमामंडित भी कर दिया होगा ? बरस भी तो कितने ही गुज़र गए !
आज काले चने बनाए थे पहला कौर खाते ही लगा मिर्च ज़्यादा हो गयी और साथ ही एक ख़ूबसूरत सी याद भी ताज़ा हो गयी ।
हमारे शहर में बीटीगंज के बाज़ार में शाम होते ही एक अंधा व्यक्ति एक बैंक के बाहर बने चबूतरे पर आकर बैठता था ,उसके पास एक बड़ा सा पतीला होता और खूब सारे पत्तों के बने दोने ।पतीले से आती ख़ुशबू भीड़ को खींच लाती थी ।क्या ग़ज़ब स्वाद था अंधे के छोलों में ढेर सारी मिर्च और मसाला ,सी सी करते आँख नाक से पानी निकालते दोने भर भर कर चटखारे लेकर खाते रहते । शायद ही पूरे शहर में कोई ऐसा होगा जिसने अंधे के छोले ना खाए हो ।हम सबके घर कभी भी जब वो छोले आते तो हमारे तो मज़े ही आ जाते ,और खाते खाते सोचते कि बेचारा छोले वाला अंधा है इसीलिए उससे मिर्च ज़्यादा हो जाती है ।बालमन की कल्पना क्यूँकि घर में तो ऐसा खाना बनता नहीं था । आज भी वो छोले बिकते है फ़र्क़ इतना कि अब उसका बेटा बैठा है उसी जगह पर ,और आज भी लोग उतना ही पसंद करते है ।जब भी अपने शहर जाती हूँ तो उन छोलों को खाकर बचपन को याद करती है ।
दूसरा सबसे बड़ा आकर्षण था कुंदन के समोसे और जलेबी का ।पूरे शहर में किसी के घर मेहमान आने पर कुंदन के जलेबी समोसे तो आने पक्का थे ।आज भी शहर में ना जाने कितनी समोसे की दुकाने खुल गयी पर वो स्वाद कोई नहीं ला पाया ।आज वर्षों के बाद भी ज़बान पर एक टुकड़ा रखते ही बचपन का वही स्वाद याद आ जाता है ।
यही नही बरसात के मौसम में केवल कुछ महीनो के लिए कुंदन हलवाई के यहाँ घेवर बनता था ।तीज के त्यौहार पर उसकी दुकान का घेवर हर लड़की की ससुराल पहुँचना तो जैसे अनिवार्य सा था ।क्या ग़ज़ब जालीदार घेवर और उस पर लगी खोए की मोटी परत ,शायद ही मेरे शहर का कोई व्यक्ति होगा जो उसकी तारीफ़ करते ना थके ।उस घेवर की टक्कर का आज तक कोई नही बना पाया और जिसे याद करते ही मेरे दूर दूर जा बसे साथियों के मुँह में भी पानी भर आता होगा ,इसका मुझे पूर्ण विश्वास है ।
मैंने तो बचपन की उस लज़ीज़ मिठाई को बनाने की कोशिश भी कर ली पर वो बात कहाँ जो उसमें थी ।
और मेरे शहर की एक छोटी सी दुकान जिसे मीरापुरिया कहा जाता है उसका कढ़ाई में पका हुआ दूध भी अपनी अलग ख़ासियत रखता था ।कोई फ़ैन्सी दुकान नही कोई फ़ैन्सी नाम नही बस एक साधारण सी दुकान में वो केवल रबड़ी और पेड़े बनाता था साथ में बड़ी सी कढ़ाई में दिन भर दूध पकता रहता । रात होने तक उस पर मोटी मलाई की परत जम जाती । उस दूध को पीने के लिए भीड़ लग ज़ाया करती थी ।लोग पेड़ा डलवाकर भी दूध बनवाते ।वो बड़े से लोटे में दूध नाप कर निकालता उसने चीनी या पेड़े डालकर खूब उछालता ,फिर उसे मिट्टी के डोले में डालता और ऊपर मलाई की परत जमा देता । वाह क्या स्वादिष्ट दूध होता था ।आज भी उस दुकान में केवल यही मिलता है ।और उसकी दुकान की ख़ास चक्का जमी हुई ,अजब मिठास से भरी और ऊपर से मोटी मलाई की परत से ढकी दही का स्वाद ही नही भूलता ।आज भी घर में बढ़िया जमी दही की मिसाल मीरपुरिए की दही से दी जाती है ।हम मायके जायें या मायके कोई आए तो मीरपुरिए के पेड़े आना तो लाज़मी ही है।
पुराने शहरों की अपनी एक ख़ासियत होती थी ,एक अलग परम्परा जो शायद कभी नहीं बदलती ।इसीलिए शायद आज भी हम अपने शहर से इतने जुड़े है ।शहर की हर जगह से जुड़ी अपनी छोटी छोटी यादें कभी भी दामन नही छोड़ती ।