VIBHAJAN in Hindi Comedy stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | विभाजन

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विभाजन

कहानी

विभाजन

-आर.एन.सुनगरया,

‘’दीनदयाल जी....!’’

’’आओ...आओ रत्‍नेशजी...!’’

’’किस सोच में....!’’

’’कुछ नहीं...’’ दीनदयाल ने बताया,

‘’कुछ पुराने दृश्‍यों में खो गया था।‘’

‘’कुछ खास!’’

’’ऐसे वाकिये याद आकर सताते हैं।‘’

दीनदयाल ने अपना रूख साफ किया, ‘’जिन्‍हें किसी भी स्‍तर पर स्‍वभाविक नहीं कहा जा सकता, जो किसी भी परम्‍परा में अनुकूल नहीं होते।‘’

‘’स्‍पष्‍ट करिए अपना आसय।‘’ रत्‍नेश ने जख्‍़म कुरेदे।

‘’मेरा भाई....’’

‘’भाई!’’

‘’हॉं सगा भाई’’ आहिस्‍ता-आहिस्‍ता दीनदयाल की याददास्‍त स्‍पष्‍ट होने लगी। अपने मन की गांठें ढीली करने की मंशा बना लिया। सुनाना शुरू.......शरारतें क्षमा योग्‍य हो सकती हैं, हरकतें कुछ हद तक सहन की जा सकती हैं। परन्‍तु साजिशें किसी भी स्थ्‍िाति में क्षमा नहीं की जा सकतीं, कोई भी अपनी प्रतिक्रिया दर्ज किये बगैर रह नहीं सकता। यह उसके अपने अस्तित्‍व के लिये भी परम आवश्‍यक है।

.......जब कोई स्‍वजीवी आ‍र्थिक स्‍तर पर सुदृढ़ हो जाता है, तब उसका आत्‍मविश्वास अपनी स्‍वार्थपूर्ण गतिविधियों में स्‍पष्‍ट परिलक्षित होने लगती हैं। विडम्वना यह है कि यह सब वह स्‍वयं नहीं महसूस कर पाता एवं अपने अघोषित मिशन पर अग्रसर हो जाता है, फिर उसे किसी के मान-सम्‍मान, एहसास आन्‍तरिक स्थ्‍िाति, आत्‍म–सम्‍मान, कोई समस्‍या, आशा-आकांक्षा, याचना तथा ऐसी ही अनेक मूलभूत मानवीय स्‍म्‍वेदनाऍं-भावनाऍं, जिन्‍हें लेकर वह उस अहंकारी के पास राहत पाने की उम्‍मीद में आता है। सम्‍पूर्ण छवि एवं व्‍यक्तित्‍व सब-के-सब निर्मूल हो जाते हैं।

वह वगैर किसी मापदण्‍ड का, मर्यादा का, रिश्‍तों का, गरिमा का, बौद्धिक सम्‍पदा का ज्ञात-अज्ञात अनुभवों का...दमन करता हुआ उन्‍हें निर्ममता पूर्वक कुचलता हुआ अपने उपदेश झाड़ने लगता है। अनावश्‍यक जैसा अपना प्रिय शौक पूरा कर रहा हो। अपने आप को उच्‍च, बलकि सर्वोच्‍य समझने लगता है। सम्‍मुख खड़ा प्राणी निरीह, तुच्‍छ सरीखा महसूस करने लगता है। उसके झूठे अहंकार के आगे।

तदोपरान्‍त वह प्रताडि़त करता हुआ अपने-आप को गौरान्वित महसूस करने लगता है। अपनी स्‍वयंभू विजय पर हर्षित होता रहता है। जैसे सम्‍पूर्ण भविष्‍य अपनी मुट्ठी में बन्‍द कर रखा हो। अपनी कठपुतली बनाकर।

वह गर्वीले अन्‍दाज़ में खड़ा होकर जिसको नसीहतें दे रहा है, उसके एहसान उसकी कुर्वानियाँ, उसकी मेहरबानियाँ, वह जानबूझकर नज़र अन्‍दाज कर रहा है। जो इन्‍सानियत की दृष्टि में सर्वथा अनुचित कहा जा सकता है। दीन-ईमान के बिना मनुष्‍य इन्‍सान नहीं हो सकता। मुखोटेबाज ही हो सकता है।

सिस्‍टम की काली कार्य पद्धिति के नशीले प्रभाव के तहत अपने नाशुक्रेपन में उस कर्ज को भूल चुका है, जिसके अभाव में वह नर्कीय जीवन जीने हेतु बाध्‍य था।

आज रिश्‍तों की परिभाषा किसी भी दृष्टिकोण से आंकलन कर लीजिये सारान्‍स (सारांस) यही निकलेगा कि जब तक परस्‍पर स्‍वार्थ सिद्ध होता रहेगा, तब तक ही रिश्‍ता टिका रहेगा।

समय के साथ स्‍वयं को न ढाल सका, हर समय स्‍वभाविक रूप से किसी ना किसी के आश्रित रहकर अपनी नैया पार करने पर विश्‍वास करता रहा और यही अटल विश्‍वास के स्‍तम्‍भों का ऐन वक्‍त पर सहारा नहीं मिला यानि, धोखा खाया। विश्‍वासघात का हमेशा शिकार होता राहा एवं बार-बार सम्‍हलने की शक्तिक्षीण होती गई। हर स्‍तर पर पिछड़ता रहा।

‘’पूर्ण विचार और मंथन करके ही किसी की मदद करता है कि अपने भी....।‘’ मैंने दीनदयाल को सान्‍तवना देनी चाही, ‘’कोई भी इसी आस में किसी को मुसीबत पड़ने पर सहारा आयेगा! अपने बुरे समय में।‘’

‘’वह तो ठीक है।‘’ दीनदयाल ने अपनी उदारता का कारण बताया, ‘’खून के रिश्‍ते, खून के रिश्‍तों के कान भरेगा!! कौन सोच सकता है!’’ वह आगे बोला, ‘’परम्‍परागत अटल रिश्‍तों–नातों पर कौन शक-शंका करेगा। समाज का परस्‍पर रिश्‍तों से विश्‍वास उठ जायेगा! जो आदिकाल से निरन्‍तर प्रचलन में है। रिश्‍तों की व्‍याख्‍या खण्डित नहीं हो जायेगी!’’

सिर्फ समय ही परिवर्तनशील नहीं, इसके साथ-साथ हर वस्‍तु, प्रत्‍येक्ष-अप्रत्‍येक्ष वक्‍त के साथ-साथ पूरी सृष्टि समान्‍तर बदलती रहती है। वह चाहे धारणा हो, विचार हो, परम्‍परा हो, संस्‍कृति हो, संस्‍कार हो, जीवन पद्धिति हो, भावना हो, प्रेम हो, प्रीत हो आसमान हो, पृथ्‍वी हो यानि सम्‍पूर्ण ब्रहमाण्‍ड अपने स्‍वरूप में परिस्थिति अनुसार निखार या हृास स्‍वत: करता रहता है। इसी प्रकृति के नियम के सिद्धान्‍त पर मनुष्‍य का जीवन आधारित होता है। तो प्रत्‍येक स्थिति में बदलाव अवश्‍यभावी है। इससे विचलित होना निर्मूल होगा। स्‍वीकार करने में ही शॉंति है। उचित है।

‘’अशॉंत आत्‍मा हूँ।‘’ दीनदयाल बोल पड़ा, ‘’खै़र जीवन में उतार-चढ़ाव.....।‘’

‘’हॉं, वह तो है...।‘’ दीनदयाल बोलता ही गया--

----महसूस करो तो पता चलता है कि रक्‍त के रिश्‍तों में तुच्‍छ स्‍वार्थपरता

या अपनी कोई खुन्‍दक व फाँस निकालने के लिये अपने भाई ने ही अपने अल्‍प बुद्धि से भतीजे के कान भरे,

‘’घर खर्च तो मेरी ही दया पर चलता है!’’

‘’इस झूठी जानकारी ने बच्‍चारें के दिमाग में अव्‍यक्‍त ग्‍लानि व्‍याप्‍त हो गई।‘’

‘’तो फिर?’’ रत्‍नेश ने पूछा

‘’मैंने तत्‍काल!’’ दीनदयाल ने अपनी कार्यवाही बताई, ‘’बहकावे को सच ना मान बैठें, मैंने उससे मेल-जोल बिलकुल बन्‍द कर दिया।‘’ आगे बोला, ‘’इससे बच्‍चों में आत्‍म स्‍वाभिमान जागा। उन्‍हें विश्‍वास हो गया, काका झूठ बोल रहे हैं। बाप-बेटे के रिश्‍ते में दरार व शंका डालना चाहते हैं।‘’

‘’ऐसी हरकत दोबारा;;;;;;।‘’

‘’कुछ दिन तो शॉंति बनी रही!’’

दीनदयाल ने बताया, ‘’बच्‍चों को ये सब झूठा प्रचार-प्रसार या नियोजित साजिश के अर्न्‍तगत आश्‍वासन का माहौल निर्मित किया जा रहा था।‘’

‘’आगे तो समय सामान्‍य हुआ ना’’ रत्‍नेश ने जानना चाहा।

‘’सुअर अपनी फितरत, भूल नहीं सकता, जहॉं भी जायेगा गन्‍दगी फैलायेगा।‘’ दीनदयाल कुछ गम्‍भीर प्रतीत हुआ।

बच्‍चे लालची नहीं थे। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरा भाई ही, बच्‍चों को कुछ राशी चटाकर एवं भविष्‍य के सुनहरे सपनों का आश्‍वासनों के सब्‍जबाग दिखाकर लोभी बना देगा तथा मेरे विरूद्ध खड़ाकर, अनापेक्षित स्थिति पैदा कर देगा।

‘’तेरे पापा तुझे परिश्रम के अनुसार वेतन नहीं देते।‘’ अचूक दाव!

बच्‍चे यह नहीं समझ पाये कि जब व्‍यापार या संस्‍थान अपना ही है, हम ही मालिक हैं, तो काम के बदले हमारा व्‍यक्तिगत नफा-नुकसान के आंकलन का प्रश्‍न ही नहीं उठता! हमारी सम्‍पूर्ण आवश्‍यकताऍं निर्बाध पूरी हो ही रही हैं। अपना खर्च आसानी से पूरा हो जाता है; ना ही कोई कठिनाई, ना ही किसी तरह तंग्‍गी महसूस होती, तो यह नौबत ही नहीं आती। हमें वेतन नहीं, लाभांश से सामान्‍य हाथखर्च मिलता है। हमारे रोजमर्रा के खर्च हेतु। इससे ज्‍यादा आवश्‍यकता भी नहीं थी। असंतुष्‍टी कैसी।

‘’यानि भाई बाप-बेटों के बीच खटास पैदा करना चाहता था।‘’

‘’हॉं यही उसकी नीयत थी।‘’

‘’सफल हुआ? अपनी मंशा में।‘’

‘’हॉं, बिलकुल!’’ दीनदयाल ने आगे कहा, ‘’ मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ, जब उसके बोये हुये ज़हर का दुष्‍परिणाम सामने आया।‘’

‘’मतलब?’’

‘’बेटों ने उसकी सीख पर, अपने-आप को सचेत कर लिया।‘’ दीनदयाल ने रहस्‍योद्घाटन किया, ‘’वे मेरी नज़र बचाकर अपनी हिस्‍सेदारी, स्‍वॉंकलन कर उड़ाने लगे। जो किसी भी कारोबार के लिये घुन लगाना कह सकते हैं। धीरे-धीरे कुतरते-कुतरते स्‍ंस्‍थान की आर्थिक सेहत को कमजोर करना बलकि चौपट करना कहलाता है।‘’ दीनदयाल ने कहा, ‘’चोरी की आदत, वह भी अपने ही घर में.......।‘’

‘’हॉं यह तो गलत प्रवृति पनपना ही हुआ।‘’ रत्‍नेश ने शंका जताई।

‘’ग्राहकों से स्‍वयं डील करना वह भी मेरी आलोचना करके।‘’

तुमने अपने अनुभव से व सूझबूझ से संस्‍था स्‍थापित की, परिपूर्ण इकाई खड़ी की।‘’ रत्‍नेश ने कहा, ‘’इतना बड़ा जोखिम उठा कर और वह भी इन्‍ही के भविष्‍य को सुरक्षित करने के लिये। इसी को अपने पैर पर कुल्‍हाड़ी मारना कहते हैं।‘’

सर्वसाधारण सम्‍पन्‍न संस्‍था देखकर तत्‍काल शादी का प्रस्ताव आ गया। मैंने भी देर नहीं की तुरन्‍त हॉं कह दी, चलो एक बेटे की तो घर गृहस्‍थी बसाओ।

चूँकी मैं अपनी पूरी जमापूँजी संस्‍था को परिपूर्ण व लाभदायक बनाने में लगा चुका था। तो भाई के आश्‍वासन पर निर्भर था। विश्‍वास करके तुरन्‍त जोखिम उठा लिया। देखेंगे बाप-बेटे रात-दिन परिश्रम करेंगे। चुकता कर देंगे, जल्‍दी ही। लेकिन ऐन वक्‍त पर भाई ने पल्‍टी मार दी, ‘’आप अपना बचाखुचा एमाउंट निकालकर अपनी जिम्‍मेदारी निबटा लो। छोटा-मोटा मदद मैं कर दूँगा। जो समय पर होगा।‘’

भाई का टका सा जबाव सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई, मगर मैं अपनी जबान दे चुका था। उसमें कोई रद्धोबदल, समाज में अपनी किरकिरी कराने जैसा था।

‘’फिर क्‍या किया?’’

‘’दोस्‍तों को अपनी स्थिति खुलकर बताई, ऐसे हालातों का पहले भी सामना करना पड़ा था, तब भी दोस्‍तों ने ही सम्‍हाला था।‘’

‘’मांगलिक कारज में कोई विघन तो नहीं हुआ?’’ रत्‍नेश ने पूछा,

‘’नहीं!’’

‘’तो फिर....समस्‍या ?’’

‘’वर्चस्‍व!’’ दीनदयाल ने रहस्‍योद्घाटन किया, ‘’भाई के दिल-ने एक कसैली खुन्‍दक को जन्‍म दे दिया। जो पल्‍लवित होती हुई कुछ वर्षों बाद विस्‍फोटक रूप में सामने खड़ी हो गई एक अचूक साजिश के दुष्‍परिणाम स्‍पष्‍ट दिखाई देने लगे।‘’

परिश्रम पूर्वक तन-मन-धन से सुसंगठित सम्‍मानजनक, सम्‍हाला गया मुकाम छिन्‍न-भिन्‍न कर दिया। पुनर्गठन का समय सम्‍भावनाऍं सम्‍पूर्ण समाप्‍त हो गया।‘’

वातावरण में सन्‍नाटा सा छा गया।

दीनलदयाल ही बोला, ‘’बस एक फिल्‍मी गीत याद आता रहा,........मुझको बर्बादी का कोई ग़म नहीं, ग़म है बर्बादी का क्‍यों चर्चा हुआ........!!!’’

‘’मगर हुआ क्‍या, आगे,...।‘’ रत्‍नेश ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, ‘’कुछ समझाकर विस्‍तार से स्‍पष्‍ट बतारइऐ।‘’

‘’हॉं.....हॉं क्यों नहीं...।‘’ दीनदयाल जैसे सबकुछ उड़ेलने हेतु उदित था, ‘’पर भाई ने एक कुप्रवृति पाल रखी है, अपने दिल-दिमाग में, अहंकारवश!’’

‘’कैसी दुष्‍प्रवृति या दुर्भावना......?’’

‘’उसे हमेशा, जलन होती, जब कोई मेरी प्रसंशा करता। मेरे साहस व परिश्रम भरे असहज कार्यों को करते हुये आगे बढ़ने के बखान को पचा नहीं पाता, वह।‘’

‘’तुमने उसे समझाया नहीं?’’

‘’नहीं! मेरा विचार था कि अच्‍छा ही है, यही जलन उसे मुझ तक पहुँचने की शक्ति देगी। वह अपने लक्ष्‍य को पा लेगा, तब करूँगा!’’

‘’तब!!’’ रत्‍नेश ने जानना चाहा, ‘’मंजिल मिली उसे?’’

‘’मिली तो, शायद!’’ दीनदयाल ने उदास होकर आगे कहा, ‘’मगर अहंकार ने अपना इतना प्रभाव जमा लिया कि उसके सम्‍पूर्ण व्‍यक्त्वि में घमण्‍ड का पुट प्रतीत होने लगा।‘’

‘’तुमने कुछ समझाईश, रोका-टोकी, रोका-रोकी नहीं की।‘’

‘’की, सारे के सारे प्रयास किये।‘’ दीनदयाल ने अपनी विवश्‍ता बतायी, ‘’मगर कुछ सुनने-समझने की आवश्‍यकता ही नहीं समझी उसने; वह तो अपने नशे में सरपट भागा जा रहा था।‘’

दीनदयाल ने अपना बोलने का वेग धीमा करके एवं गम्‍भीर होकर बताया, ‘’अपने वर्चस्‍व से उपर किसी का नाम या झण्‍डा देखना नहीं चाहता था। कुछ चापलूस, चाटूकार, चालाक, चम्‍मच किसम के गिरोह ने उसको पूरी तरह घेर लिया। उसके दिमाग को चाटूकारिता से अपने अनुकूल कर लिया। बस फिर क्‍या था, उनकी चल निकली। उन पर वह ऑंखें बन्‍द करके विश्‍वास करने लगा। रिश्‍ते में कोई कुछ भी हो, उसे प्रताडि़त, अपमानित हतोत्‍साहित करने एक पल की भी देरी नहीं हो सकती। एक तरफा निर्णय अपने पक्ष में!! चाहे किसी भी तरह का नुकसान-नफा हो कोई परवाह नहीं; अपूर्णनीय विभाजन ही क्‍यों ना हो जाये।

♠♠♠ इति ♠♠♠

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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