उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का काल भारत दासता में जकड़ा हुआ , गरीबी राजा-रजवाड़ों और संप्रदायों में बिखरा हुआ दिखता था । इस काल में विदेशी ताकतें सामाजिक आंदोलन और समाज सुधार के नाम पर सीधे भारतीय दर्शन को आघात पहुॅंचा रही थी । गीता के कथनानुसार ही
यदा यदा धर्मस्यहलार्नि भवति भारतः
अभ्युत्थानम्धर्मस्य विनाशाय च दुस्कृताम्
को चरितार्थ करते हुए कलकत्ता के सिमुलिया नामक मोहल्ले में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर 12 जनवरी 1863 को उनका लाड़ला ‘‘बिले’’ रामकृष्ण परमहंस के नरेन्द्र नाथ और हम सब के धर्म ध्वज अवतार स्वमी विवेकानन्द ने अवतार लिया ।
नरेन्द्र नाथ प्रारम्भ से ही जिज्ञासु प्रवृति के थे । वे किसी भी तथ्य को अनुभव पर परखने पर विश्वास करते थे । इस काल में बंगाल ब्रम्ह समाज के आंदोलन से प्रभावित था । दर्शन के छात्र नरेन्द्र ब्रम्ह समाज में शामिल हो गए । उनकी जिज्ञासा की प्रबलता बढ़ रही थी । अब वे सोचने लगे थे कि ह्युम और बेन की नास्तिकता , डार्विन का विकासवाद , डिकार्ड का अहंवाद , स्पेंसर का अज्ञेयवाद और मिलर के यर्थातवाद में क्या सर्वथा उचित और उपयोगी है ?
नरेन्द्र नाथ को सत्य और ब्रम्ह के साक्षात्कार की धुन सवार थी । वे हर साधु ,महात्मा और सन्यासी से पूछते कि क्या उन्हांने सत्य और ब्रम्ह के दर्शन किये है ? आचार्य रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र में एक योग्य शिष्य देखा और उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया परन्तु नरेन्द्र के संसय ने परमहंस को उनके प्रश्नों के उत्तर प्राप्त होने के बाद ही गुरू के रूप में स्वीकार किया । योग्य गुरू और शिष्य के संयोग से ही अखण्ड भारत में नरेन्द्र से विवेकानन्द का उद्भव हुआ ।
विवेकानन्द ने धर्म को सही अर्थों में समझा । धर्म की व्याख्या दर्शन में दो प्रकार से की जाती है :-
अ- ध्रियेते लोकोडनेन अर्थात जिसके द्वारा संसार को धारण किया जाता है ।
ब- धरति लोकंवा अर्थात जो लोक को धारण करता है ।
विवेकानन्द का चितंन कहता था कि धर्म को धारण करने से लोक संधारित होता है । वे मानते थे कि जिस प्रकार सूर्य पूर्व से उदय होता है उसी प्रकार विश्व में चिंतन , अध्यात्म और दर्शन की बयार भी पूर्व से ही बहती है । वे कहते थे कि प्रत्येक धर्म ,दर्शन और चितंन को अपने आपकी श्रेष्ठता का अधिकार है, परन्तु अन्यों की निन्दा का नहीं । वे मानते थे कि धर्म ग्रंथ गीता ,कुरान और बाईबिल आदि पूजा स्थलों में सजा कर पूजा करने की वस्तु न हो कर अध्ययन करके जीवन में उतारने हेतु पवित्र साधन है । वे निराकार के मानते थे ,परन्तु साकार का सम्मान करते थे । वे अद्वेत में विश्वास करते थे ,परन्तु द्वेत की मिमांसाओं का अध्ययन और मनन करते थे । वे आत्मा की गहराई से मानते थे कि हिन्दू को हिन्दू , बौद्ध को बौद्ध और इसाई को इसाई ही रहना चाहिए स्वामीजी गुरू - शिष्य परम्परा को मानते थे । वे उत्तम गुरू को रामकृष्ण परमहंस के रूप में शिष्य के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करने वाला मानते थे । उत्तम गुरू में ज्ञान , कौशल , व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास की क्षमता, दया , प्रेम, कठोरता, अनुषासन के गुणों को देखते थे । शिष्य में वे श्रद्धा, अनुशासन ,ज्ञान,ध्यान, कौशल विकास की जिज्ञासा और प्रेम आदि गुणों को प्रधान मानते थे । वे स्त्री षिक्षा के समर्थक थे ;वे युवाओं को शिक्षा और चिन्तन के माध्यम से राष्ट्र से जोडना चाहते थे ।
रामकृष्ण परमहंस के 14 जनवरी 1886 को महासमाधी में विलीन होने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने देश में अपनी धर्म यात्रा काशी में द्वारकादास आश्रम में अखण्डानन्द और प्रेमदादास के साथ शास्त्र चर्चा के उपरांत प्रारम्भ की । 1888 में लखनऊ , आगरा , वृंदावन धाम और हाथरस गए; इस दौरान अनेक लोग उनके शिष्य बने । 1889 से कामार पुकुर से मई 1893 तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक धर्म ध्वजा फहराती रही । इस दौरान अनेकों राज घराने और समकालीन विख्यात विभूतियों ने स्वामी जी के विचारों की गंगा में स्नान किया । अनेकों लोगों के आग्रह और सहयोग से 31 मई 1893 को जल मार्ग से बम्बई से शिकागो के लिए रवाना हुए । विदेश में प्रो. बर्नी , जे.एच. राइट ,डा. बैराज और श्रीमती जार्ज. डब्ल्यू. हैल के सहयोग से अंतिम समय में विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी जी को अवसर प्राप्त हुआ । इस सम्मेलन में ब्रम्ह समाज की ओर से प्रताप चंद मजूमदार , जैन समाज से नागरकर और वीरचंद गॉंधी और थियोसोफिकल सोसायटी से एनी बिसेन्ट भी उपस्थित थी । 11 सितम्बर 1893 को विश्व के लिए एक ऐतिहासिक दिन था ,जब विवेकानन्द अपने आख्यान में कह रहे थे कि -
ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथेत मजाम्यम्
मम वार्त्मानुर्वते मुनष्यां पार्थ सर्वषः
अर्थात अंत में सबको मुझमें ही मिलना है । परम तत्व की विवेचना का यह स्वरूप तत्व चिंतकों को प्रभावित कर रहा था । लोग पूछ रहे थे कि आज तक पूर्व से कोई संत क्यों नहीं आया ? फिर भी यह मानना कि शिकागो से ही विवेकानन्द को जाना जाता है ,सर्वथा अनुचित है ; वस्तुतः शिकागो सम्मेलन को विवेकानन्द के नाम से जाना जाता है ।
एक निर्भीक , धर्म परायण, धर्म ध्वजा धारक , धर्म से समाज के उत्थान के दर्शन को मानने वाले चिंतक आज भी हमारे लिए उतने ही अनुकरणीय है जितने वे अपने महानिर्वाण के समय 4 जुलाई 1902 को थे । यदि हम आज उनके मत के साथ देश निर्माण का प्रण लेकर विदा हो तो उनका स्मरण सार्थक होगा ।
आलोक मिश्रा "मनमौजी"
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