रत्नावली
रामगोपाल भावुक
ग्यारह
जीवन में कुछ काम खेल की तरह आनन्द देते हैं। यही सोचकर रत्नावली खेल जैसा आनन्द पठन-पाठन में लेने लगी थीं। शास्त्री जी के प्रथम शिष्य गणपति को पढ़ाने का दायित्व अपने हाथ में लेने से उन्हें आनन्द की अनुभूति हो रही थी। उसके पिता विधवत् अध्ययन जारी कराने के लिए चक्कर लगा रहे थे। कुछ दिनों से रत्नावली इस उधेड़बुन में रहने लगी कि अध्ययन किस प्रकार शुरू किया जाये ?
पुरानी परम्परा और नये परिवेश में द्वन्द्व छिड़ गया था। लेकिन सबसे पहली बात थी, शिक्षा-दीक्षा का यह कार्य शुरू कैसे किया जाये ? पुराने तथ्यों के प्रति आकर्षण कोई खराब बात भी तो नहीं है। बालमन पर भी इसका असर अनुकूल ही पड़ेगा। मैं भी पुराने ऋषि मुनियों की आश्रम प्रणाली की तरह ही इसका रूप रखना चाहती हूँ।। लेकिन शिक्षा के दरवाजे हर किसी के लिए खोलना चाहती हूँ। प्रश्न उठा, क्या मैं अपने आश्रम में पिछडी जातियों और मुसलमानों को स्थान दे पाऊॅँगी। स्थान न देना मानवता के प्रति अन्याय होगा।.............और इसी कारण देश मुगलों के चंगुल मे चला गया है। लोग आज पुराने इतिहास को भूल रहे हैं। सम्राट अशोक के शासन की कल्पना ही जनमानस से हटने लगी है। उसे पुनः लाना होगा। यदि कोई मुसलमान होकर आश्रम में प्रवेश चाहेगा, तो यह तो हमारे लिए गर्व की बात होगी।
बकरीदी अपने लड़के रमजान को पढ़वाना चाहती है। जिस तरह द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपमानित किया। क्या उसी तरह मुझे भी किसी को शिक्षा देने से मना कर देना चाहिए, प्रश्न उठा- यदि मैं इस रास्ते से चलती हॅूँ तो क्या गणपति पढ़़ने आयेगा ? वह दूसरे बालकों के साथ पढ़ सकेगा। लोग यह क्यों मानते हैं कि शूद्रों को पठन-पाठन का अधिकार नहीं है। मैंने विद्रोह के लिए ही जन्म लिया है। तो फिर इस काम को अपने हाथ में लेने का प्रयास तो करूँ। मैं यह जानती हूँ।, लोग मुझसे क्या-क्या नहीं कहंगे ? कहें, क्यों चूकें? अभी कहने से कौन चूक रहा है? मैं अब लोगों की परवाह नहीं करती।
इस तरह न जाने क्या-क्या उनके सोचने में आता रहा ? और एक दिन बकरीदी अपने लड़के रमजान को उनके यहॉँ पढ़ाने के लिए छोड़ गयी।
जब यह बात गॉँव के लोगों को पता चली तो उन्हें विरोध करने का मौका हाथ लग गया। घर-घर में चर्चा शुरू हो गयी। बकरीदी के घर का आलम ही अलग था। रमजान का बड़ा भाई हसन खॉँ अम्मीजान से नाराज होकर कह रहा था-‘अम्मीजान अब तो तुम खुदा के फजल से रमजान मियाँ को शास्त्री बना कर ही रहोगी। अरे! मदरसे में ही क्यों नहीं भेज देतीं, कुछ सलीका सीख जाता।... फिर अपने यहॉँ दर्जी का काम तो सम्भाले नहीं सँभलता। उसमें ही हाथ बटाता।‘
बकरीदी बोली ‘अच्छे लोगों के पास अच्छी बातें ही सीखेगा कि नहीं, बोले।‘
यह सुनकर उसे बेबस होकर बात का समर्थन करना पड़ा। बोला-‘यह तो ठीक है, लेकिन अम्मीजान आप समझती क्यों नहीं कि यह अपने इस्लाम की तौहीन है।‘
यह सुनकर बकरीदी सनक गयी ,बोली-‘तोबा-तोबा यह क्या बकता है रे हसन। पढ़ने-लिखने में कहीं इस्लाम की तौहीन होने लगी फिर तो यह पढ़ने-लिखने ही बेकार है।’
यह सुनकर हसन ने हिन्दू धर्म पर अपना आक्रोश उॅंडेला-‘अम्मीजान तुम पर रत्नावली चाची ने जादू ही कर दिया है। अन्यथा ऐसे न कहतीं। हमारे पुरखे मूरख तो नहीं थे जो इस्लाम को अपनाते। अब उसे भी बदला तो जा नहीं सकता।‘
बकरीदी ने इतिहास के कुछ पृष्ठ पलटे और बोली-‘तुम्हारे अब्बाजान के अब्बाजान मुगल की फौज में ऊँचा ओहदा पाने के लालच में फँस गये।‘
हसन ने अपना निर्णय सुनाया-‘तो क्या रत्ना चाची तुम्हें फिर हिन्दू बना लेगी‘
यह सुन बकरीदी एक क्षण तक तो सोचती रही फिर रुआँसे स्वर में बोली-‘तो क्या अब उसे इलम हासिल करने से रोक लूँ।‘
यह सुन हसन को लगा- पहले तो रमजान को उसने जाने ही क्यों दिया। अब रोकने में हॅँसी होगी। फिर अम्मीजान को दुखी करने से कौन सा धर्म रह जायेगा ? यह सोच कर वह बोला-‘ठीक है अम्मीजान, आपने अच्छा ही किया हम जहॉँ के वासी हैं वहाँ की बातें भी तो हमें भुला नहीं देनी चाहिए। यह धरती भी तो हमारी ही है।‘ जब हसन की यह बात बकरीदी ने सुनी तो उसके खुशी के आँसू निकल आये।
इधर काछियों के मोहल्ले में पण्डित सीताराम चतुर्वेदी ने अपनी बात का प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनकी चौपाल पर खाट पड़ी थी। पण्डित जी पालथी मारकर उस पर शानोशौकत के साथ विराजमान हो गये। उन्होंने बैठते ही कहा-‘क्यों रे विजय सिंह तू अपने लड़के को एक चटाई क्यों नहीं ला देता। वह भी कुछ इलम सीख जायेगा ! रत्ना बेटी अब मुसलमानों को पढ़ाने को तैयार है तो फिर तू क्यों चूकता है।‘
यह सुन विजय सिंह ने अपनी उत्सुकता व्यक्त करते हुये पूछा-‘सुना है पण्डित जी महाराज रत्ना काकी पढ़ाने में बड़ी मेहनत करती हैं। सारे छात्र अपनी-अपनी चटाई लेकर जाते हैं। सुनते हैं आठ- दस बच्चे हो गये।‘
यह सुन पण्डित जी को अन्दर ही अन्दर पीड़ा हुयी, बोले-‘अरे वह क्या पढ़ायेगी! जिसने अपने आदमी को भगा दिया हो उससे कुछ आशा करना बेकार है। पढ़ने-लिखने का काम तो ब्राह्मणों का रहा है। कभी पत्रा-बत्रा दिखाना हो तो हम किसलिए हैं।‘
पास बैठे रामचरन ने पण्डित जी की बात का समर्थन करने के लिए कहा-‘कहते हैं पण्डित जी कि थोड़े पढ़े सो हर से गये और जादा पढ़े सो घर से गये।‘
यह सुनकर पण्डित जी ने रामचरन की बात की दाद दी। बोले-‘यह है समझदारी की बात। बताओ क्या रखा है पढ़ने-लिखने में ?‘
मोहल्ले के लोगों की भीड़ बात को सुनने के लिए जमा हो गयी थी। वे मन ही मन रत्ना मैया के काम को समझने का प्रयास कर रहे थे। पण्डित जी का पढ़ने-लिखने की बातों के प्रति लोगों में उदासीनता की भावना भरना खल रहा था। लेकिन गुरुवाणी का विरोध करना, काछियों की पूरी जमात में से किसी में न था।
बातें हनुमान जी के मन्दिर पर बैठे लोगों में भी चल पड़ी थीं। बात रामा भैया के कानों में भी आ गयी थी कि धोती वाले पण्डित जी ज्यादा सिर उठा रहे हैं। बहन बेटी का भी ध्यान नहीं है। रत्ना भौजी के विचार बहुत ऊंचे हैं। वे तो प्रत्येक प्राणी में प्रभू का ही रूप देखती हैं। सारे चराचर में एक ही आत्मा व्याप्त है फिर दुराव कैसा ?
‘उन्हें गम्भीर मुद्रा में देखकर रामदयाल बोला-‘रामा भैया क्या सोचने लगे ?‘
उनके मुँह से निकला ‘यही रत्ना भौजी के बारे में ?‘
रामदयाल यह बात सुनकर समझ गया, वे क्या सोचते होंगे ? बोला-‘धोती वाले पण्डित जी तो घूम-घूम कर कुप्रचार कर रहे हैं।‘
दूसरा साथी जो बातें सुन रहा था, बोला-‘पण्डित सीताराम जी कह रहे थे, रत्नावली के कारण तो हमारा धर्म ही नष्ट हुआ जा रहा है।‘
रामा भैया सोचने लगे- इन पण्डितों को जाने कब समझ आयेगी।
बसंत पंचमी का पर्व आ गया। रत्नावली ने इस पर्व को अपने शिष्यों के साथ मनाने का निश्चय किया। शिष्यगण अपनी-अपनी चटाईयों पर बैठ गये। इसी समय अन्दर से निकल कर रत्नावली पौर में आ गयी। शिष्यों में प्रतिदिन की तरह उनके चरण छूने की होड़ सी लग गयी। चरण छूने के बाद अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। उनके समक्ष काठ की पट्टियॉँ थीं। बररू रखी थी। खड़िया के घोल की दवात थी। वे शान्त मुद्रा में बैठे थे। इस कार्यक्रम को देखने गॉँव के कुछ लोग भी आ गये। आज इस अवसर पर रत्ना भैया ने रामा भैया को बुलवा लिया। उनके लिए पौर के चबूतरे पर बैठने की व्यवस्था थी। पौर की पटक पर वे स्वयं विराजमान थी ही। इसी अवसर पर उन्होंने बोलना शुरू किया-‘उपस्थित सज्जनों और प्यारे शिष्य, आज इस अवसर पर मन आपसे कुछ कहने को हो रहा है। मैंने जो कदम उठाया है, लग रहा है आप सबने उसका स्वागत किया है। मैंने समाज को जो कुछ अर्पण करने का विचार किया है, उसे गृहीता तक पहुँचाने में आप मदद कर रहे हैं। हमारे देश में चार वेद, अठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद तथा वाल्मिीकि रामायण जैसे ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। मैं इन बालकों को हिन्दी भाषा सिखाना चाहती हूँ।। किसी विषय के ज्ञान की शुरूआत तो है अन्त नहीं। ज्ञान के खोज की अनन्त सम्भावनायें व्याप्त हैं।
एक निवेदन यह है कि यहॉँ छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी के बच्चों को एक साथ बैठकर पढ़ना-लिखना पड़े़गा। पुराने समय में आश्रम प्रणाली थी। उसमें कृष्ण और सुदामा साथ-साथ अध्ययन करते थे। उज्जैन तो आज तक शिक्षा का केन्द्र बना हुआ है और बना रहेगा।
इस अवसर पर मैं इतिहास की गलती को दोहराना नहीं चाहती। आप लोगों को ज्ञात होगा, कौरव-पाण्डवों के गुरु कौन थे ?’
उत्तर मिला-‘द्रोणाचार्य।’
‘हॉं! गुरूदेव ने एकलव्य को राजकुमारों के साथ शिक्षा देने से इन्कार कर दिया था। गुरु को इस तरह का भेदभाव करना शोभा नहीं देता। एकलव्य में निष्ठा थी। अभ्यास था। वह अर्जुन से अच्छा धनुर्धर भी था। उसने शब्द भेदी वाणांे से पाण्डवों के कुत्ते का मुॅँह बन्द कर दिया। अर्जुन से यह सहन नहीं हुआ। गुरु जी को बाचा में लेकर एकलव्य का अॅंगुष्ठ दान करा लिया। जानते हैं, बाद में क्या हुआ ? भील जाति ने एक सभा की और उसने अपने राजकुमार की पीड़ा को अपने अॅंगुष्ठ का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा लेकर उस पीड़ा को आत्मसात कर लिया। आपको ज्ञात होगा, आज भी भील लोग धनुष वाण का उपयोग करने में अगुष्ठ का उपयोग नहीं करते। वे इस प्रतिज्ञा के माध्यम से युगों-युगों तक, अत्याचार की इस कहानी का जनजीवन को बोध कराते रहेंगे।
आप समझ गये हांेगे मैं क्या कहना चाहती हॅूँ ? मैं नहीं चाहती कि प्रतिभा मेरे कारण केाई नई गाँठ बाँधे। गुरु में एक दृष्टि होनी चाहिए। युग बदल रहा है। मॉँ अपने पुत्रों को समान रूप से स्नेह करती है। चाहे वह पण्डित हो। चाहेे वीर हो। चाहे व्यापारी हो। चाहे सेवक हो।
इस भेदभाव के कारण आज देश विदेशियों से आक्रान्त है। इस ओर सोचने की जरूरत आ पड़ी है। शास्त्री जी होते तो मुझे यों आपके सामने खुल कर न आना पड़ता। वे अपने लक्ष्य की ओर चले गये हैं। मैं अपना लक्ष्य तलाश रही हॅूँ।यह परिर्वतन युग की पुकार है।
मेरी तो यही पूजा है। यही लक्ष्य है। जय-जय सीताराम।’
उपस्थित जन मानस के मुँह से निकला-‘जय-जय सीताराम।’ और उसके बाद चुपचाप वे अपने-अपने घर चले गये। जाते वक्त रामा भैया कहते गये-
‘भौजी, आप जो कर रही हैं वही सुपथ है।‘
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