रत्नावली
रामगोपाल भावुक
चार
पण्डित सीताराम चतुर्वेदी धोती वाले पण्डित जी के नाम से प्रसिद्ध थे। लोग धोती वाले पण्डित जी के नाम से ही उन्हें जानते थे। वैसे तो सभी पण्डित धोती पहनते थे पर वे आधी धोती पहने और आधी ओढ़े रहते थे। पण्डित जी ने धोती पहनने का औरों की अपेक्षा नया तरीका अपना रखा था। भगवान शंकर के नाम पर शिष्यों से दक्षिणा लेने निकल पड़ते थे। आसपास के बीस कोस क्षेत्र के गाँवों में पण्डित जी के शिष्य बसते थे। काछी जाति के पुरोहित के रूप में वे प्रसिद्ध हो चुके थे। काछी जाति के लोगों ने इन्हें काशी के पास बसे रामपुर गाँव से लाकर इसी महेबा गाँव में बसा लिया था। कोई काछी उनके अलावा अपने कार्यां के लिए किसी अन्य पण्डित के पास न जा सकता था। अन्य जातियाँ उनके प्रतिबन्ध में न थी। यदि काछी जाति के लोग धोखे से कहीं और पहुँच जाते तो उन्हें अपने इन पण्डित जी की दक्षिणा तो देनी ही पड़ती थी। पण्डित जी इसी को अपनी खेती मानते थे। लालची प्रवृति ने उन्हें घर- घर घमन्तू महाराज बना दिया था।
अब की बार वे सात-आठ दिन बाद घर लौटे। पत्नी वेदवती बाट जोह रही थी। आते ही पत्नी ने कमाकर लाने वाले दाम-पैसे की जॉंच पडताल शुरू कर दी। अनाज की पोटली खोली, अब की बार पण्डित जी खूब कमाकर लाये थे। पण्डितानी के लिए भी भेंट में धोती मिली थी। धोती देखकर वेदवती कली सी खिल गयी। दिल में पण्डित जी के लिए प्रेम उमड़ आया। जब-जब पण्डितानी के मन में पण्डित के प्रति प्रेम उमड़ता है, उसकी ऑंखं नशीली हो जाती हैं। यह देखकर पण्डित जी जान गये, आज सरस्वती की उन पर अपार कृपा है। यह वातावरण एकाध दिन ही रहता है। अगले दिन से वातावरण गरमाने लगता है। दो-चार दिन बाद तो स्थिति ऐसी आती है कि पण्डित जी को क्रोध में प्रतिज्ञा करके घर छोड़ना ही पड़ता है कि वे यहॉँ अब कभी नहीं आयेंगे। तुलसी के घर से जाने की याद भी दिला देते हैं। अब की बार भी वे ऐसी ही प्रतिज्ञा लेकर घर से गये थे, लेकिन हर बार की तरह शीघ्र ही वापस लौट आये।
आज पत्नी की सुन्दरता उन्हें पूरा आनन्द दे रही थी। पिता की खबर पाकर कौसल्या आ गयी। पुत्री को देख दोनों ने अपने प्यार को छुपा लिया। अब पण्डित जी का पुराना प्रवचन शुरू हो गया। बोले-‘कौसल्या की बाई आज-कल लोगों में श्रद्धा नहीं रही। लोग बड़े कंजूस हो गये हैं। धर्म के नाम पर भी कंजूसी करेंगे। अरे कंजूसी करने की कौन मना कर रहा है! पर धर्म के नाम पर तो मत करो। अब लोगों से दान-दक्षिणा वसूलने के लिए क्या-क्या नहीं करना पडता ? कभी-कभी तो कछेदारों (काछियों ) को राजा-महाराजा के पद तक से सम्बोधित करना पड़ता है। खूब माथा-पच्ची करो। इधर यजमानों के दुख-दर्द की सुनो, तब उनका रोम पसीजेगा। इस काम में उधारी तो और भी बुरी लगती है। आदमी अपने और काम कैसे चलाता है! यहॉँ उधारी नहीं चलती। अरे!,दीनवन्धु पाठक ने इन काछियों को धता बता दी थी। तभी तो ये लोग मुझे यहाँ लिवाकर लाये हैं। अब मेरी धर-गृहस्थी की जुम्मेदारी इन्हीं लोगों पर है कि नहीं ?‘
यह सुन पण्डितानी ने यजमानों का पक्ष लिया। बोली-‘संसार का काम ऐसे ही एक दूसरे से चलता है। यह तो आपका कर्म है, इसी बात की तो लोग आपको दक्षिणा देते हैं। कोई उनपर अपनी लेनदारी तो आती नहीं।‘
यह सुन पण्डित जी ने यजमानों पर गुस्सा उॅंड़ेला-‘तू क्या जाने ? आजकल यजमान बडा चतुर हो गया है। पूरे ग्रह दिखायेगा। कब किसका कैसा समय आने वाला है ? सभी ग्रहों को घुमाकर देखो फिर पूरा विवरण दो। वह फिर भी संतुष्ट नहीं होगा। चाहेगा पण्डित जी उसी पर दिन रात प्रवचन करते रहें। लोगों को संतुष्ट कर पाना खेल नहीं है।‘
वेदवती ने अपने वेद का पन्ना पलटा-‘मैं सब जानती हूँ ........तुम लोगों को मनगढन्त दे देकर बेवकूफ बनाया करते हो। तुम मोय सोऊ बेवकूफ बनाना चाहते हो, सो नहीं बना पाओगे। अब सब बातें छोड़ कें अपनी बिटिया का ध्यान धरो। सयानी हो गयी है। रत्ना के यहॉँ चक्कर काटने लगी है। रोकती हूँ सो लड़ने खड़ी हो जाती है। ये अच्छे लक्षन नहीं है।‘
कौसल्या अपनी शिकायत सुनकर वहॉँ से हट गयी। वेदवती के वेद की ऋचायें फिर से शुरू हो गयी-‘कहीं घर देखो।‘
पण्डित जी ने जवाब दिया-‘घर तो कई देख चुका हूँ पर कुण्डली ही मेल नहीं खा रही है। अपनी लड़की मंगली है। लड़का भी मंगली ही चाहिए।‘
यह सुन वेदवती ने अपनी ऋचा का शेष हिस्सा पूरा किया-‘तुम्हारे कुण्डली- वुण्डली के चक्कर में लाडली बिगड़ चली। मैं कहे देती हूँ। इसके इस वर्ष हाथ पीले हो जायें।‘
यह सुन पण्डित सीताराम जी ने ऋचा के अशुद्ध पाठ के संशोधन की तरह ही संशोधन किया-‘मैं दीनबन्धु पाठक की तरह बेगार नहीं टालना चाहता। जरा सी चमक-दमक दिखी कि लट्टू हो गये। उनने भी कुण्डली मिलाई थी। कुछ जानते हों तब। बनते हैं महापण्डित। अपना खता तो फोड़ नहीं पाये। सारी दुनिया का ठेका लेने बैठे हैं।
यह सुनकर वेदवती ने कुछ और तथ्य उजागर किये-‘सुना है उनके पास खूब पण्डिताई आती है।‘
यह सुन पण्डित जी क्रोधित होते हुये बोले-‘इससे क्या होता है ? लोग तो कुछ समझते हैं नहीं। भीड़- भाड़ है जिधर चल पड़ी। अपने विवेक से तो लोग काम लेते नहीं। फिर वे कौन से सुखी हैं ?‘
वेदवती ने आनन्द के सागर में डूबते हुये कहा-‘खुद की एक संतान है सो ऐसी निकली और अब भाई के लड़के गंगेश्वर से चाहते हैं कि सेवा करे। मुझे तो अपनी कौसल्या की चिन्ता है बस।‘
पण्डित जी ने निर्णय सुनाया-‘कौसल्या की माँ मैं बिना कुण्डली मिलाये ब्याह करने वाला नहीं हूँ। फिर पाठक क्या जाने कुण्डली मिलाना ? अरे! जिस लड़के का जन्म मूल अमंगल में हुआ हो उसके साथ लड़की का ब्याह करने बैठ गये।‘
यह बात घर में प्रवेश करते हुये बैजू नाई ने सुन ली थी, बोला-‘पालागन महाराज‘
पण्डित जी ने उसे आशीर्वाद दिया-‘सदा सुखी रहो। कहो, बैजू इघर कैसे आना हुआ ?‘
यह सुनकर बैजू अपने विषय पर आ गया-‘महाराज जी, अपने पाठक जी की तो लुटिया ही डूब गयी।‘
यह सुन पण्डित जी ने आनन्द का अनुभव किया। बोले-‘यह तो तुमने धर्म लेख की बात कह दी है। यदि मैं यह बात कहता तो लोग कहते, ‘पण्डित जी पाठक जी से जलते हैं।‘
यह सुन पण्डित जी ने अपना उपदेश सुनाया-‘जिस बात को जानते नहीं हैं तो उसमें टॉंग तो न अड़ाया करें। ऐसा कौन सा बड़ा धन्धा मारा जाता है। तभी तो ब्राह्मणों की समाज में ऐसी दशा हो रही है।‘
अब उनने बैजू के चहरे पर ऑंखे गड़ाते हुये अपनी विद्वता का प्रदर्शन किया-‘अरे पूत के पॉँव पालने में ही दिख जाते हैं। जिसके मॉँ बाप ने बचपन से ही त्याग दिया हो, उसका क्या भविष्य ?‘ बैजू ने उनकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया तो एक क्षण रूककर वे ही बोले-‘अरे! शास्त्र की बात उनको भी मानना पड़ी है कि नहीं ?’
बैजू ने राजापुर के समाचार जानना चाहे, बोला-‘आप राजापुर तो आते-जाते रहते हैं।‘
पण्डित जी यह बात सुनकर समझ गये बैजू क्या चाहता है? बोले- ‘मेरे वहाँ कई यजमान हैं। तुलसी कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं है। बाबा नरहरिदास का शिष्य है। वह तो बचपन से बैरागियों की तरह रहा है। उसने सब घाट पहले ही देखे हैं। ये तो उसकी विद्वता पर लट्टू हो गये।
गौंडा जनपद में भी सरयू नदी के किनारे पर एक राजापुर नाम का गाँव है। वहाँ से डेढ़ कोस की दूरी पर बाबा नरहरिदास का आश्रम है। तुलसी की प्रतिभा देखकर उन्होंने इसे अपना लिया था। उन्होंने ही इनका यज्ञोपीत संस्कार किया और राम नाम का मंत्र भी दिया था। पढ़ाया-लिखाया है और ,इसे बचपन में ही राम कथा सुनायी है।
सुना है इस स्थल के कुछ ही दूर पसका नामक स्थान पर शूकर भगवान के प्रगट होने की कथा है। वह स्थल प्राचीन काल से शूकर क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध रहा है। वहाँ के राज परिवार से सम्वन्धित भगवान वारह का मन्दिर भी है। कहते हैं भगवान वारह का अवतार इसी क्षेत्र में हुआ था।
दीनबन्धु पाठक भी उसी क्षेत्र के निवासे हैं। इनका गाँव भी वहाँ स्थित राजापुर के पास सरयू नदी से चार कोस की दूरी पर कचनापुर गाँव है। इसीलिए दोनों के मेल-मिलाप में देर नहीं लगी। दोनों एक दूसरे के खान-दान से पूर्व से ही परिचित थे।
इन्होंने फिर कुछ नहीं देखा।‘
बैजू ने नई जन्मी किंवदन्ती का बखान किया-‘जिस रात को तुलसी यहॉं आया था उस दिन यमुना जी चढी थीं। कहते हैं, एक ठठरी वहाँ से बहते जा रही थी। उसके सहारे उन्होंने यमुना पार की थी।‘
यह नई बात सुनकर पण्डित जी ने झूठ और सच को परखना चाहा। बोले-‘तुम से यह किसने कह दिया?‘
उसने उत्तर दिया-‘अरे ! देखने वालों ने कहा है। घाट कभी सूना थोड़े ही रहता है।‘
पण्डितानी ने बैजू की बात का समर्थन किया-‘अरे! तुम्हें शंका हो रही है! मैंने तो सुना है कि घाट पर एक नाव वाले ने पार कराने की मना कर दी। उसी वक्त उन्हें ठठरी दिखी, बस वे नदी में कूद पड़े। ठठरी के सहारे पार हुये हैं, नहीं इतनी यमुना चढी होने पर आज तक कोई भी पार कर पाया है। बोलो..... ।‘
पण्डित जी ने बात स्वीकारते हुये कहा-‘जो हो पर यमुना तो उस दिन बहुत अधिक चढ़ी थी, यह बात तो सही है।‘
अब कौसल्या आँगन में से निकली। बैजू ने बात बंद होते देखकर पूछा-‘पण्डित जी आप के राजापुर के चेला और क्या-क्या बातें करते हैं ?‘
पण्डित जी ने वर्णन किया-‘बातें क्या करते हैं ? साधु-संत ही उन्हें अच्छे लगते थे तो शादी- ब्याह ही क्यों किया ? मेरी समझ में तो पाठक जी ने उसे जाल में फाँस लिया।‘
पण्डितानी ने अपना बोलना शुरू किया-‘पहले तो पाठक जी की भौजी बडी ऐंठिकें चलती थीं। जिससे देखो उससे दामाद की बड़ाई। बड़ो विद्वान है, अच्छो लड़का है। अब क्यों फुसक-फुसक कर रोती हैं। अब तो कहती फिरती हैं मोड़ी और दामाद को लोग-बागन की नजर लग गयी।‘
अब बैजू ने एक और बात पेश कर दी-‘चौबे जी महाराज वह तो तुमसे मेरा मन मिला है इसलिए यह बातें कह देता हॅूँ। यह बात मैंने अभी किसी से कही भी नहीं है। हुआ क्या ? उस दिन मुझे दस्त लग रहे थे। मैं दिशा मैदान को निकला। बिजली चमक रही थी। एक आदमी बिजली की चमक में दिखा। मैंने समझा, कोई भूत-परीत या फिर कोई चोर-बोर होगा। यह सोचकर मैं डर गया। तब तक वह आदमी पाठक जी के मकान के पास पहुँच गया। बिजली की चमक में मुझे क्या लगा ? एक रस्सी पाठक जी के घर पर लटक रही है। वह आदमी उस पर चढ़ता हुआ दिखा। मेरा तो पसीना ही छूट गया। लगा-निश्चय ही कोई भूत-परीत है। मैं जल्दी से लौट पड़ा।‘
यह सुन पण्डितानी बोली-‘रस्सी किसने डाल दी होगी।‘
बात पण्डित जी ने बढ़़ा दी-‘क्या पता सॉँप-फाँप हो। उसको पकड़ कर तुलसी चढ गया होगा। अरे! ऐसे में आदमी अन्धा हो जाता है।‘
बैजू ने बात का रहस्य खुलने पर कहा, ‘यही बात है। मुझे भी वह साँप-सा ही लगा है।‘
यह सुन पण्डितानी को लगा, ऐसी आश्चर्यजनक बात आज तक न हुयी है, न होगी।
अब पण्डितानी बात का प्रचार करने पड़ोसियों के घर जाने के लिए उठ खड़ी हुयी। पण्डित जी उन्हें रोक न पाये। वे समझ गये पण्डितानी जब तक इस बात को घर-घर नहीं कह आयेंगी तब तक उनकी रोटी पचने वाली नहीं है।
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