रत्नावली
रामगोपाल भावुक
दो
आज स्वामी को गये कितने दिन हो गये! उन्होंने मेरी तो मेरी, मुन्ना की भी सुध नहीं ली। ऐसा भी निर्मोही कोई होता है। सोचते होंगे, आप मेरे पास नहीं हैं तो क्या हुआ ? मुन्ना तो है। नारी एक ऐसी लता है जो दरख्त के सहारे ही ऊपर चढती है, नहीं तो धरती पर ही लोटती रहती है। हम नारियों को इस तरह निर्बल नहीं बनना चाहिए कि बिना सहारे के पग भी न चल सकें। बचपन में मॉँ बाप के सहारे ,युवावस्था में पति के सहारे और वृद्धावस्था में पुत्र के सहारे जीवन काटती हैं। स्वामी भी मुन्ना की बजह से निश्चिन्त हो गये होंगे।
मैं कितना सोचती हूँ उनके बारे में! वे इस सोचने की प्रक्रिया के सहारे हरपल मेरे पास बने रहते हैं। पिताजी ने उन्हें कितना ढुँढवाया, कहीं पता ही नहीं चला। चित्रकूट से उनका इतना लगाव है कि उसके बिना उन्हें कहीं अच्छा नहीं लगता, फिर भी वे वहाँ नहीं पहुँचे! इस तरह सोचती हुयी वह दरवाजे पर आकर खड़ी हो गयी। आकाश की ओर निहारा। अभी रात ढली ही थी। आज तो आकाश में तारे चमक रहे हैं। उस रात तो घना अंधेरा था। तारों के उजाले में ऑँखें उन्हें ढुँढ़ने दूर-दूर तक जाने लगीं। ओंठ कुछ कहने को फड़फड़ा उठे-इस समय घर के सभी लोग सोये हुये हैं। ऐसे समय में वह किससे क्या कहें ? यह सोचकर वह गुनगुनाने लगी-
उफनते नद सा व्यवहार लिए।
मन में अतृप्ती का संसार लिए।।
धिक्धिक् हाय उस वासना को !
आये उचंग का ज्वार लिए।।
बही धारा शब्दों की अनजान,
होते अधीर राम का प्यार लिए।।
बनते हो ऋषियों की संतान,
भटकते हाड़मांस उपहार लिए।
सिमिट गया अनंग,मिट गया अनंग,
चल पड़े कदम प्र्तिकार लिए।
कोसती रही स्व को खड़ी द्वार।
मन में अपने धिक्कार लिए।।
भाई की पत्नी शान्ती, गुनगुनाना सुनकर उठ आयी थी। रत्ना की ऑंख बचाकर, एक स्थान पर खड़े होकर गीत के बोल बड़े मनोयोग से सुनने लगी। गीत बन्द हो जाने के बाद भी रत्ना सोचती हुयी सी खड़ी रही। इसी समय यमुना पार से शंख बजने की ध्वनि सुन पड़ी। शांती रत्ना के पास आकर बोली-‘तुम इतनी बावली हो गयी हो और सुना है उन्हांने वैराग्य धारण कर लिया है। तुम्हारे भैया तो तुमसे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके। इसी सोच में रात जब से आये हैं, सोये नहीं हैं।‘
यह सुनकर रत्ना तो कुछ देर तक कहीं खोयी रही, फिर बोली-‘भाभी, अब हिम्मत हारने से भी कोई काम चलने वाला है नहीं। मैं जानती हूँ-आदमी जब घर से क्रोधित होकर जाता है, वैराग्य की ही बात पर आकर उसका मन टिकता है। लेकिन वैराग्य तो मन की दशा बदलने का नाम है। उसके लिए किसी वेशभूषा को बदलने की आवश्यकता नहीं है।‘
यह सुन शान्ती ने आश्चर्य चकित हो प्रश्न किया-‘ननद जी यह तुम कह रही हो ?
‘हॉँ भाभी ये बातें युगों पुरानी हैं। युग बदल गया है। आज के परिवेश में ये बातें मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं है। समाज तो वैसे ही अन्धविश्वासों से दबा पड़ा है। ये बात भी अब अन्धविश्वास में ही गिनी जाने लगी हैं। शब्दों का अवमूल्यन हो गया है। अब समाज पर और अधिक बोझ रखना उचित नहीं। हमें परावलम्बी नहीं, स्वावलम्बी बनना होगा।‘
शान्ति ने समझाया-‘ननद जी अब आपको समाज की क्या चिन्ता,?उन्नति- अवनति से क्या लेना-देना। अब तो तुम्हें भी उन्हीं की तरह चलना चाहिए। गाड़ी का एक पहिया जिधर मुड़ गया है दूसरे को भी उधर ही मुड़ना पड़ेगा।‘
रत्नावली ने अपने अन्दर पनप रहे प्रवाह को व्यक्त किया ‘भाभी, नारी की व्यथा पुरुष से अलग है। पुरुष घर से निकला तो महान है और नारी घर से निकली तो कुलटा है। भाभी एक प्रश्न मन में उठ रहा है। बुरा न माने तो कहॅूँं।‘
यह सुन शान्ति ने सहज में ही पूछा-‘कहो-कहो, मैं तुम्हारी बातों का बुरा नहीं मानती हूँ।‘
रत्नावली ने अपने मन की बात कही-‘कहीं मैं आपको भार तो नहीं लगने लगी।‘
यह सुन शान्ती के मॅुँह से शब्द निकले-‘हाय राम! यह क्या कहती हो ? मैं तो यह कह रही थी कि अब तो आपके लिए यही तपोभूमि है।‘
रत्नावली बात पूरी तरह समझ गयी कि भाभी क्या कहना चाहती है ? बोली-‘भाभी, शायद आप मुझे समझ ही नहीं पायी हैं।‘
उत्तर में शान्ति ने समझाना चाहा-‘यह बात नहीं है ननद जी, फिर भी कच्ची उम्र है। इस बात का ध्यान दिलाना मेरा धर्म है।‘
धर्म की बात सुनकर रत्नावली ने कहा-‘धर्म और अधर्म की परिभाषा करना कठिन है फिर भी आपने मुझे कर्तव्य बोध की ओर प्रेरित किया है।‘
इसी समय पिताजी की आवाज सुन पड़ी-‘बेटी रत्ना....... पूजा के लिए जल ला देना।‘
‘ जी पिताजी....’ कहकर वह ऊपर से नीचे उतरी। आँगन से घड़ा उठाया और यमुना की ओर चल दी। जल प्रतिदिन यमुना से लाना पड़ता था।
यह महेबा गाँव यमुना के किनारे पर बसा हुआ है। यमुना के एक किनारे पर राजापुर है, दूसरे पर थोड़ी दूर है महेबा गाँव। यह गाँवप्रयाग क्षेत्र में है। राजापुर और महेबा नौकाओं से जुडा हुआ है। आदिकाल से ही जुड़ा रहा है। पण्डित दीनबन्धु पाठक प्रतिदिन इसी घाट से राजापुर जाते- आते रहते थे।
गौंडा जनपद में भी सरयू नदी के किनारे पर एक राजापुर नाम का प्रसिद्ध गाँव है। उस गाँव से सरयू नदी के पार डेढ़ कोस की दूरी पर कचनापुर गाँव है। पण्डित दीनबन्धु पाठक उसी गाँव के रहने वाले थे।
बात उन दिनों की है जब इस महेवा गाँव में कोई पंडित्य कर्म करने वाला न था। यह बात उस गाँव के लोगों को बहुत खटकती थी। पण्डित दीनबन्धु पाठक के बड़े भ्राता विन्देश्वर को इस गाँव के लोग पंडित्य कर्म काराने के लिए सम्मान पूर्वक लिवाकर लाये थे। पंडित्य के कार्य में उनकी ऐसी धाक जम गयी कि यमुना पार बसेे गाँव राजापुर के पंडित इनका लोहा मानने लगे थे।
अनायास भ्राता विन्देश्वर का जब देहावसान हो गया तो कचनापुर गाँव से बेटी रत्नावली के साथ आकर पण्डित दीनबन्धु पाठक को यहाँ की कमान सँभालना पड़ी। वे भाभी केशरबाई एवं भतीजे गंगेश्वर के साथ यहाँ आकर रहने लगे। अब यही गाँव उनकी कर्म भूमि बन गया है।
प्रतिदिन भेार ही पाठक जी घाट पर पहॅुंच जाते । मल्लाह उनकी प्रतीक्षा में तैयार बैठा रहता था। वे प्रतिदिन प्रातः की पूजा के समय हनुमान जी के मन्दिर पर उपस्थित हो जाते।
वहॉँ से लौट कर घर में बने मन्दिर की पूजा करते। रत्ना घर की पूजा के काम में सहयोग करती थी। रत्ना ने जल लाकर रखा था। थाली सजा दी थी । जब रत्ना ने पुष्प लाकर रखे।
दीनबन्धु पाठक बोले-‘बेटी, यह तो बतलाओ, तुमने वाल्मिीकि रामायण कहॉं तक पढ़ ली?‘
उत्तर में रत्ना ने प्रसंग के बारे में कहा-‘सीता माता वाल्मिीकि आश्रम में पहॅुंचगयी हैं।‘
पाठक जी ने पुत्री से पूछा-‘वाल्मिीकि रामायण के अध्ययन से पहले बेटी तुम्हारी अवधारणा सीता परित्याग के सम्बन्ध में जो थी, उसका कुछ समाधान मिला ?‘
रत्नावली ने उत्तर दिया-‘आदमी की अवधारणायें अज्ञानता के स्तर पर कुछ अलग होती हैं। लेकिन विज्ञ होने पर अपने आप बदल जाती हैं।‘
पाठक जी ने पुत्री से प्रश्न किया-‘ बेटी क्या तुम अब भी सीता परित्याग में राम जी को उतना ही दोषी मानती हो ? जितनी कि रामायण के अध्ययन के पूर्व मानती थीं।‘
रत्नावली ने उत्तर दिया-‘कभी-कभी घटनायें भी आदमी को सोचने के लिए मजबूर करती हैं। परित्याग एक घटना है जो घटकर ही रही। दोषी चाहे हम जिसे मान लें। अग्नि परीक्षा के बाद उनका परित्याग आने वाली पीढ़ियों को अस्वाभाविक अवश्य लगेगा और तब दोष रामजी के मत्थे मढ़ा जायेगा।‘
यह सुनकर दीनबन्धु पाठक को लगा- उनकी बेटी चिन्तन के गहरे सागर में डूबती उतराती रहती है। इसी धारणा ने इससे ऐसे कटु शब्द कहलवा दिये।
गंगेश्वर की पत्नी शान्ती, रत्नावली के पुत्र तारापति को पूजा घर के पास छोड़ गयी। वह घुटनों के बल चलकर पूजाघर में आ गया। मूर्तियों को पकड़ने दौड़ पड़ा। पाठक जी ने उसे उठा लिया। बोले-‘तुझे क्या चिन्ता ? यह तारक खुश बना रहे। तुलसी बाबा बने चाहे बैरागी, वह अपने मन की कर ही ले। किसी के सोच में मरा भी तो नहीं जाता।‘
रत्नावली पिता के सामने कम ही बोलती थी पर जब से तुलसी गये थे अधिक ही बोलने लगी थी। मुँह खुल गया था। पिता की बात सुनकर झट से बोली-‘हम क्यों मरें ? संसार को असमय छोड़कर जो अपनी मुक्ति के लिए भटकता है, उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता।‘
पिता ने चुटकी ली-‘विरक्ति भक्ति का द्वार है।‘
रत्नावली ने अपना दृष्टिकोण रखा-‘आदमी इससे निराशावादी हो जाता है। युवा व्यक्ति के लिए यह ठीक नहीं है।‘
दीनबन्धु पाठक ने बेटी को सॉँत्वना देनी चाही-‘तुम्हारा कथन ठीक हो सकता है, लेकिन जब तक हमारी आसक्ति संसार में है, हम राम के निकट नहीं हो सकते। हॉँ! तप के द्वारा ही आत्मोत्सर्ग हो सकता है।‘
रत्नावली ने उत्तर दिया-‘जिस तप से आदमी मात्र अपना आत्मोत्सर्ग करता है, उसका उपयोग यदि समाज को सुखी बनाने में किया जाये तो भगवान का मन भी उस समाज में स्वतः ही रहने को करने लगेगा।‘
दीनबन्धु पाठक ने गम्भीर होकर कहा-‘आदमी तो वही है जो औरों को भी प्रभू का साक्षात्कार करा दे।‘
रत्ना ने तप के बारे में अपने विचार व्यक्त किये-‘लेकिन पिताजी, कुछ लोग तप को चुराकर अपने लिए ही केन्द्रित करना चाहते हैं। तप को चुराकर रखना कहाँ का न्याय है ?‘
बात को गुनते हुये वे पूजा में लग गये। रत्ना मुन्ना को लेकर वहाँ से चली आयी।
घटनायें चेतना को खोल देती हैं। आदमी की सोच में पंख लग जाते हैं। सोच के भंवर से जो रास्ता निकलता है, उस रास्ते की लकीरें सन्देश वाहक का काम करती हैं, जिससे आदमी में उत्साह का संचार अनायास ही होता रहता है।
पिता-पुत्री की बातचीत के बाद रत्नावली अपने में एक नया उत्साह अनुभव कर रही थी। उसे लगने लगा था-‘वह हारी नहीं है वल्कि जीत गयी है।‘
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