Interlude of raga - 3 - The last part in Hindi Moral Stories by Amita Neerav books and stories PDF | राग का अंतर्राग - 3 - अंतिम भाग

Featured Books
  • आई कैन सी यू - 41

    अब तक हम ने पढ़ा की शादी शुदा जोड़े लूसी के मायके आए थे जहां...

  • मंजिले - भाग 4

                       मंजिले ----   ( देश की सेवा ) मंजिले कहान...

  • पाठशाला

    पाठशाला    अंग्रेजों का जमाना था। अशिक्षा, गरीबी और मूढ़ता का...

  • ज्वार या भाटा - भाग 1

    "ज्वार या भाटा" भूमिकाकहानी ज्वार या भाटा हमारे उन वयोवृद्ध...

  • एक अनकही दास्तान

    कॉलेज का पहला दिन था। मैं हमेशा की तरह सबसे आगे की बेंच पर ज...

Categories
Share

राग का अंतर्राग - 3 - अंतिम भाग

अमिता नीरव

3

वृंदा एकदम खिन्न हो गई थी। वह नहीं समझ पा रही थी कि आखिर वह क्या कहे, करे? उसे यह दुख भी होने लगा था कि आखिर उसका अधूरापन शुभ के सामने भी जाहिर हो ही गया। लेकिन वह क्या करे.... कहाँ से करे खुद को पूरा....? क्या अभाव है, वह उसे जानें तो पहले.... वह खुद ही अपने सामने पहेली बनी हुई है। शुभ के सामने क्या सुलझाए? लेकिन आज उसे यह भी महसूस हुआ कि बात बहुत गंभीर है। जब ठीक होगा, तब होगा, तब तक क्या ऐसे ही अधूरेपन के साथ जिएंगे दोनों?

शुभ सो गया था। लेकिन वृंदा सो नहीं पाई थी। वह इतनी गहरे उतर गई कि निर्णायक हो उठी थी। सुबह-सुबह आँख लगी होगी। शुभ ने उसे उठाया भी तो उसने यह कहकर करवट बदल ली कि 'आज जाने का मन नहीं है। रात ठीक से सो नहीं पाई। तो दिन भर सोऊँगी। तुम जाओ।'

शाम को अपने समय पर शुभ पहुँच गया था। अमूमन दोनों थोड़ा बहुत ही आगे-पीछे होते हैं आने में। शुभ थोड़ा जल्दी पहुँच गया या ऐसा भी कह सकते हैं कि वृंदा आने में थोड़ा लेट हो गई। शुभ फ्रेश होकर आया और चाय बनाई।

ट्रे में चाय और स्नैक्स लेकर वह ड्राइंग रूम में आया और टीवी ऑन कर लिया। जब तक वृंदा आ नहीं जाती, तब तक वह टीवी देखता है। उसे याद आया कि जब वह देर से आता है तो पाता है कि वृंदा यूँ ही बैठी मिलती है... जैसे वह मेरे हिस्से के वक्त को सहेज रही हो। एकाएक उसे अपराध बोध महसूस हुआ। उसने टीवी बंद कर दिया। वह आँखें मूँदे वृंदा को अपने जहन में भर रहा था। एकाएक उसे याद आया कि आज तो वृंदा नहीं जाने वाली थी... उसने खुद ही कहा था कि वह सोएगी। सोचा हो सकता है थोड़ी देर के लिए मार्केट गई हो। उसने मोबाइल लगाया तो मोबाइल बंद आया। मोबाइल क्यों बंद है, ऐसा तो वह कभी करती नहीं है। उसका काम ही ऐसा है.... शुभ को थोड़ी बेचैनी-सी महसूस हुई। लगा कि कुछ अशुभ हो रहा है उसके साथ....। तभी उसका मोबाइल फ्लैश हुआ, कोई मेल आया है। वृंदा का मेल...वृंदा क्यों मेल करने लगी? उत्सुकता से मेल खोला था। लेटर नुमा ड्रॉफ्ट था।

मेरे शुभ

जिसका डर था, वही हो गया। अपने अधूरेपन से बहुत डरती रही थी आज तक... इसलिए कि कहीं उसकी आँच तुम तक पहुँची तो मेरा क्या होगा? खुद से डरना भी कितना भयावह होता है, तुम कभी जान ही नहीं पाओगे। और कितनी यंत्रणा होती होगी, जब आपका डर सही सिद्ध हो जाए।

सोचा तो था मैंने कि यूँ ही ऐसे ही तुम्हारी बाँहों का तकिया बनाकर मैं हर रात सो जाया करूँगी... हर सुबह तुम्हारे होंठों की छुअन से ही जागूँगी। हर शाम तुम्हारी गुनगुनी हथेली को लेकर अपने मन की सिलवटों को दूर कर लूँगी....  रात उसी तरह चाँदनी की तरह सफेद बेदाग और शीतल हो जाया करेगी... जैसे शरद की हुआ करती है... लेकिन पता है, जीवन ने कभी भी मुझसे कोई रियायत बरती ही नहीं। उसने हमेशा ही मुझसे कंजूसी बरती है। और इस सच को मैं कैसे भूल गई, देखो तुम्हारे साथ ने मुझे एकदम ही बेफिक्र और लापरवाह बना दिया था। इतना कि, अपनी कमी को भी भूले बैठी थी।

नहीं जानती थी कि जिंदगी इतनी उदार कभी होती नहीं है। हाँ, कभी-कभी उदार होने का भ्रम दे जाती है। पता है, मैंने तय कर लिया था, कि हम जीवन भर ऐसा ही रहेंगे... यदि तुम और मैं न चाहें तो हमें कौन अलग कर सकता है, बताओ भला?

समझती तो थी, लेकिन माना नहीं.... दो और दो का जमा चार जिंदगी नहीं है। कितने पेंच है, कितने ख़म हैं.... ?  बस यहीं मुझसे गलती हो गई। शुभ...................

मेरे पास लिखने के लिए कुछ है नहीं... सिवा इसके कि मुझे तुमसे प्यार है.... कितना? कभी उसकी गहराई में जाने का साहस ही नहीं कर पाई.... डरती थी, कहीं खुद ही न डूब जाऊँ। बस यहीं.... यहीं वो गलती हो गई। भ्रम में रही कि कोई वक्त ऐसा होगा, जब मैं पूरी-की-पूरी तुम्हारी होऊँगी.... वो ऐसा वक्त होगा, जब मैं पूरी-की-पूरी अपने हाथ में आऊँगी। शायद हो... लेकिन पता नहीं कब?  अब इस शर्मिंदगी को लेकर तुम्हारे साथ नहीं रह पाऊँगी। रात भर इसी ऊहापोह में रही.... यकीन मानो ऐसा करना आसान नहीं था। पहली बार में मन हुआ कि तुम्हें बताऊँ.... मैं तुम्हें मुक्त कर रही हूँ। फिर लगा कि खुद के दुख से तो लड़ ही रही हूँ, तुम्हारे दुख से भी यदि संघर्ष करना पड़ा तो बहुत कमजोर हो जाऊँगी। फिर मैं अपने अपराध बोध को लेकर तुम्हारे साथ कैसे रह पाऊँगी।

तुम खुश रहोगे... यह वादा मैं तुमसे चाहती हूँ।

मैं भी खुश रहने की कोशिश करूँगी.... जिंदगी तेज गति प्रवाह है.... कोई चाह कर भी इसमें ठहर नहीं सकता है। हम न चाहें तब भी ये हमें बहा ले जाएगा। कहीं-न-कहीं तो उसकी दिशा होगी ही। मेरी तो नियति ही यह शहर है.... हो सकता है तुम्हें जिंदगी आगे कहीं ले जाए.... हो सकता है कि कभी हम फिर से मिले। हो सकता है मैं ही अपना आप लेकर आ जाऊँ.... तुम्हारे पास... तुम्हारी बाँहों के तकिए पर सोने के लिए। लेकिन तब तक मुझे जाना ही होगा.... शायद मैं तभी खुद को ढूँढ पाऊँगी। मैं अपने मोबाइल की सिम यहीं छोड़े जा रही हूँ,  अपना ई-मेल और फेसबुक अकाउंट बंद कर दिया है। तुम मुझे मत ढूँढना.... तुम्हारा नंबर, ई-मेल एड्रेस और फेसबुक अकाउंट सब मुझे जबानी याद है....।

फिर से मिलने की चाह में

आधी-अधूरी

वृंदा

शुभ को समझ ही नहीं आया कि ये क्या हुआ??? और ये क्यों हुआ??? क्या कह दिया था मैंने??? हाँ मुझे लगता था, लेकिन इसमें.... इसमें सब खत्म कर देने की बात कहाँ से आ गई थी?  मन की पहली प्रतिक्रिया के बाद लहर-दर-लहर प्रतिक्रियाओं का सैलाब आ पहुँचा था। उसे पीड़ा हुई थी और अंत में उसने खुद को बहुत आहत महसूस किया था। यदि साथ थे तो अलग होने का फैसला भी तो साथ ही करना था न?

वृंदा ने इसे अकेले कैसे कर लिया? उसने सोचा कि उसके बाद मेरा क्या होगा? वह बेचैनी में फ्लैट का दरवाजा खुला ही छोड़कर छत पर चला गया। वहीं टहलने लगा। अपने लोअर की जेब में उसने हाथ डाला.... एक सिगरेट मिली, लेकिन छत पर माचिस नहीं थी। लेकिन बेखयाली इतनी थी कि उसने कोरी सिगरेट ही मुँह में लगा ली। वह तेज-तेज टहलने लगा। बिल्डिंग के बच्चे वहाँ खेल रहे थे। जब उसे टहलते देखा तो उन्होंने अपने खेलने की जगह थोड़ी बदल ली।

जब टहलते-टहलते थक गया तो वह मुँडेर पर बैठ गया। झुटपुटा उतर आया था। बच्चों के खेल का तरीका बदल गया था। अब उन्हें बॉल दिखना कम हो गई थी। इसलिए वे अपना सामान समेट रहे थे। पता नहीं क्या हुआ था उसमें से एक बच्चे ने उसे मुँडेर पर से हाथ पकड़कर जोर से नीचे खींचा और चीखा 'अंकल..... गिर जाओगे।'  शुभ को जैसे होश आया था। वह शर्मिंदा था और बच्चों की उत्सुक और डरी हुई नजरों से बचकर वहाँ से निकल आया था।

फ्लैट के दरवाजे पर पहुँचते ही उसे अजीब-सी दहशत ने घेर लिया था। घर का पूरा इंटीरियर उसकी नजरों के सामने घूम गया था। पूरा घर वृंदा की याद का स्टोर जैसा हो रहा था। वह लौटकर नहीं जाना चाहता था। वृंदा ने उसे ऐसे बीच में छोड़ दिया... उसका मन रोने-रोने का हो आया। उसे एकाएक दर्द-सा महसूस हुआ, लेकिन समझ नहीं पाया कहाँ?  वह उसी तेज दर्द में घर के भीतर गया। कुछ जरूरी सामान उसने अपने बैग में डाला और घर को लॉक करके वहाँ से निकल गया। बेखयाली में वह न जाने कहाँ भटक रहा था,  उसे याद तब आया जब उसने खुद को सुजीत और नयना के फ्लैट में पाया।

वह नहीं जानता कि वह रात का कौन-सा वक्त था। वह भटकते-भटकते कहाँ पहुँच गया था? वह सुजीत को कहाँ और किस हाल में मिला....। सुबह जब उसे होश आया तो उसने सुजीत से पूछा.... 'मैं तुम्हें कहाँ मिला यार???'

सुजीत ने उसे घूरा और तेज गुस्से में दाँत पिसते हुए पूछा था 'मरने क्यों जा रहे थे?'

'मरने....? कौन जा रहा था???' - शुभ उलझ गया।

'तुम्हें मैं कोलाबा के रेलवे ट्रैक से पकड़कर लाया हूँ। तुम चल रहे थे उस पर जैसे खूब नशा किया हुआ हो।' - कहते हुए उसके गुस्से की तपन थोड़ी मद्धम होने लगी। 'मैं पीछे के रास्ते से निकलता हूँ,  वहीं मुझे घर आने के लिए ऑटो मिलते हैं। वहीं आप अँधेरे में ट्रैक पर चले जा रहे थे। मैं तो बस यूँ ही बचाने के लिए दौड़ा था, देखा तो आप थे......' - उसका गुस्सा फिर भड़क गया।

'सॉरी यार.... मेरा ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था.... पता नहीं कैसे.....?' - शुभ खिसियाकर बोला।

'इरादा नहीं था....? तू क्या नशे में रहता है? मैं यदि वहाँ नहीं होता तो कुछ भी...... ' - कहते-कहते वह फफक पड़ा।

'मुझे माफ कर दे यार.... सच मुझे नहीं पता था,  मैं क्या कर रहा था, कहाँ जा रहा था? प्लीज....'- शुभ अपने घुटनों पर दोनों हाथ जोड़कर सुजीत के सामने गर्दन झुका कर बैठ गया।

सुजीत का मन तरल हो आया.,... 'मुझे बता क्या हुआ है?' - उसने उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर शुभ से पूछा।

'वो.... वो मुझे छोड़कर चली गई....' - भरे लगे से शुभ ने बहुत मुश्किल से अपनी बात कही।

'वो.... वृंदा...?'

'क्यों?' - सुजीत खड़ा हो गया था। उसे सारा माजरा समझ आ गया। 'ओह....' उसने खड़े होकर शुभ को गले लगाया। शुभ फफक-फफक कर रो पड़ा। 'मैं नहीं जानता कैसा जी पाऊँगा....? मुझे याद ही नहीं वो कब से मेरे जीवन में थी... अब तो ऐसा लगता है जैसे जन्म से ही मैं उसके साथ था, लेकिन फिर भी वो मुझे ऐसे ही छोड़कर चली गई।'  सुजीत और नयना से एक-दो बार दोनों मिले भी थे। सुजीत ने पूछा भी था 'ओए तू बिना शादी के साथ रह रहा है??? ' - शुभ थोड़ा झेंप गया था। फिर सब अपने-अपने में व्यस्त हो गए.... कभी मैसेज से ही पता चलता था कि वो कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं? पिछले एक-डेढ़ सालों में तो कभी एक-दूसरे से मिले भी नहीं और मैसेज भी नहीं किया।

सुजीत ने बहुत सहमते और संकोच करके पूछा था 'क्या बात हुई थी?'

'पता नहीं यार....'मुझे लगता है उसे मैं कभी समझ ही नहीं पाया....।' - अंत तक आते-आते आवाज जैसे उसके गले से घुटकर निकली।

'कोई....' - सुजीत ने बहुत डरते-डरते पूछना चाहा, लेकिन फिर छोड़ दिया। शुभ का चेहरा तमतमा आया.... उसने भींचे जबड़ों और तीखी नजर से सुजीत को देखा 'नहीं.....।'

'ओके... सॉरी.... यार मामला ही ऐसा है तो तमाम बातें आती हैं मन में..... सॉरी।' - सुजीत ने माफी मांगते हुए कहा। शुभ ने उसे भरी हुई नजरों से देखा।

शुभ अब लौटकर उस फ्लैट में नहीं जाना चाहता था। उसने मैनेजर को कंपनी के गेस्ट हाउस में एक सप्ताह ठहरने के लिए एप्लीकेशन दी। एप्लीकेशन इस बात पर मंजूर हो गई कि यदि किसी गेस्ट को कोई दिक्कत हुई तो उसे छोड़ना पड़ेगा। वह सुजीत के घर से भी शिफ्ट कर गया। नया फ्लैट ढूंढने में लग गया, इसी बीच वह प्रोजेक्ट के सिलसिले में साल भर दक्षिण अफ्रीका भी जाकर रहा। धीरे-धीरे सब सैटल हो गया। पुरानी कंपनी छोड़ दी, नई ज्वाइन कर ली। यहीं उसकी मुलाकात हानिया से हुई, अच्छा पैकेज मिला तो फ्लैट भी खरीद लिया... जीवन अपनी गति में आ गया। कभी-कभी ऐसे ही कोई खुश्बू, कोई आवाज, कोई गीत.... कोई मौसम उड़ाकर याद ले आता था, लेकिन कसक कम होने लगी थी। शुभ को लगने लगा था कि वह उस जकड़ से आजाद हो गया है।

लेकिन शुभ पुराने बंधनों की तासीर से वाकिफ नहीं था। कुछ तो उनकी आदत हो जाती है और कुछ वे भी शिथिल हो जाते हैं। जरूरत भर आजादी मिल जाती है और इससे ज्यादा की आदत रह नहीं जाती है। वही शुभ के साथ हुआ था। वृंदा से मुक्त ही नहीं हो पाया था तो हानिया कहाँ से आ पाती???

ओह.... । शुभ ने अपना अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढँक लिया था। वो रोना चाहता था, लेकिन रो नहीं पा रहा था। वृंदा वहीं है, वहीं.... एक सूत भी वहाँ से हिली नहीं है वो। मेरे अनजाने ही उसने मेरे जीवन को कब्जाया हुआ है। मुझे बस मुक्ति का भ्रम हुआ था, मैं मुक्त नहीं हुआ था। मुझे अपनी कैद से ही प्यार है..... वो बुदबुदाया था।

 

शनिवार की शाम को ही तो उसकी फिल्म का प्रीमियर है। वो आएगी.... पक्का वो आएगी। शाकिब ने उसे प्रीमियर पर ले जाने का वादा किया है। शुभ उत्साहित है बहुत.... चाहे जो हो, वो वृंदा को मना लेगा। आज नहीं मानेगी तो क्या वो मना लेगा। उससे कहेगा, 'जितनी तू है, मैं उससे ही अपना काम चला लूँगा... क्योंकि उतनी ही तू मुझे ढँक लेती है.... मेरी पूरी जिंदगी पर छाई हुई है। न होकर भी.... तो होकर तो....।' शुभ ने ब्लैक सूट पहना था। वह बाहर ही वृंदा को घेर लेना चाहता था। थियेटर के गेट पर लोगों का जमावड़ा है। स्टार्स सारे इसी गेट से अंदर जाएंगे, फिर अंदर जाकर सब खो जाएंगे, इसलिए बेहतर है यहीं खड़े होकर सबको देख लें। शुभ का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। हर गाड़ी जो आकर पोर्च में रूकती उसे देखकर शुभ उसके काले शीशों को घूरकर देखता.... पता नहीं किस गाड़ी में हो। आगे ही खड़ा था... वो। फिर से एक गाड़ी आकर रूकी। उसमें शुभ की तरफ से एक छोटी-सी, प्यारी-सी बच्ची उतरी और भागने लगी। दूसरी तरफ से वृंदा उतरी उसने वहीं से बच्ची को आवाज लगाई... 'शुभदा.... बच्चे दिस वे....।'  लेकिन लगा कि बच्ची ने कुछ सुना ही नहीं... इतने लोगों के बीच उसने दौड़ लगा दी। वृंदा ने उसे दौड़कर पकड़ा...। शुभ का कलेजा उछलकर बस जैसा बाहर ही आ जाने वाला था, उसने बच्ची को देखा और फिर वृंदा को.... उसने बेकलेस गाउन पहना हुआ था.... उसकी कमर के कटाव का वो तिल उसे दिखा जो कपड़ों में ही छुपा रहता था, जिसे शुभ सबसे पहले चूमता था। उसे लगा वो जाकर शुभदा को गोद में उठा लें और वृंदा की कमर में हाथ डालकर उसे रेड कार्पेट पर ले जाए। उसने जाना कि वृंदा अपनी उस स्त्री से मुक्त हो गई है, जिससे कभी शुभ को प्यार था... और शुभ के भीतर अब तक वही पुरुष साँसें ले रहा है, जिसे वृंदा छोड़कर गई थी।

तो... तो क्या हुआ? शुभ जैसे एक ही साँस में मरने और जीने का फर्क लाँघ गया, वह भीड़ के बीच से निकलकर भागा। शुभदा चकाचौंध को देखती एक सीढ़ी नीचे चल रही थी। वृंदा उस चकाचौंध के बीच अपनी राह पर चल रही थी। शुभ दौड़ता हुआ गया और उसने शुभदा की छोटी-सी, नाजुक-सी कलाई को थाम लिया। वह चौंककर देखने के लिए मुड़ी तो वृंदा का हाथ खिंच गया... वृंदा ने पहले शुभदा को देखा और फिर उस इंसान को जिसकी वजह से शुभदा रूकी है।

उस एक क्षण में जैसे आसपास का पूरा नजारा ब्लर्र हो गया। वृंदा की काजल भरी आँखों में समंदर हरहराने लगा। शुभ के सब्र का बाँध ढह कर बह निकला था। वह भूल गया था कि वह कहाँ हैं, क्या कर रहा है??? उसने दो सीढ़ी चढ़कर वृंदा को बाँहों में ले लिया।

‘तो क्या हुआ कि तुम पूरी नहीं हो... जितनी हो, उतनी ही मुझे ढँकने के लिए बहुत हो वृंदा... तुम मेरा आसमान हो, जिस पर मेरा चाँद है, मुझे ग्रहण कर लो। मैं बिना छत के नहीं रह पाऊँगा... मर जाऊँगा...’ वह वृंदा के कानों में बुदबुदा रहा था। वृंदा साँस रोके उसे सुन रही थी। उसकी कमर पर ठहरी शुभ की हथेली को अपने छोटे से हाथ से अलग करती शुभदा चीखी थी ‘लिव माय मॉम....’ वृंदा की आँखों में हीरे जगमगाए थे। शुभ के होंठों से झरे थे.... दोनों ने शुभदा की छोटी-छोटी बाँहों को थाम लिया था। ‘आय एम योर डैड बच्चे....’ – शुभ ने उसे उठाते हुए कहा था।

दुनिया फिर से हाई डेफिनेशन कलर्स में नजर आने लगी थी।

*******