Hundred-handed in Hindi Moral Stories by Deepak sharma books and stories PDF | सौ हाथ का कलेजा

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सौ हाथ का कलेजा

पंजाब मेल मैंने लखनऊ से पकड़ी थी। शाम गहराने पर मैंने अपने नए-पुराने सहयात्रियों से उनके स्लीपर का पता लगाना चाहा।

‘मेरी बच्ची नीचे सोना पसन्द करेगी’, एक युवक ने पास बैठी अपनी स्त्री की गोद में सो रही दुधमुंही बच्ची की ओर संकेत किया, ‘आप चाहें तो ऊपर वाली हमारी बर्थ से, निचे वाली बर्थ बदल ले। ’

क्यों नहीं!’ मैंने कहा, ‘मगर वहाँ तो बहुत सामान रखा है।’

‘वह सामान मेरा है,’ युवक ने अपनी निगाह इधर-उधर सीटों के नीचे दौड़ाई।

‘हम तीनों अंबाला उतरेंगी,’ थ्री टियर के उस भाग में हमारे साथ जो तीन अधेड़ महिलाएँ थीं वे शायद गाड़ी मंे उस युवक से पहले चढ़ी थीं और उन्होंने अपना सामान सीटों के नीचे और खिड़कियों के बीच वाली खाली जगह पर टिका रखा था।

युवक ने अपने कंधे उचकाए और बीच वाला एक बर्थ खोलकर अपना सामान नीचे वाली सीट पर उतारना शुरू कर दिया- अपने टीन का बक्सा, दो सूटकेस, दो पोटलियाँ, अमरूद का एक बड़ा लिफाफा और हाथ से सिले हुए तीन बड़े झोले।

मेरे पास केवल एक सूटकेस था और एक कंबल। थका हुआ तो मैं था ही ऊपर की सीट पर पहुँचते ही सो गया।

अंबाला आने से जरा पहले एक बार मेरी नींद जरूर टूटी।

मैंने आँख खोली और देखा वे अधेड़ महिलाएँ अपना सामान घसीट-घसीट कर दरवाजे की ओर ले जा रही थीं। बीच वाली पूरी की पूरी एक सीट पर अपनी फैली टांगों पर कंबल आढ़े वह युवक खर्राटे भर रहा था और उसकी स्त्री नीचे वाली सीट के आधे से भी कम हिस्से में बिना कुछ गर्म ओढ़े, सिकुड़ी, काँप रही थी। अपना शाल उसने अपनी बच्ची को ओढ़ा रखा था। उसकी सीट के आधे से ज्यादा हिस्से पर उनका पूरा सामान धरा था।

करवट बदल कर मैं तंद्रा में लौट गया।

सुबह जब मैं जागा तो सूरज डिब्बे में उतर चुका था। गाड़ी धीमी हो रही थी।

जरूर कोई बड़ा स्टेशन आ रहा था। शायद लुधियाना।

बीच वाली बर्थ को हटया जा चुका था और युवक तथा उसकी स्त्री संग-संग बैठे थे।

स्त्री की आँखें खिड़की से बाहर जमी थीं और युवक के माथे की त्योरी बता रही थी, वह गुस्से में था।

‘देखो-देखो’, स्त्री अपनी दुधमुंही बच्ची से बतिया रही थी, ‘अभी तुम्हारी नानी आएँगी, तुम्हारे लिए मीठा लाएँगी, नाश्ता लाएँगी, पूरी लाएँगी, आल ू लाएँगी’

बच्ची मोटी-ताजी थी मगर स्त्री बहुत दुबली-पतली। एकदम सींकिया। हाँ, उसकी स्फूर्ति देखने लायक थी। उसकी गर्दन की लचक ऐसी थी, मानो उसमें कोई कमानी फिट हुई हो और आँखों की उछाल ऐसी मानो वे अब लपकीं तब लपकीं।

‘गू,गू,गू,’उसकी गोदी में झूल रही बच्ची माँ की खुशी अपने अन्दर खींच रही थी।

‘अम्मा, अम्मा!....’ गाड़ी प्लेटफार्म पर जा पहुँची थी, और हमारा डिब्बा शायद प्लेटफार्म की उस जगह से आगे निकल आया था, जहाँ स्त्री की माँ खड़ी थी।

‘होश में रहो’, युवक ने स्त्री को डाँट पिलाई, ‘इतनी बदहवास होने की क्या बात है?’

आते ही स्त्री की माँ ने और बच्ची को अपने अंग से चिपका लिया। उसने अपने अधपके बालों में कंघी नहीं की थी, उसके पैर की चप्पल बहुत पुरानी थी और कन्धे वाला शाल भी आधा सूती, आधा ऊनी था।

युवक ने उसे घूरा।

‘बधाई हो, वीरेदं ्र कुमार जी, ’वृद्धा ने उसक े अभिवादन मे अपने दोनों हाथ जोडे, ‘आपके दफ्तर वालों ने आपकी बात ऊँची रख ली, आपकी बात उड़ायी नहीं। वह बेगानी हरदोई, आखिर आप से छुड़ा ही दी........’

‘आप कहिए’, युवक ने अपने चेहरे पर एक टेढ़ी मुसकान लाकर कहा, ‘आप अकेली कैसे आईं? घर के बाकी लोग कहाँ रह गए?’

क्या बताऊँ वीरेन्द्र कुमार जी!’ वृद्धा ने आँसू छलकाए, ‘कहने भर को वे मेरे बेटे हैं, मगर मजाल है, जो बेटों वाला एक लक्षण भी उनमें से किसी को ढूँढे़ मिल जाए। अब उन्हें नहीं परवाह, तो नहीं परवाह! आजकल के बेटों पर किसका जोर चला है!’

युवक ने अपने दाँत भीेंचे और एक मोटी गाली देनी चाही मगर ऐसा न कर पाने की वजह से उसके होंठ कुछ विकृत हो गए।

‘मैं अभी पानी भरकर लाया’, युवक ने पानी की खाली बोतल उठाई और गाड़ी से नीचे उतर गया।

‘अब तो हरदोई नहीं जाना है न?’ वृद्धा ने पूछा।

पहले इसे छिपा ले’, स्त्री ने अपने किसी भीतरी वस्त्र से एक रूमाल निकाला और वृद्धा के हाथ में दे दिया।

‘कितने हैं?’ वृद्धा फसफुसाई।

‘पाँच सौ सत्तर हैं’, स्त्री हँसी, ‘बडी़ मुशिकल से छिपा-छिपा कर जोडे हं, तेरे आपरेशन के वास्ते। अब आपरेशन करवा लेना जरूर, फिर चश्मा भी बनवाना तो अच्छा बनवाना।’

अगले ही पल वृद्ध ने उस रूमाल को अपने किसी वस्त्र में छिपा लिया।

‘तेरे साथ अब कैसा है?’ वृद्धा ने बच्ची को गुदगुदाया।

‘क्या बताऊँ कैसे हैं!’ स्त्री गम्भीर हो चली।

‘अभी भी हाथ उठता है?’

और नहीं तो क्या!’ स्त्री की आँखें डबडबाईं, ‘कोई बात भी नहीं होती, सिर्फ धौसियाने की खातिर। रोज दाँतों जमीन पकड़ती हूँ।’

‘इधर कौन सुख है’, वृद्धा रोने लगी, ‘धूल फांकनी हो मेरे साथ तो बताओ।’

‘मैंने कुछ कहा क्या? जा तो रही हूँ, अब अमृतसर उसके साथ।’

‘उधर तू कोई काम पकड़ लेना। जैसे इधर कम्बल तागने का काम मिलता है, वैसे वहाँ भी बहुतेरा काम निकल आएगा।’

पकड़ूँगी काम’, स्त्री ने आँखें सीधी कीं, ‘काम क्यों न पकडूँगी? वरना उस फुंकार के आगे कब तक साँस रोककर दम लूँगी?’

‘गाड़ी अब चलने ही वाली है,’ ‘पानी के डिब्बे के साथ युवक लौट आया।

तुम अब उतर लो, अम्मा!’ स्त्री ने वृद्धा के कंधे से बच्ची अपने कंधे पर खिसका ली, ‘इधर खिड़की से बात करते हैं।’

वृद्धा उसके गले दोबारा मिली, तो झन्न से दोनों एक साथ रो पड़ीं।

‘गाड़ी का सिगनल हो चुका है,’ युवक ने चेताया।

‘अच्छा वीरेन्द्र कुमार जी’, वृद्धा ने युवक के सम्मुख फिर दोनों हाथ जोडे,़ ‘जीते रहो! खुश रहो!’

मैं बहुत खुश हूँ जी’, युवक ने अपने कंधे उचकाए।

वृद्धा खिड़की पर आई ही थीं कि गाड़ी हिलने लगी। देखते-देखते वृद्धा प्लेटफार्म पर पीछे छूट गई।

‘खाने को क्या लाई?’ युवक ने स्त्री की ओर हाथ बढ़ाया।

‘पूरी और मटर आलू, हलवाई की मिठाई और अपने हाथ की बनी मठरी।’ स्त्री ने वृद्धा द्वारा लाया गया पाॅलीथीन का लिफाफा युवक को थमा दिया।

युवक ने पहले मिठाई चखी, फिर मठरी, फिर खाने पर टूट पड़ा।

‘नानी आई थी!’ स्त्री अपना मुँह बच्ची की ओर करते हुए बोली, ‘नानी आई थी! नानी आई थी!’

स्त्री ने बच्ची के पेट में गुदगुदी की और खुश होकर बच्ची से भी ज्यादा जोर से हँसने लगी।