पुस्तक समीक्षा- जंगः ए असफल
ए असफल की कथासंसार में सफल दस्तक
ए0 असफल का नया कहानी संग्रह “जंग“ म.प्र. साहित्य परिषद भोपाल ने प्रकाशित किया है। असफल की कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, पाठकों की सराहना भी प्राप्त करती रही है। चुनिन्दा छह कहानियों का उनका संग्रह औपचारिक रूप से पहला संग्रह हैं, लेकिन इसमें शामिल कहानियों की बुनाबट और संवेदना की सघनता पर गौर करें तो हम पायेंगे कि उनका कहानियों एक परिपक्व और कुशल रचनाकार की रचनायें है। असफल में कहानी लिखने का अच्छा माद्दा हैं, ये कहानियां यह सिद्ध करती है।
संग्रह की पहली कहानी “मंजले चाचा“ एक कर्मठ, स्नेही और भोले व्यक्ति की कथा हैं, जो अपनी जिन्दगी अपने भाइयों और उनके परिवार की सेवा में लिये समर्पित कर देता है। लेकिन अंत में मंझले चाचा को तिरस्कार ही मिलता है। अस्पताल में भर्ती मझंले चाचा की सेवा एक नौकर करता हैं पर उनके घर का कोई आदमी पास नहीं फटकता और वे अनाथ की तरह गुमनाम मौत करने को विवश होते है।
दूसरी कहानी “मकान“ में एक मां के अन्तर्मन की व्यथा ने शब्द पायें हैं, जिसका बेटा उसे अनाथ छोड़ कर चला गया हैं और ममता में डूबी मां इसमें -उसमें अपना बेटा खोज रही है। जब एक युवक में उसे अपना बेटा नजर आ ही जाता है कि आश्वस्त होती मां को एक जबर्दस्त धक्का लगता हैं, क्योंकि उसका असली बेटा घर वापस आ गया हैं, और उसे मकान की दरकार हैं, जिसमें बिना किराये चुकाये वह अन्य युवक रह रहा है।
“जंग“ शीर्षक तीसरी कहानी में असफल ने मेले-ठेले में दिखने वाली डांस पार्टियों की। अन्तर्वथा को उकेरा हैं, जहां श्यामदा व बजरंगदा अपनी पार्टी की नर्तकी शानू-शानू का दैहिक शोषण करते है। उनके बीच रह रहा हंसा धीरे-धीरे शोषित युवतियों से तादात्मय स्थापित करता हुआ अंततः शोषकों के खिलाफ खड़ें होने का साहस संजो लेता है।
एक छोटा कर्मचारी हर तौर पर परेशान रहता हैं, और इस परेशानी के बीच कभी घरेलु सुख के क्षणों की ओस भी यदि उसे उपलब्ध होती हैं, तो सुखद क्षणोंकी की इस ओस को चाटने में भी वह कोताही नहीं करता पर यहां भी असावधानी उसका पीछा नहीं छोड़ती। “लाखा“ नामक युवक ष्योपुरकंला नामक (ढाई सौ किलोमीटर दूर मौजूद) जगह पर चपरासी के रूप में पदस्थ है और एक दो दिन के लिये छुट्टी पर आया है। रात को उसकी पत्नी दैहिक संसर्ग के लिये उतावली हो कर बच्चों को उनके कमरे में छोड़कर पति के कमरे में पहुंचती ही हैं कि बच्चों के कमरे में जल रहे दिये से आग लग जाती हैं और धुयें में घुटकर उनके इकलौते बच्चे मुन्ने का दम घुट जाता है। बदहवासी में समाप्त इस कथा को असफल ने अपवाद नाम दिया है। खुलंे और साफ विचारों की युवती प्रभा की पशोपेशा और स्त्री नियति की कथा वारांगना शीर्षक से ए. असफल ने रची है। बचपन से ही युवकों में घुलमिलकर रहती मुक्त मानसिकता की लेखिका प्रभा की रचनायें पढ़कर एक-लेखक (पत्र-मित्र) ध्रुव अनायास प्रभा के शहर में आ धमकता है तो प्रभा उस युवक से मुक्त हृदय से मिलती है। प्रभा के इस मुक्त स्वभाव का मतलब नारी लोलुप ध्रुव प्रभा की आंतरिक आदिम-प्यास मानकर उसे अपने में समेट लेना, दूरियां को पाट देना चाहता है कि प्रभा सतर्क हो कर दूर ठेल देती है। तिरस्कृत ध्रुव उसे रण्डी की उपमा दे ड़ालता है। रण्ड़ी शब्द प्रभा के अन्तर्मन को ऐसी चोट देता हैं कि अपने नाट्यग्रुप के नाटक में झांसी की रानी का अभिनय करती वह अपने अवचेतन में बसे नकार को अंजाने में मंच पर प्रकट कर देती हैं- नहीं-नहीं....... रण्डी नहीं हूं.....। एक स्वथ्य हृदय, अलमस्त व बिंदास युवती की शानदार कथा हैं- वीरांगना। इस कहानी को अद्भूत भाषा पाठक को बांध लेती है।
लेफ्ट हैंण्डर इस संग्रह की अंतिम कथा हैं, और परम्परानुसार सबसे सशक्त कथा भी। गॉंव के युवक ओमप्रकाश भदौरिया के विरूद्ध-चम्बल क्षेत्र में प्रचलित-नाजायज तर्कों के आधार पर ड़ाकुओं के लियें मुखबिरी का प्रकरण बनाकर पुलिस पकड़ लेती है। झूठे एंकाउंटर में फंसाकर उसे मारने की तैयारी हो रही होती है कि मौका पाकर वह भाग लेता है। भटकता हुआ वह अपने परिचित एक गांधीवादी नेता और एक कम्युनिस्ट नेता से मदद के सिलसिले में भेंट करता है पर कोई उसे सामने आकर बचाने की पहल नहीं करता। अंततः वह एक पत्रकार युवती से मिलता है जो तथ्यों की खोज खबर हेतु उसके गॉंव जाती हैं, जहां उसका परिचय ओमप्रकाश की घरघुस्सों दिखती लेफ्ट हैंण्डर पत्नी गुड्ड़ों से होता है। बाद में एक रात गॉंव पर जब ड़ाकू हमला करते हैं तो यही घरघुस्सों गुड्ड़ों आगे बढ़कर उसे ड़ाकुओं के खिलाफ मोर्चा संभाल लेने की प्रेरणा देती है। ड़ाकुओं से निपटकर गुड्ड़ों पुलिस से भी निपट लेने का हौसला देती है। यह कहानी इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानी है।
वारांगना, लेफ्ट हैंण्डर , मंझलेचाचा की तुलना में जंग, अपवाद और मकान जैसी कहानियां यद्यपि कमजोर दिखती हैं, और अपने-अपने कटैक्ट भी उन्हें अलग मिजाज की कहानियां बताते हैं, जिनका एक संग्रह में होना कुछ अजीब सा लगता है। यदि असफल के प्रतिनिधि कहानी संग्रह के रूप में इस संग्रह को लिया जाए तोही इन कहानियां की यूती समझ में आती है। अन्यथा ये कुछ अलग सी दिखती है जहा तक भाषा की रवानगी और प्रभावपूर्ण प्रस्तुती की बात है- ए.असफल का यह संग्रह अद्वितीय है। विभीन्न परिप्रक्षों की कुछ कहानियों के लोग मकान की मां , अपवाद का लाखा, जंग का हंसा, वारांगना का ध्रुव व लेफ्टहेंडर का ओमप्रकाश हमें हर कही मिल जाए।
इस कारण इन कहानियों में विषय वस्तु से लेकर चरित्रों तक कही भी काल्पनिकता प्रतित नही होती है। सही-सही कसर संवाद पूरी कर देते है। भाषा के नाम पर असफल के पास एक उम्दा शब्द संसार मौजूद है, जिसमें अपनी तमाम क्षेत्रीय विशेषताएं और हिंदी की तमाम परंपरायें मौजूद है।
असफल एक संवेदनशील रचनाकार है और खास तौर पर स्त्री मनोविज्ञान के मामले में कुछ ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा जानकार और ज्यादा सशक्त भी है। मकान की मां , अपवाद की अभि सारोद्यत नायिका, वारांगना की प्रभा की अनुभूतियों को जिस मार्मिकता और हवाई से असफल ने पकड़ा है वह सराहनिय है। यहा आकर स्त्री और पूरूष लेखन का भेद मिटता सा महसूस होता है स्त्री पात्रों को खड़ा करने में असफल का वाकई जवाब नही है। लेफ्टहेंडर की गुडडों का चरित्र जिस ढंग से उन्होने उठाया वह तो कहानी के अंत के बाद भी पाठक को देर तक प्रभावित किये रहता है। वारांगना की प्रभा और मकान की मां का अंतरद्र्वद पूरी बैचेनी से उभरकर सामने आता है।
हिन्दी कहानी के पास इस समय लेखक तो बहुत हैं, पर पाठकों का अभाव है। आम आदमी आज कविता के साथ-साथ कहानी से भी दुर हो चुका है क्योकि हल्की-फुल्की कहानियों, फिल्मी पत्रिकाओं के गाशिप कालम तथा सच्चे अपराध किस्सों की तरफ आज आम हिन्दी पाठक की रूचि लगातार बढ़ रही है। हालांकि यह तो सच हैं कि साहित्यिक रचनाओं के पाठक कभी भी आम लोग नहीं रहें हैं पर वह सीमांत का व्यक्ति जो कलम और किताब से किसी भी रूप् में जुड़ा है और लेखक नहीं हैं, उसे पढ़ने लायक रचनायें देने में भी हिन्दी लेखक सफल नहीं हो सके हैं। कहानी में वृतांतत्मकता का अभाव और विचारों की बहुलता ही शायद ऐसी स्थिति ले आई है। इस दृष्टि से असफल भी सफल नहीं है। यद्यपि वे विचारों का मूल पाठक के सिर में नहीं मारते तथापि वृतांत गाथाओं सा आकर्षण वे पैदा नहीं कर पायें है। इस कारण उनकी कहानियां ज्यादा बांध नहीं पाती सिवाय-लेफ्टहेंड़र के।
इस संग्रह की कहानियों पर यदि सरसरी नजर ड़ाली जाये तो एक बात ही उभरती है कि ये तमाम कहानियां पशोपेश में उस आम आदमी की कहानियां हैं, जो हमें यत्र-तत्र मौजूद मिल जाता है। हां यह जरूर है कि इस संग्रह के द्वारा असफल ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है।