UJALE KI OR - 22 in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - 22

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उजाले की ओर - 22

उजाले की ओर

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आ. एवं स्नेही मित्रो

नमस्कार

आजकल गायों के बारे में बहुत संवेदनशील हो गए हैं लोग ! गाय माता है दूध देकर हमारा पोषण करती है,उनको किस प्रकार बचाया जाय ? अनेकों प्रश्न ,अनेकों चर्चाएँ ,अनेकों बहस !लेकिन परिणाम ??

गाय को कोई आज ही माता का नाम नहीं दिया गया है ,गाय को माता प्रारंभ से ही पुकारा जाता रहा है और इसका कारण भी है कि दूध देकर यह हमारे शिशुओं को बड़ा करती है,गाय से जुड़ी अनेकों पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं , हम भारतीय गाय को पूज्य मानते रहे हैं जो आज भी उतना ही सत्य है जितना पूर्व समय में था | गंभीर प्रश्न यह है कि हम सच में गाय के प्रति पूज्य भाव रखते हैं अथवा केवल अन्यों पर दोषारोपण करने के लिए इस प्रकार के आन्दोलन व चर्चाएँ की जाती हैं ?

मैं गुजरात में रहती हूँ,यहाँ रबारी जाति के लोग गाय पालते हैं ,दूध बेचते हैं |लोग दूध लेते भी हैं और मालूम नहीं किस प्रकार उसको शुद्ध मानते हैं ?मेरे मन में बहुत पीड़ा होती है जब मैं गायों को गंदे कचरे के ढेर में से प्लास्टिक व गन्दगी खाते हुए देखती हूँ ,उसीका तो दूध बनता होगा जिसे लोग खरीदकर पीते हैं |क्या यह दूध स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता होगा ?क्या गाय जो हमारी माता कहलाती है, उसे कचरे का भोजन देकर स्वस्थ्य रखा जा सकता है ?बातें कुछ समझ से परे हैं,जिन गायों को हम माता कहकर पुकारते हैं वे गन्दगी में रहती हैं ,गन्दगी में से भोजन खाती हैं और झुण्ड बनाकर कहीं भी चली जाती हैं,वही गोबर और पेशाब करती हुई पड़ी रहती हैं |सड़क पर उन्हें छोड़ दिया जाता है और यदि कोई वाहन उन्हें छू भी जाए तो गायों के मालिक मार-पीट पर उतर आते हैं |वाहन को पकड़कर चालक को मारा-पीटा जाता है और उससे दंड वसूल किया जाता है |

गाएं सड़क पर ऎसे छोड़ी जाती हैं जो सड़क के बीचोंबीच चार रास्तों पर झुण्ड में बैठ जाती हैं और कितना ही हिलाने से भी नहीं हिलती-डुलतीं|लोगों को उनसे बचकर निकलना पड़ता है |कभी-कभी तो वे सींग मारकर किसीको घायल भी कर देती हैं,उस समय उनके मालिकों का पता भी नहीं होता लेकिन यदि गायों को कोई छू भी जाए तो उस मनुष्य की खैर नहीं जिससे गाय अड़ गई हो |

कई वर्ष पूर्व हमारे एक परिचित डॉक्टर साहब हाइवे से आ रहे थे ,सदा की भांति गायों का झुण्ड सड़क के बीचोंबीच बैठा हुआ था |कई बार हॉर्न देने पर भी न तो कोई वहाँ दिखाई दिया,न ही गाएँ टस से मस हुईं|कई बड़े-बड़े ट्रक उनके आगे से गुज़र रहे थे जो गायों को छूकर भी निकल रहे थे |इन ट्रकों के चालक लंबे-चौड़े सरदार थे जो अधिकांशत: किसीकी चिंता नहीं करते,वे बिंदास निकलते जा रहे थे |उन ट्रकों को निकलते देखकर साहस करके डॉक्टर साहब ने भी अपनी गाड़ी को गायों के झुण्ड के साइड से बचाकर निकालने की चेष्टा की | न जाने कैसे उनकी गाड़ी किसी एक गाय से छू भर गई जो झुण्ड में से खड़ी होने की चेष्टा कर रही थी |गाय उठती-उठती फिर से बैठ गई जिससे झुण्ड में हलचल सी फ़ैल गई|

अचानक वातावरण में एक शोर बरपा हुआ और न जाने कैसे अँधेरे में से कुछ लोग निकलकर आ गए जिनके हाथों में मोटे-मोटे डंडे थे | वह एक गुस्सायी हुई भीड़ थी जो न जाने अचानक वहाँ कैसे और किसके इशारे पर आ पहुंची थी | डॉक्टर साहब बेचारे अचानक इतने लोगों को देखकर बौखला उठे, उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था और लठैत उनकी ओर बढ़ते ही आ रहे थे |वे ज़ोर-शोर से आवाजें देकर उन्हें ललकार रहे थे |जब वे पास आ गए तब उन्होंने डॉक्टर साहब को गाड़ी के दरवाज़े खोलने के लिए कहा|गाएँ उठकर भागने लगीं थीं , वे सोच रहे थे कि अब उनकी खैर नहीं है |

“गायों को साइड में करो ,मैं निकलता हूँ .......” अचानक उनके मन में कुछ विचार कौंधा |

“हो----साइड आपो.....”(साइड दो) कहते हुए भीड़ के लोगों ने गायों को एक तरफ करना शुरू किया और डॉक्टर साहब को दूसरी ओर गाड़ी लगाने को कहा |

दैवयोग से डॉक्टर साहब को एक अवसर मिल गया और उन्होंने गाड़ी साइड में लगाने का उपक्रम करते हुए अपनी गाड़ी की स्पीड इतनी बढ़ा दी कि भीड़ के लोगों को कुछ समझ न आ पाया |वे तो मुस्तैद खड़े अपने डंडों को हिला हिलाकर उनके गाड़ी से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे |अचानक गाड़ी को स्पीड में भागते देख वे सब बौखला उठे और उन्होंने गाड़ी के पीछे दौड़ लगा दी किन्तु अब गाड़ी उनके हाथ आने वाली नहीं थी | हमारा घर सबसे पास होने के कारण डॉक्टर साहब ने गाड़ी हमारे घर के सामने रोकी |हम जैसे ही बाहर गए डॉक्टर साहब की स्थति देखकर बौखला गए |उन्हें संभालकर घर में लाया गया ,वे पसीने-पसीने हो रहे थे,उनकी साँस फूल रही थी और हाथ-पैर काँप रहे थे |न जाने वे किस प्रकार निकल भागने में सफल हुए थे |नीबू शर्बत पीकर वे कुछ चैतन्य हुए और उन्होंने अपनी आपबीती हमें कह सुनाई |

यह केवल एक किस्सा है ,ऐसे न जाने कितने किस्से यहाँ प्रतिदिन होते हैं |हमारी सोसाइटियों में गाएँ अंदर घुस आती हैं और पीछे-पीछे उनके मालिक मोटरसाइकिल पर डंडे लेकर उन्हें खदेड़ते नज़र आते हैं |’हो-हो’ की आवाजें लगाते हुए वे इतनी तीव्र गति से मोटरसाइकिल चलाते हैं कि सोसाइटी के अंदर खेलने वाले बच्चे अथवा बुज़ुर्ग कभी भी उनकी लपेट में आ सकते हैं |कितनी बार चौकीदार द्वारा उनसे कहलवाया जाता है किन्तु उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती |

प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या इनके लिए कोई नियम आदि नहीं होने चाहिएं ?क्या इसी प्रकार हम एक तथाकथित ‘आदर्श शहर’ के वासी बनकर जीवन गुज़ारते रहेंगे?यदि हाँ,तो जय हो ......

कुछ तो सोचें ,कुछ तो समझें कोई तो नियम बनें ,

अंधकारों को हटा हम, रोशनी में चल सकें ||

चिंतनीय प्रश्न है ,आशा है इस विषय पर हम मिलकर कुछ सोच सकेंगे ,कुछ समाधान निकाल सकेंगे |

इसी विश्वास के साथ

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती