ZAKHMI PARINDA in Hindi Short Stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | ज़ख्‍़मी परिन्‍दा

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ज़ख्‍़मी परिन्‍दा

लघु-कथा--

ज़ख्‍़मी परिन्‍दा

आर.एन. सुनगरया,

शरारतों का कोई अन्‍त नहीं। हर पल, हर स्‍तर पर, हर व्‍यक्ति के विरूद्ध साजिषों का ताना-बाना बुनना और उसे कार्यरूप देना, पूर्ण सक्रियता से कोई मामूली हरकतें नहीं है। वह भी इतनी चतुराई से कि तिल भर भी किसी को आभास ना हो कि यही किसी पूर्ण पूर्व नियोजित योजना के अन्‍तर्गत हो रहा है। जिसके अनुसार ऐसे संदेश दिये जा रहे हैं, जो प्रत्‍यक्ष देना पड़े तो अपने आप पर इसका दोष आ जायेगा। अब अन्‍दर ही अन्‍दर उबलकर, उत्तेजित होकर क्रोध में, कुछ ऐसा एक्‍शन कर बैठो कि सारा के सारा दोषारोपण आपके सर मड़ा जाय। भले ही आप निर्दोष क्‍यों ना हों। इन सब घटनाओं के माध्‍यम से अप्रत्‍यक्ष रूप से आपको यह भी एहसास करा दिया कि ‘’और लो मुझसे पंगा।‘’

सावधान हो जाओ—मेरी मर्जी के खिलाफ जाने की हिमाकत ना करना, अन्‍यथा और ज्‍यादा मुश्किल में डालने के लिये मेरे पास और भी साजिषों के जाल हैं। बद् से बद्तर हालत में फंसाने में माहिर हूँ। आखिर जायेगा कहॉं बच के—हमेशा सर धुनते रहेगा। क्‍या मजाल कि एक दिन भी सुख-शॉंति से रह ले।

मेरे बच्‍चे मुझसे या मेरी आदतें या बातों को अंगीकार कर रहे हैं या नहीं ये तो वे जाने, मगर मैंने अपने पिताजी की यह बात हमेशा गांठ बॉंध कर रखी कि चलते-चलते अगर कीचड़ रास्‍ते में आ जाये तो उसमें पत्‍थर मत मारो, उसके गन्‍दे छींटे अपने ऊपर ही आयेंगे, ना ही उसे साफ करके रास्‍ता बनाओ बल्कि उसे किनारे छोड़कर बगल से निकल जाओ चाहे आपका रास्‍ता लम्‍बा ही क्‍यों ना हो जाये। अगर कोई बार-बार पिन्‍न मारे तो उन कारणों पर गौर करो जिनकी वजह से समस्‍याओं/ उलझनों की दीवारों खड़ी करने की शक्ति मिल रही है। इसका पता लगा कर उन अस्‍त्र–शस्‍त्र को ध्‍वस्‍त करने की कोशिश कर अपने-आप कमर टूटेगी एवं लाचारी में कुछ भी नहीं कर पायेगी। यह भी मानकर चलो कि सुधरेगी फिर भी नहीं। इसलिये सावधानी तो निरन्‍तर रखनी ही होगी उसकी हरकतों पर बराबर कड़ी नजर रखना अत्‍यन्‍त जरूरी है। अन्‍यथा मौका देकर वह फिर बार कर सकती है। नागिन अपनी मूल प्रवृति कभी नहीं त्‍याग सकती।

स्‍थाई हानि पहुँचाने वाला आत्‍म-विश्‍वास फलफूल रहा है। इसके तहत कितना भी कुछ कर लो, मगर उसे तिल भर भी फर्क नहीं होता, बल्कि और आनन्‍द की अनुभूति होती है। अच्‍छा है—परेशान हो रहा है।

एक और तकलीफ देने का हथियार हाथ लग गया, हमला करने के लिये। जैसे खुशी का मंत्र मिल गया। तड़पे तो अपनी बला से कुड़मकुड़ाये तो अपनी बला से। ठूँठ कभी हरा हो सकता है? ठूंसा मारने की तकलीफ देने इत्‍यादि के ही लिये होता है।

प्रत्‍येक रिश्‍ता अनेकों निर्धारित प्राकृतिक, स्‍वभाविक सामाजिक, पारिवारिक, भावात्‍मक इत्‍यादि बन्‍धनों से गुंथा हुआ रहा है। अनगिनत प्रत्‍यक्ष /अप्‍त्‍यक्ष तत्‍वों से गठित रिश्‍तों को अपनी बात व्यवहार, सेवा सुश्रूषा प्‍यार-स्‍नेह, परस्‍पर आवश्‍यकताओं के निष्‍पक्ष आदान-प्रदान द्वारा पल्‍लवित रिश्‍ता ही चिरस्‍थाई रहता है। अन्‍यथा रिश्‍ते को जीवन प्रदान करने वाली बन्दिशों के नष्‍ट होते जाने से रिश्‍ता मात्र नाम का ही नहीं रह जाता बल्कि कॉंटों के ढेर पर पड़ा ज़ख्‍़मी परिन्‍दा की तरह तड़पन को झेलता रहता है।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.) मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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