Karmanyevadhikaraste in Hindi Poems by Annada patni books and stories PDF | कर्मण्येवाधिकारस्ते

Featured Books
Categories
Share

कर्मण्येवाधिकारस्ते

कर्मण्येवाधिकारस्ते

 

अन्नदा पाटनी

 

 

 

छिटक कर आती वातायन से किरणें

 

सूरज की,

 

कमरे की दीवार पर बनाती हुई एक आकृति अंगूठे की

 

जैसे चिढ़ा रही हो सिंगट्टा

 

“होगे तुम बड़ी साख वाले,

 

होगे तुम बहुत पैसेवाले,

 

बडे बड़े महलों में रहने वाले,

 

सोचते होगे तुम्हारे घर ही आयेंगे,

 

झोंपड़ी वालों को तरसाएंगे ।

 

मत पालो भ्रम बहुत ख़ास होने का,

 

मत करो अहंकार अमीर होने का,

 

महल तुम्हारा हो या ग़रीब की कुटिया,

 

हम किरणों ने, नहीं रखी सोच यह घटिया।

 

 

 

यह धरा फैला कर अपना आँचल,

 

गोद में ले सबका सर है सहलाती ।

 

यह बसंती ठंडी बयार बह बह कर,

 

सबको सुवासित है कर जातीं ।

 

यह शीतल चाँदनी छिटक छिटक कर

 

सबको शीतलता है पहुँचातीं ।

 

उदारमना हैं, करतीं नहीं ऊँच नींच में अंतर।

 

अमीर, ग़रीब का नहीं देखतीं ये घर ।

 

 

 

मानव निर्मित ये सभी हरकतें हैं,

 

पर दोष प्रभु के मत्थे मढ़ते हैं ।

 

परमपिता की असीम नियामतें हैं,

 

समान रूप से बाँटी इनायतें हैं ।

 

मगर प्रारब्ध बना बैठा नियामक है

 

अच्छे बुरे कर्मों का रखता बही खाता है

 

सबके कर्मों का वही फलदाता है ।

 

इसीलिए नहीं भाग्य में सबके आनंद उठाना

 

उल्टे सीधे कर्मों पर पड़ता है पछताना ।

 

 

 

कर्मों की सब माया है जो

 

मानव को सबक सिखाती है ।

 

स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है, समझाती है ।

 

छोड़ संकीर्ण मनोवृत्ति, पुरुषार्थ करो ।

 

इंसां को इंसां मान, ऊँचे भाव रखो ।

 

धरती है कर्मभूमि मन में यह सोच रखो ।

 

बोओ सुख के बीज, धरा को स्वर्ग करो ।

 

 

 

——————-

 

(2)

 

 

चित्र मेरे अपनों के

 

 

 

 

मैंने कुछ चित्र,

 

यादों के गलियारों में मन के खूटों पर टांग रखें हैं ।

 

 

 

ये चित्र मेरे अपनों के हैं,

 

जिन्होंने मुझे जन्म दिया

 

ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया,

 

जीवन की सुगमता और जटिलता से परिचय करवाया,

 

सुखद क्षणों में हंस कर साथ दिया तो

 

दुखद क्षणों में बढ़ कर हाथ थाम लिया।

 

 

 

मैं चाहती तो इन चित्रों को

 

नकली फूल मालाएं चढ़ा कर,

 

दीवार पर टांग देती ।

 

पर मैंने ऐसा नहीं किया,

 

क्योंकि में नहीं चाहती कि

 

धूल धूसरित मालाएं इन्हें धूमिल कर दें,

 

समय के थपेड़े इन्हें बदरंग कर दें ।

 

 

 

ये चित्र मेरे लिए बड़े अनमोल है।

 

मैं इन्हें सदा अपने साथ रखना चाहती हूँ,

 

और जब मन हुआ इन्हें देखने का,

 

अन्दर झांक लिया और यादों के गलियारों में घूम कर मन के खूटों पर टंगे

 

इन चित्रों को

 

एक एक कर निहार लिया ।

 

 

 

 

——————-

 

(3)

 

 

मोकू कहाँ ढूँढूँ रे बंदे”

 

 

मन की शांति कहाँ मिलेगी ?

 

इस प्रश्न के उत्तर में मुस्कुरा कर,

 

भगवा वस्त्रधारी महात्मा ने कुछ उपदेश दिए,

 

शांति प्राप्त करने के कुछ गंभीर सुझाव दिए।

 

प्रसन्नचित्त लौटी मैं घर को,

 

मन में कुछ संकल्प लिए ।

 

स्वामी जी के कहने पर मैंने

 

सब दरवाज़े बंद कर दिए ।

 

नफ़रत, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा,

 

सबका प्रवेश निषिद्ध कर दिया ।

 

संगी-साथी, सखी-सहेली, रिश्ते-नाते,

 

सब को अपने से दूर कर दिया ।

 

 

 

अब नहीं थी, कोई भी हलचल,

 

न कोई उलझन, न कोलाहल ।

 

न कोई झगड़ा, न वाद विवाद ।

 

न कोई बंधन, न कोई रिवाज ।

 

 

 

पूरे घर में शांति व्याप्त हो गई,

 

एक सन्नाटा, नीरवता छा गई ।

 

शांति ही तो माँगी थी मैंने  ।

 

यही मुराद तो माँगी थी मैंने ।

 

पर यह क्या, क्यों नहीं प्रसन्न हूँ मैं ?

 

क्यों दुखी हूँ मैं, जब पूरी हुई अभिलाषा ?

 

नहीं, यह नहीं थी शांति की मेरी परिभाषा ।

 

जो देता मन को सुकून,वह मैने माँगा था,

 

न कि श्मशान सी शांति या पसरा सन्नाटा।

 

इसीलिए मन शांत न होकर, अशांत हो गया,

 

स्पंदनविहीन होकर और शिथिल हो गया ।

 

आत्मविश्लेषण की जगह अंतर्द्वंद्व छा गया,

 

महात्मा जी की मानूँ या दिल की बात सुनूं।

 

दिल कहता है काम, क्रोध, मद,लोभ सब

 

मानव जीवन के हैं अभिन्न, अनिवार्य अंग ।

 

 

 

नफ़रत है तो प्यार का अस्तित्व है तभी,

 

ईर्ष्या, द्वेष है तो प्रतिस्पर्धा का अस्तित्व है तभी,

 

दुख है तो सुख का भी अस्तित्व है तभी,

 

एक ही सिक्के के दो पहलु हैं तो साथरहेंगे

 

एक दूसरे से जुड़े हुए हैं,कैसे अलग रहेंगे ।

 

उपदेशों से अधिक अपने विवेक से काम लो,

 

पलायन नहीं  इनसे, साहस से स्वयं को मुक्त करो ।

 

संघर्ष तुम्हें बल देगा, अंतर्शक्ति प्रबल होगी ।

 

खोज रहे थे जिसे आज तक भटक भटक कर,

 

वही शांति,दस्तक देगी स्वयं,

 

द्वार तुम्हारा खटखटा कर  ।

 

 

 

———————

 

 

(4)

 

 

जिंदगी और मैं

 

 

 

 

सब कहते हैं ज़िन्दगी एक पहेली है,

 

पर मेरे लिए तो वह एक अच्छी सहेली है।

 

ऐसी सहेली,जो मेरे साथ पली बढ़ी

 

और मेरे साथ खेली है ।

 

 

 

वह बचपन की ठिठोलियां और मस्ती भरी शामें,

 

वह नटखटपन और छोटी मोटी शरारतें,

 

नन्हें-नन्हे हाथों से बनाते

 

वह मिट्टी के घर,

 

लकड़ी के छोटे बर्तनों में बनाते झूठमूठ का भोजन

 

न छल न कपट,

 

बस साफ़ स्वच्छ मन,

 

मासूम सी नोंक-झोंक और था भोलापन,

 

अपनी ही दुनिया थी,अपने थे स्वप्न,

 

न कोई चिन्ता थी,न कोई उलझन ।

 

 

 

अल्हड़पन ने अलमस्त किया

 

तो इठलाता यौवन आया,

 

बढ़ीं प्रेम की पींगें,

 

जीवन साथी पाया ।

 

आँगन चहका,महकी बगिया,

 

चारों ओर ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ ।

 

 

 

कैसे होऊँ उऋण,ज़िन्दगी से इतना पाया,

 

सुख में,दुख में, हर पल में मेरा साथ निभाया।

 

अब जीवन की सांध्य बेला पर,

 

लगता है मन ही मन यह डर,

 

छीन न ले मुझसे कोई मेरी यह सहेली ।

 

 

 

एकाएक आवाज़ यह आई,

 

कैसा भय और कैसा डर ?

 

अरे भूल गई क्या ?

 

ज़िन्दगी तुझसेअलग नहीं और

 

तू ज़िन्दगी से अलग नहीं।

 

तू है तो ज़िन्दगी है और

 

ज़िन्दगी है तो तू है ।

 

-------------

 

(5)

 

आँसू

 

 

 

 

आँख से निकला आँसू,

 

आँख की कोर तक आकर अटक गया,

 

अच्छा हुआ जो अटक गया ।

 

अगर बह जाता तो

 

कपोलों पर बहती धाराएँ,

 

जाने कितनी उत्सुक नज़रों को

 

आमंत्रित कर जातीं ।

 

जाने कितनी जिज्ञासाओं को

 

जागृत कर जातीं ।

 

और न जाने कितने प्रश्नों की

 

झड़ी लग जाती ।

 

 

 

"अरे-अरे, क्या हुआ,कुछ कहा क्या किसी ने?

 

मन को ठेस पहुँचाई क्या किसी ने ?

 

बताओ न क्या बात है ?"

 

जानती हूँ इनमें से अधिकतर हैं तमाशबीन,

 

पहन कर सहानुभूति के मुखौटे, करते रहते हैं छानबीन ।

 

ढूँढते रहते हैं कुछ ऐसा मिर्च-मसाला,

 

जो सुना सकें महफ़िल में चटकारे लेकर ।

 

बड़ा आसान है उनके लिए

 

किसी का परिहास उड़ा कर,

 

बना देना उसे केंद्रबिंदु मनोरंजन का,

 

वह भी नि:शुल्क,किसी और की क़ीमत पर ।

 

 

 

लेकिन अब आँसू भी बह बह कर

 

देख चुके हैं अपनी क़ीमत को घटते ।

 

अब झूठी हमदर्दी, बनावटी बातें,

 

कमज़ोर नहीं कर पाते उनको ।

 

समझ लिया है उन्होंने, व्यर्थ है,

 

व्यर्थ लोगों पर स्वयं को बहाना ।

 

सीख लिया है उन्होंने स्वयं को रोकना,

 

छुपा लेना किसी आँचल की ओट में

 

या अटक जाना आँख की कोर में ।

 

 

———————

 

 

 

 

(6)

 

वह सुबह कभी तो आएगी’

 

 

 

 

अस्पताल की शैय्या पर संज्ञाशून्य पड़ी थी मैं,

 

बंद आँखों से भी देख पा रही थी वह दृश्य

 

मैं ।

 

कैसे बीच बाज़ार से खींच ले गए मुझे वह तीन दरिंदे ।

 

मैं छटपटाती चीख़ती,  चिल्लाती रही बेतहाशा,

 

पर लोग खड़े चुपचाप, बस देखते रहे तमाशा ।

 

फिर किसी सुनसान जगह पर,

 

घंटों चला वासना का तांडव,

 

कौन कहेगा इनको मानव?

 

मनुष्य के रूप में ये थे दानव ।

 

नोंच नोंच कर, छलनी कर दिया तन मेरा,

 

कुछ भी नहीं बचा था पास, जो था मेरा।

 

रो-रो कर माँगती रही भीख दया की,

 

हाथ जोड़, पैर पकड़ रही गिड़गिड़ाती,

 

पर कामुकता में अंधे बहरे बन वे,

 

हैवीनियत की हदें पार करते रहे वे ।

 

अब जब मुझे होश है आया,

 

अस्पताल में खुद को पाया ।

 

टीवी चैनल वालों की भीड़ लगी थी,

 

मीडिया वालों में  जैसे होड़ लगी थी ।

 

उत्तेजना उनकी देखते बनती थी,

 

एक और निर्भया जो मिल गई थी ।

 

चौबीस घंटे उछलेंगीं अब खबरें,

 

कुछ सच्ची, कुछ  मनगढ़ंत बनके ।

 

हृदयविदारक,नृशंस घटना द्रवित करेगी,

 

क्रोध, आवेश,आक्रोश की लहर उठेगी ।

 

आंदोलन होंगे,विरोध की ज्वाला भड़केगी,

 

राजनीति भी तब ऐसा अवसर क्यों चूकेगी,

 

इसी आग में अब अपनी रोटी सेकेगी ।

 

 

 

पहले भी अनेक बार यही हुआ था,

 

पर कुछ भी हासिल नहीं हुआ  था ।

 

उल्टे और बढ़े अपराध, बलात्कार, हत्याएँ,

 

भ्रष्टाचार और लचर क़ानून ने हौंसले बढ़ाए

 

कितनी निर्भया भेंट चढ़ गईं गुहार लगाते,

 

थोड़ी देर रही हलचल, फिर सब ठंडे बस्ते में।

 

 

 

तो फिर मैं क्यों उम्मीद लगाऊँ,

 

क्यों स्वयं को खिलौना बनाऊँ ?

 

कभी इसके हाथ, कभी उसके हाथ,

 

जानते हुए कि नहीं देगा कोई साथ ।

 

सब बिछा बिसात, मोहरा मुझे बनायेंगे,

 

खेलेंगे शतरंज, टेढ़ी मेढ़ी चाल मुझे चलवायेंगें ।

 

नहीं बनना है एक और निर्भया मुझको,

 

नहीं रहना है अख़बारों की सुर्ख़ियों में मुझको,

 

औ बनना है टी वी में प्रदर्शन की वस्तु मुझको,

 

नहीं पड़ना है ‘मी टू ‘के चक्कर में मुझको,

 

अपने अस्तित्व की बलि चढ़ा कर,

 

नहीं चाहिए सहानुभूति और न्याय मुझको।

 

जीवन की मेरी यह जंग, स्वयं लड़ूँगी मैं,

 

परवाह नहीं मुझे, हारूँगी या जीतूँगी मैं ।

 

जीने मरने के संघर्ष ने मुझे और दृढ बनाया है ।

 

अपनी और नारी शक्ति में मेरा विश्वास बढ़ाया है ।

 

पा कर रहूँगी न्याय, नहीं चैन से बैठूँगी तब तक,

 

पूरा होगा संकल्प, नहीं चैन से सोऊँगी तब तक ।

 

अपनी मंज़िल खुद पालूँगी बिना मचाए शोर,

 

जानती हूँ हर रात की होती है सुहानी भोर ।

 

जितनी परीक्षा लेनी है, ले लो भगवन,

 

हिम्मत नहीं हारूँगी, दोहराऊंगी हर पल ।

 

वह सुबह कभी तो आयेगी,

 

वह सुबह कभी तो आयेगी ।

 

 

 

——————————

 

 

 

(7)

 

 

कमाल ये आँखें

 

 

 

 

 

 

ये आँखें भी कमाल हैं,

 

खुली होती हैं तो सब कुछ देख ही लेती हैं,

 

बंद होती हैं तो और भी ज़्यादा देख लेती हैं।

 

ज़ुबान नहीं है फिर भी सब कुछ कह जाती हैं,

 

अच्छा बुरा, हर भाव प्रकट कर जाती हैं  ।

 

 

 

बिना स्पर्श किए तन में सिहरन,

 

मन में तारों को झंकृत कर जातीं हैं ।

 

पांव बिना भी दूर न जाने कहाँ तक चली जाती हैं,

 

पीछा करतीं, पंथ निहारतीं, सिसकी भरती जाती हैं ।

 

 

 

बिना पिए, भर कर मस्ती, मदहोश किए जाती हैं,

 

कभी चलातीं हैं  ये गोली, कभी तेज़ तलवार, कटार,

 

बचना सहज नहीं होता है जब चलते नैनों के बाण ।

 

इतने हथियारों से लैस, शिकार किए चली जाती हैं ।

 

 

 

झूठी भी हैं, सच्ची भी हैं,

 

किसी ने तभी तो कहा है,

 

झूठे नैना बोलें साँची बतियां  और

 

नैनों की मत सुनियो रे, नैना ठग लेंगे ।

 

 

 

सच में कमाल हैं ये आँखें ।

 

ईश्वर की अनमोल देन हैं ये आँखें ।

 

जिनके ये पास नहीं है, समझो उनकी पीड़ा,

 

अंधकार से उन्हें निकालें, आओ उठाएँ यह बीड़ा ।

 

 

 

नेत्र दान करें ओर भर दें

 

किसी के जीवन में उजियारा,

 

इस से बढ़ कर क्या होगा भाग्य हमारा,

 

जीवित रखेंगी मरने के उपरांत हमें ये आँखें

 

ईश कृपा है कि मिली हमें कमाल ये आँखें.

 

 

———————

 

 

 

 

 

 

 

(8)

 

लम्हे

 

 

लम्हों से लम्हे चुरा, जमा कर लेती हूँ

 

और जीने की राह आसान बना लेती हूँ ।

 

 

 

अंधेरे में ये ही जुगनू बन

 

रोशनी फैला देते हैं ।

 

गरमी में शीतल बयार बन,

 

ठंडक का अहसास दे देते हैं ।

 

सर्दी में ऊनी चादर, कंबल बन,

 

गरमाहट का अहसास करा देते हैं ।

 

हंसी ढूँढती हूँ तो स्मित बन,

 

मीठा सा गुनगुनाने लगते हैं ।

 

रोती हूँ तो यही चुटकुले बन

 

मन को गुदगुदाने लगते हैं ।

 

जब साथ होते हैं तो

 

लगता है कोई सहला रहा है ।

 

रिसते ज़ख़्मों पर जैसे

 

कोई मरहम लगा रहा है ।

 

ये लम्हे मेरी संजीवनी हैं,

 

मेरी निजी सम्पत्ति हैं ।

 

इसीलिए प्यारे, चुराए लम्हे मैंने

 

संजो कर अंतर्मन में छिपा रखे हैं।

 

 

 

——————

 

 

 

 

(9)

 

 

जैसा भी है, तेरा भी है, मेरा भी है

 

 

 

 

जिधर देखो सब कुछ साफ सुथरा,

 

न सड़कों पर उड़ती धूल, न कचरा,

 

कारों का हुजूम, पर न हॉर्न का कोई शोर,

 

पैदल नहीं कोई दिखता कहीं किसी ओर ।

 

चारों ओर शांति है, न कोई हलचल,

 

सब अपने में हैं मस्त न कोई कोलाहल।

 

 

 

सब्ज़ी,फल सब सजे हैं बंद पैकेटों में,

 

न कोई मोल तोल,  न कोई लड़ने वाला ।

 

शुद्ध हवा, शुद्ध परिवेश न कोई प्रदूषण,

 

नागरिक सुरक्षित, उच्च कोटि का शिक्षण

 

कानून है मुस्तैद, कसता शिकंजा हर क्षण,

 

सब  कुछ है व्यवस्थित,न कोई गड़बड़ ।

 

 

 

यह है विदेशी धरती पर बसा एक देश,

 

सुख सुविधा, आधुनिक संसाधन अशेष,

 

रहन सहन है उत्तम, सर पर सबके छत है ।

 

दिनचर्या है व्यस्त पर दिन गुज़रते जाते हैं,

 

थोड़े उपक्रम से परिवार यहाँ पल जाते हैं ।

 

 

 

इतना सब अच्छा है तो

 

क्यों भाग रहा है मन स्वदेश को ?

 

जाने क्यों व्याकुल हैं आँखें,

 

सड़कों पर पड़ी गंदगी देखने को ।

 

कान क्यों तरस रहे हैं सुनने को,

 

गाड़ियों के हॉर्न की कानफोड़ू आवाज़।

 

 

 

सड़कों पर गुंडों की गुंडागर्दी और

 

हाथापाई,

 

लूटपाट, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार ने हाहाकार मचाई ।

 

क़ानून है शिथिल और पुलिस बनी बैठी है तमाशाई।

 

 

 

देश की दशा के हैं ये विभिन्न  नज़ारे,

 

विचलित करते हमें, हँसाते और रुलाते,

 

मन करता है उस माँ को जा गले लगा लें,

 

बरसों पहले जिसकी गोदी में थे हम खेले।

 

स्मृतियों में गुंथे हुए हैं अनेक भावुक पल,

 

जो मन के द्वारे, दस्तक देते रहते हैं,अविरल ।

 

याद दिलाते रहते देश की पावन माटी की

 

तन मन में बसी उसकी सौंधी ख़ुशबू की ।

 

 

 

माना पश्चिमी संस्कृति ने हमें लुभाया  है,

 

भौतिक सुख सुविधा का लालच दे कर

 

नवयुवकों को खींच पास अपने बुलाया है।

 

पर अपना तो अपना होता है,जैसा भी हो,

 

साफ सुथरा, अस्वच्छ, अव्यवस्थित,

 

असुरक्षित, नया, पुराना, कैसा भी हो ।

 

करते हैं हम प्यार इसे, यह देश हमारा है,

 

मंदिर सा, देवालय सा, यह देश हमारा है।

 

 

 

इसकी चौखट पर है,माँ की असीम ममता,

 

वात्सल्य पिता का और संबंधों की अटूट संपदा।

 

रत्न दिए अनमोल हमें,बापू जैसे राष्ट्रपिता,

 

वीरों की शौर्य गाथाओं से है इतिहास भरा,

 

ज्ञान विज्ञान, तकनीक और ललित कला

 

हर क्षेत्र में भारत ने विश्व में

 

...