अमिता नीरव
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भीड़ भरी सड़क से निकलकर जैसे ही वो यूनिवर्सिटी रोड पर पहुँचे। वृंदा ने रट लगाई, 'अब मुझे दो.... गाड़ी।' खीझे हुए शुभ ने ड्राइविंग सीट छोड़ी और चाभी उसे लगाकर पास वाली सीट पर जा बैठा। बहुत ही झुंझलाया हुआ था, लेकिन वृंदा इस सबसे बेखबर उत्साह से उसकी ओर देख रही थी...। जब शुभ ने उसे नहीं देखा तो वह रूआँसी हो गई 'बता तो दो....।'
शुभ ने खीझकर बताया था 'ये क्लच है, ये गियर है, ये ब्रेक, ये एक्सीलरेटर या स्टीयरिंग और ये हॉर्न.... इग्निशन लगाओ... क्लच, दबाकर गियर चेंज करो... और रेस दो... गाड़ी आगे बढ़ें तो क्लच छोड़ दो, फिर गियर शिफ्ट करना हो तो फिर वही करो।'
'ओके.... ' वह सब देख रही थी, उसने शुभ की खीझ नहीं देखी थी। उत्साह में भरकर क्लच दबाया गियर बदला और जैसे ही रेस दी गाड़ी बंद... फिर वही किया... फिर गाड़ी बंद...। तीन बार ऐसा होने पर शुभ की झुंझलाहट पूरी तरह से बाहर आ गई। 'इत्ती छोटी-सी बात समझ नहीं आ रही है कि एक्सीलरेटर दो... गाड़ी थोड़ी आगे बढ़े तब क्लच छोड़ो... बड़ी गाड़ी सिखेंगी....' - बुरी तरह से झल्लाया था शुभ। एक तो पापा उसे गाड़ी देते नहीं और वृंदा को सिखानी थी तो दे दी, इस बात का गुस्सा था और फिर उसे नीरज की बर्थडे पार्टी पर जाना था, सोचा था जल्दी जाऊँगा, लेकिन ये लफड़ा गले पड़ गया। इसलिए वह फट पड़ा।
वृंदा बहुत उत्साह में थी और एकाएक जैसे तेज जलती अग्नि पर घड़ों पानी पड़ गया हो... वह स्तब्ध रह गई। वह जान ही नहीं पाई कि कब उसकी आँखों में आँसू आ गए और कब उसने बीच रास्ते में खड़ी गाड़ी का दरवाजा खोला और उतरकर चलने लगी। आगे... उस सुनसान रास्ते पर। शुभ उसकी इस प्रतिक्रिया से एकदम ही हक्का-बक्का हो गया। उसे भी नहीं पता था कि उसे इतना बुरा लगेगा। उसने कभी वृंदा को रोते देखा ही नहीं और जिस तरह से वह वहाँ से उतरकर कई थी शुभ घबरा गया था। वह गाड़ी को वहीं रास्ते में छोड़कर उसके पीछे भागा.... 'वृंदा.... प्लीज.... सॉरी यार.... प्लीज।'
उस वक्त पता नहीं शुभ के मन में क्या-क्या आया और क्या-क्या नहीं आया....? मगर वह बेतहाशा उसके पीछे भागा.... उसके एकदम सामने जाकर उसने हाथ जोड़ने की मुद्रा में कहा 'गलती हो गई यार.... मुझे इतना गुस्सा नहीं करना चाहिए था। प्लीज.... '
उसने वृंदा के चेहरे की ओर देखा था.... भरी हुई आँखों में उदासी फैली हुई थी, पूरे चहरे पर... होंठ जैसे अपमान से थरथऱा रहे थे। और शुभ उसे देखता ही रह गया। एकटक... उसे लगा जैसे वो किसी और लड़की को देख रहा है। ये कौन है??? जाने वह खुद को भूल गया या फिर वृंदा को....? वो ठिठकी थी क्योंकि शुभ सामने ही खड़ा हुआ था। शुभ चैतन्य हुआ था, उसे बढ़कर वृंदा का हाथ पकड़ लिया, वह स्वयं नहीं जान पाया कि उसका स्वर कैसे उसे धोखा दे चुका है। बहुत रूआँसे स्वर में उसने वृंदा से कहा 'मेरी अच्छी दोस्त... प्लीज मुझे माफ कर दो, पता नहीं क्यों मैं चिढ़ गया था। मुझे नहीं चिढ़ना चाहिए था, मैं ही तुम्हें गाड़ी चलाना सिखाऊँगा... प्रॉमिस.....'
जाने शुभ के चेहरे पर के भाव कैसे थे, वह रोते-रोते जोर से खिलखिलाने लगी। शुभ फिर शॉक में.... 'तुम नाटक कर रही थी....?' -शुभ चीखा था और वृंदा चीभ चिढ़ाकर दूसरी तरफ भागने लगी। शुभ उसके पीछे-पीछे भागा था.....
कितने सारे चित्र हैं जो उसे एक-एक कर याद आ रहे हैं। शुभ की बुआ भी नहीं थी और बहन भी नहीं। शायद पापा को यही कसक रही हो। तभी तो वृंदा उनकी बेटी बन बैठी थी। उस सुबह वह बहुत जल्दी में थी, जब घर आई थी। पापा नहा रहे थे और माँ नाश्ते की तैयारी। शुभ हमेशा की तरह कॉलेज जाने की जल्दी में था, जब दरवाजे पर ही वह उससे टकराई थी। वह लिट्रेचर में रिसर्च की तैयारी कर रही थी और शुभ इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में था। तब तक शुभ उसे लेकर कुछ गंभीर हो गया था। उसे देखकर वह भी रूक गया। उसने टेबल पर एक मैग्जीन रखी 'चाची, मेरी पहली कहानी आई है। आप और चाचा पढ़कर बताएं जरा कैसी है?'
तब तक शुभ नहीं जानता था कि वह लिखती है। पढ़ती है यह तो पता था और उसे हमेशा ही वृंदा का पढ़ना फिजूल लगता था। आज वह इस तरह से सोच पा रहा है कि दोस्त विनय को पढ़ते देखकर उसे गर्व होता था, लेकिन वृंदा के पढ़ने को लेकर एक किस्म की चिढ़ थी। समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों होता था? शुभ ने उसकी मैग्जीन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। या कम-अस-कम ऐसा दिखाया तो था। शाम को जब वह लौटा तो पापा के पास वह मैग्जीन रखी हुई थी और वो बहुत गंभीर थे, ऐसा लगा शुभ को जैसे उनकी आँखें भरी हुई थी।
शुभ ने पूछा 'क्या हुआ पापा?'
वो जैसे नींद से जागे थे 'क्या लिखा है लड़की ने.... कितनी संवेदनशील कहानी है। कहाँ से लाती है वो...?' शुभ ने आश्चर्य से पापा को देखा था। चिढ़ थी, गुस्सा.... या फिर नफरत या उपेक्षा.... क्या था जो उसे छूकर गुजर गया था। वह तेजी से अपने कमरे में चला गया था। बाद में उसने चुपके से वह मैग्जीन पढ़ी थी। उसे भी लगा तो कि कहानी बेहद अच्छी है, लेकिन वृंदा की उपेक्षा ने उसे आहत किया था। वह मैग्जीन पापा के लिए लाई थी, मेरे लिए नहीं। ओह.... एक ही वक्त में एक ही साथ कितनी अनुभूतियों से हम घिर रहते हैं। एक ही व्यक्ति के लिए प्रेम, घृणा, प्रतिस्पर्धा.... कितना अजीब है मन, कितनी चीजें एकसाथ धारण करके रखता है?
शनिवार की शाम को अक्सर शुभ वृंदा के साथ गुजारता था। कहीं किसी रेस्टोरेंट में या फिर किसी पार्क में। उस शाम पार्क की उस झील में अपनी सलवार को टखनों तक चढ़ाएं पानी में पैर डाले बैठी वृंदा को देखकर शुभ के मन में कामना जागी थी। वैसे तो उसने कई बार वृंदा को सहेजा था, लेकिन आज जो जागा वो बहुत अलग था। हवा से उड़ते उसके बाल और बार-बार उसका दुपट्टा सहेजने की कोशिश करता हाथ.... वृंदा उसे बहुत सुंदर... बहुत काम्य लगी थी। उसने खुलकर कहा था 'तुम बहुत सुंदर हो वृंदा...' वह मुस्कुराई थी, बहुत हौले से उसने शुभ के कंधे पर अपना सिर टिका दिया था।
'शुभ.... यहीं मत ठहरो.... और आगे आओ....।' देर रात तक उसने वृंदा की बात के कई आयामों पर विचार किया।
ज्यादा दिन नहीं लगे थे, कुछ ही दिनों बाद उसे वृंदा ने ग्रहण कर लिया था। शुभ के रात-दिन बस वृंदा के इर्द-गिर्द ही होते रहे थे। लेकिन कई बार शुभ को यह भी लगता था कि वृंदा को पा कर भी पूरी नहीं पा पाया। कोई हिस्सा हमेशा ही उसे छूटा-सा लगता था। वृंदा के देने के प्रति उसके मन में कोई संशय नहीं जागता था, लेकिन अभाव-सा उसे लगता ही रहता था।
पता नहीं मन की कौन-सी कड़ी कहाँ जाकर जुड़ती है कि उलझनें सुलझती-सी लगती है। शुभ के मुम्बई जाने से पहले ही वृंदा पहुँच गई थी। वह संघर्ष कर रही थी, फिल्म स्टार्स को हिंदी सिखाने का काम कर रही थी, लेकिन उसका लक्ष्य विजुअल दुनिया के लिए लिखना था। जब शुभ ने उसे बताया कि उसे भी मुम्बई की कंपनी में जॉब ऑफर हुआ है तो वृंदा बहुत खुश हुई।
यूँ उस समय शुभ के बहुत सारे दोस्त जिनमें से अधिकतर उसके सीनियर्स थे, मुम्बई में रहने लगे थे। सुजित सर भी.... उनसे शुभ की सबसे अच्छी दोस्ती थी। कहो तो राजदारी भी थी। जब उन्हें पता चला तो उन्होंने शुभ को कहा था कि मेरे साथ ही आकर ठहर जा, जब तक घर न मिले। वो घर वालों से विद्रोह करके नयना को शादी करके ले आए थे.... नई-नई शादी हुई थी.... फिर शुभ का आकर्षण तो मुम्बई में भी वृंदा ही थी।
जब वह मुम्बई पहुँचा तो उसे रिसीव करने आई थी वृंदा...। शुभ ने संकोच से कहा था 'मैं जल्द ही अपने रहने के लिए जगह ढूँढ लूँगा।'
कितना हँसी थी वह.... 'हाय राम... एकदम से बहुत बड़े हो गए हो? मुझसे शर्माने लगे हो?'
शुभ शर्म से गड़ रहा था जैसे.... 'नहीं, वो बात नहीं है।'
'हाँ, हाँ.... समझ रही हूँ। वो नहीं ये बात है....' फिर वह एकाएक गंभीर हो गई। 'शुभ.... यदि तुम्हें स्पेस ही चाहिए तो तुम अलग जाकर रह सकते हो? यदि एथिक्स-वेथिक्स का चक्कर है तो छोड़ो... हमारी दुनिया में एथिक्स की जरूरत नहीं है।' -कहकर उसने पीछे से शुभ को अपनी बाँहों में घेर लिया था।
उस शाम वह जब चर्च गेट स्टेशन पर उतरा तो उसकी लोकल आने में थोड़ा वक्त था। प्लेटफार्म पर वह फर्स्टक्लास के डब्बे वाली जगह पर जाकर खड़ा हो गया। शाम का वक्त था। स्टेशन पर चहल-पहल तो थी, लेकिन अभी दफ्तर का समय न होने से वैसी भीड़ नहीं थी। शुभ ने अपने आसपास नजर दौड़ाई प्लेटफार्म के कोने पर लड़कियों का झुंड खड़ा था। दो-तीन खूबसूरत लड़कियाँ थीं, खासतौर पर पिंक मिनी स्कर्ट में खड़ी वो लंबी-दुबली लड़की। देर तक उसने वह विचार चुभलाया....। पास खड़ी नीली जींस और शोल्डर ऑफ टॉप पहने लड़की के चेहरे पर शुभ की नजरें अटक गईं। एकाएक शुभ के मन में एक विचार आया...।
धीरे-धीरे स्टेशन पर भीड़ बढ़ने लगी। शुभ का विचार कहीं भीतर दब गया। बाहर की दुनिया ने उसे भीतर तक जकड़ लिया। रात को जब थकी हारी वृंदा चलते टीवी के सामने ही लुढ़कने लगी तो शुभ ने उसे अपनी बाँहों में समेटकर प्यार से कहा 'मुझे लगा था कि तुम पर इस शहर का असर आ गया होगा। लेकिन देखता हूँ कि तुम अब भी उस कस्बे की जकड़ से मुक्त नहीं हुई हो।'
उसने प्यार से शुभ के गाल थपथपाए थे 'मैं अपने आप से ही कहाँ मुक्त हो पाई हूँ शुभ....।' शुभ को उसकी आवाज में गहरी उदासी सुनाई पड़ी। उसने बेचैनी में वृंदा का चेहरा अपनी तरफ किया था 'मुझे बताओ वृंदा.... क्या है जो तुम्हें उदास किए हुए है।'
वृंदा की आवाज की उदासी उसके पूरे वजूद पर फैल गई थी। 'मैं अपने भीतर कसमसाती हूँ.... मुझे खुद से रिहाई चाहिए।.... मुझे नहीं पता तुम इसे कैसे समझोगे....? लेकिन इससे ज्यादा साफ करके मैं तुम्हें समझा नहीं पाऊँगी।' उसने करवट ले ली।
शुभ उठा और उसने अपनी अलमारी में से एक पैकेट निकालकर वृंदा को थमाया। वृंदा ने उसे उत्सुकता से थामते हुए पूछा 'क्या है?'
'देखो तो.... मैं जानता हूँ, तुम पर बहुत अच्छा लगेगा।' शुभ ने वृंदा का बढ़ा हुआ हाथ थामा और उसे अपनी तरफ खींचते हुए कहा। तब तक वृंदा पैकेट खोल चुकी थी। उसमें वनपीस शॉर्ट ड्रेस थी। वृंदा ने उसे खोलकर देखा... मुस्कुराई... फिर उदास हो गई।
'क्या हुआ?' - शुभ ने पूछा। उसने बिना कुछ जवाब दिए सिर झुका लिया। उदासी जैसे पूरे कमरे में पसर गई। 'पहनकर नहीं दिखाओगी....?' - शुभ ने सब ठीक करने की गरज से कहा। उसने ड्रेस हाथ में लिया और बाथरूम में चली गई।
वृंदा को देखकर शुभ का खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। उसने उसे वैसे ही थाम लिया और बेतहाशा चूमने लगा। 'देखो कितनी सेक्सी लग रही हो....? तुम क्यों नहीं पहनती ऐसे कपड़े.... इस शहर में तो पहन सकती हो.... यहाँ तो सब लड़कियाँ यही पहनती है। तुम बहुत अच्छी लग रही हो... पता है... वेरी सेक्सी, वेरी डिसेंट.... डिजायरेबल....' -शुभ बोले जा रहा था और वृंदा उसकी बाँहों में एकदम सुन्न थी।
'क्या हुआ वृंदा???' - शुभ ने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा। 'तुमने मेरी खुशी के लिए पहना इसे... सच बताओ, तुम्हें ये पसंद नहीं है?'
'नहीं शुभ.... बात ये नहीं है। मैंने तुमसे कहा न.... मैं अपने शरीर से मुक्त होना चाहती हूँ। आय वांट टू लिबरेट मायसेल्फ विथ माय फेमिनिटी...। औऱ जब तक ये नहीं होगा, तब तक मैं खुद को लेकर सहज नहीं रह पाऊँगी।' - शुभ उसे गहरी नजर से देखा... कुछ समझा लेकिन बहुत सारा नहीं समझ पाया।
उस दिन मिस यूनिवर्स कांटेस्ट का लाइव टेलिकास्ट चल रहा था। स्लिम सूट राउंड में स्लिमवीयर में लंबी-पतली लड़कियों को आत्मविश्वास से कैटवॉक करते हुए बहुत गौर से देख रही थी वृंदा...नींद उड गई थी उसकी, कल सन्डे था। उसने गहरे डूबकर कहा था 'पता है शुभ.... इन लड़कियों को देखकर मुझे अक्सर लगता है जैसे दे लेफ्ट देयर बॉडीज.... तभी तो..... तभी तो वे इन लोगों के सामने ऑब्जेक्टिव हो जाती होंगी.... यू नो... बी ऑब्जेक्ट, फील लाइक ऑब्जेक्ट.... नहीं क्या?'
शुभ ने आहत होकर उसकी ओर देखा था 'कैसी बातें कर रही हो यार.... दे आर प्रेजेंटिंग देयरसेल्व्स.... लाइक ऑब्जेक्ट....। इनफेक्ट दे फील प्राउड ऑन देयर बॉडीज.....उल्टी बात कर रही हो तुम....। '
'जो भी हो शुभ.... बट आय वांट टू लिबरेट माय सोल फ्रॉम माय बॉडी। आय वांट टू बी राबिया बीबी....'
शुभ ने आश्चर्य से उसे देखा था 'हू इज राबिया बीबी...?'
'शी वॉज सेंट... आठवीं शताब्दी की... बसरा में पैदा हुई थीं। कहा जाता है कि वे खुदा की इबादत में इस कदर मशगूल हो गईं थी वे नेकेड रहने लगी थी.... शी बीन ऑउट ऑफ हरसेल्फ.... जस्ट थिंक... कैसा होता होगा, कैसा लगता होगा खुद से अलग हो जाने का अहसास....।' - जिस तरीके से वृंदा कह रही थी, उससे शुभ को उसपर बहुत प्यार आया....।
'तो तुम भी नैकेड हो जाना चाहती हो.... अभी तो ये सेक्सी ड्रेस पहनना नहीं चाहती हो और सपने देखो....' - शुभ ने मुस्कुराकर उसे बाँहों में भर लिया। वृंदा सिसक-सिसक कर रोने लगी। शुभ समझ ही नहीं पाया कि हुआ क्या है?
शुभ को अक्सर ही यह लगता था कि वृंदा उसके लिए अबूझ है....। बहुत सारी चीजें वो समझ ही नहीं पाता है, बहुत सारी जगह वह चुप रह जाता है। बहुत सारा कुछ दोनों के बीच है, बहुत सारा कुछ गुजर गया है.... बहुत सारा कुछ ऐसा भी है जो बचा हुआ है। वो क्या है वो शुभ समझ नहीं पाता है, वृंदा जाने समझती है या शायद जानती भी है, लेकिन वह खुद को हेल्पलेस पाती है। कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं पाती वह खुद को। लेकिन उस शाम शुभ को वृंदा हर दिन के उलट बहुत खुश नजर आई। उससे पहले ही पहुँच गई थी, जब शुभ पहुँचा तो उसने वृंदा को उसी वनपीस शॉर्ट ड्रेस में देखा जो उसने लाकर दी थी।
अप्रत्याशित रूप से शुभ को बहुत खुशी हुई। अंदर पहुँचते ही वृंदा ने उसे बाँहों में ले लिया। कान में फुसफुसाते हुए कहा 'इस ड्रेस में मुझे ठीक से देख लो... जाने फिर कब ऐसे देख पाओगे...।' शुभ को उसकी बात बहुत समझ नहीं आई, फिर भी वह बहुत खुश हुआ। उसने वृंदा को बाँहों में घेर लिया, उठा लिया।
देर रात किसी बहुत अंतरंग और भावुक क्षण में फिर से शुभ ने वृंदा से मीठी-सी शिकायत की 'मुझे क्यों लगता है वृंदा, तुम पूरी मेरे पास नहीं हो? कुछ अधूरापन-सा क्यों लगता है मुझे तुम्हारे इर्द-गिर्द... जैसे कुछ है जिसे तुमने मुझसे छुपा रहा था, मुझसे दूर रखा है, मुझे देना नहीं चाहती.... जो मेरा है फिर भी मेरे पास नहीं है।'
शुभ अपनी रो में था, वह देख ही नहीं पाया कि उसकी इस बात ने वृंदा को कितना उदास कर दिया है, वह बहुत गहरे अपराध-बोध में चली गई। 'मुझे खुद भी नहीं पता शुभ.... मैं खुद ही कहाँ अपने पास पूरी हूँ। जो भी, जितनी भी थी, सब तुम्हें दे चुकी हूँ। अभी तक अपने पूरेपन तक ही मैं कहाँ पहुँची हूँ, जब मैं खुद को सम्पूर्ण मिल पाऊँगी, तभी तो तुम्हें दे पाऊँगी।'
'मुझे हमेशा एक कसक-सी लगती है.... जैसे तुम्हें पाकर भी समेट नहीं पाया। जैसे तुमने अपना कुछ बहुत कीमती, मुझसे छुपा रखा है।' - शुभ ने लगभग रूआंसा होकर कहा था।