व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी-श्री रमाशंकर राय
-एक चिंतन दृष्टि-
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
कविताः-‘‘मैं जिंदगी का व्याकरण हूं के सृजनकार श्री रमाशंकर राय जी ने अपनी कृति- कविता की ओर कुछ कदम-के सृजन से उत्तर प्रदेष की पावन भूमि रेवतीपुर-गाजीपुर की सौंधी-सौंधी गंध को यत्र-तत्र-सर्वत्र,बड़ी सादगी से बिखेरा है। अपनी इस मातृभूमि के ऋण को भली भांति चुकाया है। आपकी उच्च शिक्षा-दीक्षा काशी हिन्दू विष्वविद्यालय बनारस की बानगी लिए जीवन भर गर्वित रही। आपने मध्यप्रदेश-ग्वालियर-डबरा में जनता उच्चतर माध्यमिक विघालय के प्राचार्य पद को भी सुषोभित किया। आपके सम्पूर्ण जीवन में पिता श्री राम सिंहासन राय जी एवं माता श्री की प्यारभरी सौन्दर्यपूर्ण आभा झलकती रही।
उपरोक्त सभी विरासतों को आपने जीवन भर सम्भालकर सहेजा साथ ही साहित्यिक संवर्धन भी मनोयोग से किया। आपके जीवन की अनेक झांखियां, मानवप्रेरणा की धरोहर बनी। आपका चिंतन एवं सर्जन विभिन्न आयामों को छूता दिखा। आपने गंगा मैया के पीयूष प्रसाद को बड़ी सादगी और गंभीरता से सबको मुक्त-हस्त से बांटा। आपकी सैक्षिक उदारता के लिए डबरा हमेषा आभारी रहेगा। आप कुछ लव्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में अपना एक स्थान रखते रहे। तथा साहित्यिक सभाओं में आपने अडिग होकर,दो-टूक बात करने का साहस रखा। आपका सतत अध्ययन और चिंतन साहित्य मनीषियों को मार्गदर्षक रहा। आप हमेशा कहते थे कि व्यक्ति को लिखने की अपेक्षा पढ़ना अधिक चाहिए। आपकी गद्य शैली विशेष मार्मिक हुआ करती थी। आपने कई साहित्यिक समारोहों में शब्द पर विषेष जोर दिया। आपका कथन है कि काव्य का अर्थ ही साहित्य है जिसके अंर्तगत गघ और पघ दोनो ही साहित्य के सरूप है। संस्कृत भाषा इसका व्यापक आधार है। यही व्यापक रूप हिन्दी तक आते-आते काव्य, शब्द एवं अर्थ संकोच की सकरी गलियों में आ पहुंचा, जहां उसका अर्थ कविता मात्र ही रह गया।
श्री राय साहब जी दोनों ही विधा-गघ और कविता के कुशल हस्ताक्षर रहें। आपकी कृति कविता की ओर कुछ कदम-आपके साहित्यिक अवदान की पूर्ण साक्षी है। कृति के आत्मकथ्य में, आपने मुखर होकर कहा है कि ‘‘हमारा अनुभव जब ठोस बनकर शब्द का आकार ग्रहण करता है तो गद्य का जन्म होता है और जब हमारे हृदय की अनुभूति तरल होकर प्रवाहित होती है तब कविता के सांचे में ढलती है।’’ इस तरह कविता हमारी आहत संवेदना की आवाज है। इसी क्रम को आगे ले जाते है आचार्य परमानंद शास्त्री जी- उनका कथन है कि ‘‘प्राणों की पीड़ा का छंद गति में बजना ही कविता है।’’ इन्हीं सारी अभिव्यिक्तियों को ध्यान में रखते हुए श्री राय साहब का रचना संसार अनूठा रहा। आपने कृति में दर्षित इक्कहत्तर रचनाओं में जीवन के सारे, सारभूत तथ्य उजागर किए हैं। कृति का सृजन-युग दृष्ठा से चलकर मैं जिदगीं का व्याकरण हॅंू तक बहुत कुछ कहते मिला हैं-
यथाः- जीवन को दृष्टि ,दृष्टि को दर्शन, दर्शन को छंद दिया करते हैं।
साहित्यकार हैं हम, युग दृष्टा हैं, आने बाली दुनिया के सपनों को,
आकार दिया करते हैं। (पृष्ठ-1)
आपकी सभी रचनाएं, नए-नए संदर्भो को लेकर, जीवन की हर व्यथा-कहती दिखी हैं, वह चाहे कविता-एकलव्य का कटा अंगूठा हो या शब्द का संसार। कविता- तौल कर बोलते क्यों नही?अथवा गीत वह लिखा नहीं कि भाव भूमि, जो जन सामान्य के प्राणों को जीवन परोसती हैं, इस तरह के धरातल को उजागर करती हैं राय साहब की कविता-
यथा- शब्द केवल रह गए है, भावनाओं ने विदा ली,
चेतना है, डूबती जाती भॅंबर में, दूं किसे आवाज।(प्रष्ठ-71)
इस प्रकार कृति की सभी रचनाएं मानव जमीर को जगाती दिखी, जिनमें प्यार की भाषा के साथ, जीवन जीने की ललकार भी हैं जैसे-वक्त का पहरा न था, अपराधो की भाषा, वतन के बजूद का तथा कभी एक गांव था-आदि-आदि। रचना कसौटी पर, षब्दों के आकार को अहमीयत न देते हुए भावों की अभिव्यंजना को अधिक महत्व दिया गया है, जिसकी महत्ता के लिए अनेक साहित्य मनीषियों ने अपने भाव चिंतन में सार्थकता प्रदान की है-जैसे जयषंकर प्रसाद, आचार्य रामचन्द्रषुक्ल तथा मीर। इस तरह प्राचीन से आज तक के मनीषियों ने कहा कि-कविता क्या हैं? बस इतना जान पाए कि वह अश्रु है, आग है, तराना है। कविवर तरुण जी ने तो यहां तक कह दिया हैं कि-कविता-तल से उभरे, तल तक उतरें.........शब्द, यही कविता हैं प्यारे।
इन्ही सारे संदर्भित -शब्द-भाव चिंतनों को राय साहब जी कविताएं परोसती दिखीं। तात्पर्य यह है कि कवि के अंदर में छुपे दर्दो के साथ-साथ सामाजिक जन जीवन की वेदना भी उजागर होती दिखीं। लगता है वे प्रवक्ता रचनाकार होने के साथ-साथ भाव और विचारों की, खुली आंखों से अपनी सर्जना यात्रा करते लगें। याद दास्तें तो उनकी दौलत ही है इन्हीं यादों में बचपन की तलाषें है तथा जीवन के वृहद केनवास भी, जिसमें भीख मांगते बच्चे, अखबारी दर्दीली कतरनें, संवेदनहीन प्रकृति के फोटो, राजनीति की विद्रूपता, रोजमर्रा की हकीकते तथा काव्य अलबम में वर्तमान समाज की भयावहता साथ ही आतंक, हत्या, हरण, भ्रष्टाचार, घोटाले एवं बदरंग मुद्राएं----घिनोने चेहरे आदि। कविता अपराधों की भाषा में नूतन चिंतन दिया है जो आज के समय को ललकारता सा लगा-
यथाः- ‘‘बचपन पढ़ने लगा आज फिर, अपराधों की भाषा।
लगता है जैसे यह गौतम-गांधी का देश नहीं है।’’
इस प्रकार बचपन की तराश में ही बेटियों के प्रति भी अनूठी बात कविता शीर्षक के माध्यम से कहने में कवि ने आज के परिवेश को गहरी ललकार दी है-
यथाः- ‘‘भावों की बेटी है, शब्दों का परिधान पहन लेती है।
कई बार तो, बिना कहे ही सब कुछ कह देती है।’’
इसी प्रकार अपने अंदर में छुपे साहित्य और संस्कृति के दर्दों को श्री राय साहब ने बड़ी ही पेचीदी भाषा के साथ अपनी कविता संस्कृति....में निर्भीक होकर कहने का साहस किया है।
यथाः- ‘‘जुल्म और इंसाफ में दोस्ती गहरी यहां है।
बाग के इन मालियों से, बाग को खतरा यहां है।’’
इतने सारे जीवन संदर्भो को लेकर चला है राय साहब जी का साहित्य चिंतन। भावों की गहरायी मे कला पक्ष लगा बदरंग हो गया। यति गति का व्याकरण कहीं दूर बैठकर ताकता रहा शब्द गहरे सागर के मोती से लगे, जिन्हें साधक गोताखोर ही खोज सकें। छंद विधान-भाव विधान मे डूब गया। इतना कुछ के बाद भी कृति और कृतिकार साहित्य के सषक्त हस्ताक्षर ही हैं, क्योकि कविता मानवता की मातृभाषा ही हैं। अनुभूति को संवेदना के धरातल पर उतार लेना ही कविता हैं,क्योंकि कविता छंद विधान की उत्तरापेक्षी नहीं हैं। व्यक्तित्व की दृष्टि में राय साहब षरीर से लम्बे और भारी ही नहीं थे बल्कि चिंतन भावो से भी भारी थे। उनका व्यक्तित्व लोगों को मार्गदर्षक रहा हैं। सभा गोष्ठियों मे उनकी उपस्थिति गरिमापूर्ण होती। अध्ययन और अद्यापन के वे, वे-जोड़ नमूने थे। उनका चिंतन गहन साहित्य की धरोहर है। बहुत सारा जीवन काल डबरा की मनोभूमि को अवदान स्वरुप रहा एवं समय को साहित्य चर्चा में लगाया। साधारण सी जगह पर निवास कर सादगी जीवन जीया। हमेषा मितभाषी और सारगर्भित शब्दावली का प्रयोग उनकी जीवनशैली का एक विशेष भाग रहा। समय और कर्तव्य के पाबंद रहें इसलिए व्यक्तित्व अनुकरर्णिय के साथ-साथ अनुशीलनीय भी है।
उनके कृतित्व पर चर्चा करें या मूल्यांकन करें तो कृति -कविता की ओर कुछ कदम, बहुत सारे पहलुओं की पूर्ति करते दिखी। साहित्य की अनवर्त साधना को मूल्यांकित तो समय ही कर सकता है, वहीं सापेक्ष होता हैं। कृति में, कृतित्व के साथ उनका व्यक्तित्व अधिक बोलता हैं। अंदर की व्याकुलता और आकुलता शब्द और भाव की तलवार बनकर उभरती दिखीं। असत्य को स्वीकारना उनका स्वभाव नहीं रहा। खरी बात डंके की चोट कहने में सकुचाये नहीं। इस प्रकार उनका व्यक्तित्व और कृतित्व कदम दर कदम समानता का अनुगामी रहा कोई किसी से कम नहीं। सेवा काल के बाद डबरा(ग्वालियर) से विदाई लेकर अपनी मातृभूमि की गोद को भी प्यार दिया अंतिम समय में अपने जन्म स्थान को ही स्नेह दिया। क्योंकि-”जननी जन्मभूमष्च स्वर्गादऽपि गरीयसी “ ।
अतः कविता संग्रह साहित्य निकष पर खरा होकर, पठनीय और अनुकरणीय भी हैं। सुधी पाठक कृतिका अनुशीलन अवष्य ही करेंगें तथा व्यक्तित्व भी हमेशा याद रहेगा। इस प्रकार उनके अंतिम विदाई क्षण भी मातृभूमि को भावांजलि के साथ समर्पित हैं।
भावांजली
कविता की और कुछ कदम“ के ओ! पुरोधा,
शब्द को संस्कार देकर, कहां पधारे।
जिंदगी हस्ताक्षर बने तुम, मौत दस्तावेज पर,
वेदना-संवेदना से पार हो, पाए किनारे।
आदमी वहीं बड़ा होता, जिंदगी की लिपि लिखे जो,
तौलकर क्यों बोलते नहीं,एक थे हम,कहां न्यारे।
पीड़ा पले हृदय में जग की,एकलव्य का काटा अंगूठा,
वतन के बजूद का है,गांव-पगडंडी सहारे।।1।।
इतिहास का अगला चरण हो,बांटकर मुस्कान जग को,
सच उन्हें महॅंगा पड़ा,वक्त का पहरा न था, जहां।
संस्कृति ही मिट रही है,सामने युग दृष्टा तेरे,
गीत वह लिखा नहीं,सुकरातों को मिलता जहर यहां।
बढ़ते कदम मत रोको,यह देश कैसे बचेगा?
फूल सदां कांटों में खिलता,व्यवस्था की गोद में कहां।
कविता,नारी,पोस्टर लख,जिंदगी का व्याकरण हूं,
”मनमस्त“ भावांजलि स्वीकारो, मैं यहां और तुम वहां।।2
इन्हीं मंगल अपेक्षाऔं के साथ शहस्त्रश वदन।
कृतिः- कविता की ओर कुछ कदम श्राद्धानवत
कविः- रमाशंकर राय वेदराम प्रजापति मनमस्त
प्रकाषकः- मुक्त मनीषा, साहित्यिक एवं गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा डबरा
सांसकृतिक समिति डबरा ,जिला ग्वालियर मध्यप्रदेश
मूल्यः- 75 रू मेा. 9981284867