TANABANA - 26 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | तानाबाना - 26

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तानाबाना - 26

26

धर्मशीला एक ओर बहुत खुश थी कि वह माँ बनने वाली थी, दूसरी ओर बेहद डरी - सहमी और घबराई रहती । पता नहीं इस बार क्या होगा । यह बच्चा दुनिया देख पाएगा या पहले की तरह ... । फिर वह खुद ही अपनेआप को कई कई लानतें डालती हुई इस सोच को झटक डालती, नहीं - नहीं इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा । वह ठाकुरजी से इस सोच के लिए सौ सौ माफियाँ माँगती – हे ठाकुर जी, माफ कर देना । गलती हो गयी । इस नन्हीं सी जान को कुछ होने न देना । मेरे किसी पाप, किसी गुनाह की सजा इस बच्चे को मत देना । साथ ही साथ सारे देवी देवताओं को ध्या लेती । बमभोले, पार्वती, गौरी, हनुमान, राम-लक्ष्मण – सीता, गणेश, काली कोई भी देवता छूटने न पाता ।

चौथा महीना बीतते उसकी तबीयत नासाज रहने लगी थी । हाथ पैर सूजे रहते । आँखों के नीचे के काले घेरे गहरे हो गये थे । उठने का न मन होता, न हिम्मत । दिन भर लेटी भी कैसे रहती इसलिए हिम्मत करके उठती, थोङा सा काम करती पर थोङी देर बाद थक कर फिर बैठ जाती । खाना खाया ही न जाता । जबरदस्ती कोई कुछ खिलाता, तो सब बाहर आ जाता । पङोसनें हिम्मत बंधाती – बस थोङे समय की बात है, एक बार बच्चा गोद में आ गया, ये सब तकलीफें भूल जाएगी ।

वह मन ही मन कहती – वह दिन कब आएगा मेरे राम । मन के किसी कोने से यह भी इच्छा जागती कि काश ये आनेवाला बच्चा बेटी हो । अगर बेटी हुई तो वह उसे हर रोज नयी नयी फ्राकें सिल कर पहनाएगी । बालों में अच्छे से तेल डालकर दो चोटियां बनाएगी । उनमें लाल रंग के रीबन से तितलियाँ बनाएगी । आँखों में काजल डालकर नजर का काला टीका लगा देगी । पैरों में झांझरें पहनकर वह बच्ची सारे घर में छमछम करती घूमेगी । वह मन ही मन उस बच्ची की तस्वीर बनाती । बङी बङी आँखें, सुतवां नाक, पतले ओंठ और खट से सपने की बच्ची गायब हो जाती और वह अपने सपने से बाहर आ जाती । चेहरे पर मुस्कान लिए वह अपनी ही सोच पर खुद ही लजा जाती । उसका मन करता कि अभी की अभी सिलाई मशीन लेकर बैठ जाए और खूब सारे कपङे सिल डाले । ढेर सारे लंगोट, कई झबले, गद्दियाँ, गदेले । पर बङी बूढी औरतों की हिदायत थी कि पहले कोई चीज नहीं खरीदनी है, न बनानी है । वैसे भी बनाए तो वह जिसका कोई न हो, इसके तो सौ बुआ, सैकङे मासियाँ, कई चाचे ताए और कई दरजन मामे हैं , इतना कुछ इन्होंने ही ले आनै कि बच्चे को तो तीन साल तक किसी चीज को खरीदने की जरुरत ही नहीं पङनी ।

अब ऐसे में वह करे तो क्या करे, रवि तो सुबह ही दो रोटी खाकर काम पर चला जाता और शाम को सात बजे तक लौटता । पहले सिलाई, बुनाई कर लेती थी पर अब बाहर का काम आना कम हो गया था । कम क्या, करीब करीब बंद ही हो गया था । कभी कोई काम देने आ भी जाता तो पङोसनें ही भगा देती – “ देखते नहीं जी बहु की हालत । ऐसी हालत में काम । ना जी ना । काम करने को तो सारी जिंदगी पङी है । बथेरा कर लेगी । अभी तो ठीक से सुर्खरु हो जाए, फिर करवा लेना जो करवाना है “ ।

सीखने के लिए पास - पङोस की लङकियाँ दोपहर को थोङी देर के लिए आ जाती तो उसका मन लग जाता वरना मन की उधेङबुन दिन रात चलती रहती । उसका बुझा चेहरा देख एक दिन तार झाई पास के मंदिर के पांधे से सुखसागर माँग लाई और लाकर थमा दिया – ले बहु तू इसका पाठ किया कर । बंसीवाला सब भली करेगा । उसने ग्रंथ लेकर माथे से लगाया और रुमाल में लपेटकर मंदिर में रख दिया ।

अगले दिन सवेरे संक्राति थी । शुभ दिन । रवि को काम पर भेज कर धर्मशीला नहा धोकर तैयार हुई । तब तक दो चार पङोसनें भी आ गयी । धर्मशीला ने नानी और माँ को विधि –विधान से पाठ करते देखा था । उसने याद से सारी पूजा सम्पन्न की और पाठ करने बैठी । सुखसागर में संसार में सृष्टि की स्थापना का और भगवान विष्णु के अवतारों का, उनकी लीलाओं का विस्तार से वर्णन है । चंद्र वंश और सूर्यवंश के प्रतापी राजाओं, उनकी संतानों एवं वंशपरंपरा का उल्लेख है । उनके शौर्य,यश, ज्ञान, वैराग्य से जुङी कहानियाँ हैं ।

अब वे औरतें सुबह शाम आधाआधा घंटा ये कथा कहती सुनती । आरती करती और प्रशाद लेकर विदा होती । शाम की कथा में रवि भी पूरी श्रद्धा से शामिल होता । दशम अध्याय में भगवान श्री कृष्ण के अवतार और उनकी लीलाओं से जुङी कहानियाँ हैं । इन स्कंध की कहानियों में धर्मशीला का मन बहुत रमा । वह पढते पढते भावुक हो जाती । गला रुंध जाता । आँखों से आँसू बहने लगते । भक्ति की अजस्र धारा बहने लगती । सब भाव विभोर हो उठते । माँ यशोदा का कृष्ण के प्रति प्रेम अद्भुत है । कृष्ण का बचपन, उसका मथुरा चले जाना और नंद बाबा, यशोदा, गोपियों का उनके वियोग में अधीर होना इन सबको अधीर कर डालता । राधा और उसकी सखियों का कान्हा प्रेम उन्हें रस की डुबकी लगवा देता । वह सोचती, दुनिया इतनी प्रेममयी है तो दुनिया में इतनी ईर्ष्या, नफरत और संघर्ष क्यों है । इस पाठ को पढने में दो महीने आराम से बीत गये । अंतिम मास शुरु हो गया । साथ ही प्रतीक्षा तीव्रतम हो गयी । एक एक पल युग जितना लंबा लगता ।

डाक्टर उसकी अधीरता देख ठठाकर हँस पङती – बेटा हर काम समय पर ही होता है और समय पर होना ही ठीक रहता है । असमय के ढोल डरावने होते हैं । असमय की बारिश फसल का फायदा करने की जगह सत्यानास ही करती है । समय आने दो । सब ठीक हो जाएगा । घबराओ नहीं, मैं हूँ न और तुम्हारे ठाकुरजी भी तो हैं । तुम्हारे साथ कुछ गलत नहीं होने देंगे ।

दम्पति सिर हिलाकर हामी भरते । तसल्ली थी कि डाक्टर के अनुसार बच्चा बिल्कुल ठीक था और धर्मशीला को अब खाना पचने लग गया था । फिर भी अभी एक महीने का इंतजार बाकी था ।