समीक्षा- पाथर घाटी का शोर: पत्थर खदान का दर्द
-राजनारायण बोहरे
आलोचकों की नजर में हिंदी उपन्यास का वर्तमान समय बड़ा कठिन और चिंतनीय है। कम लेखक इन दिनों उपन्यास लिख रहे हैं और कुछ कथा आलोचक तो उपन्यास की मृत्यु जैसा जुमला उछालने को पुनः तत्पर दिखार्द दे रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों कुछ बहुत ही अच्छे उपन्यास पाठकों के सामने आए हैं जो लेखकों की सूक्ष्म और नवीन दृष्टि तथा अनुभव जन्य परिवेशगत भाषा और भावनाओं को प्रभावशाली ढंग से लोगों तक पहुंचाने में समर्थ हुए है।
‘ पाथर घाटी का शोर ’ पिछले दिनों प्रकाशित पुन्नीसिंह का वह उपन्यास है, जो कि अपने कथ्य में एकदम नया और गहरे शोध के बाद लिखा गया है। पुन्नीसिंह ऐसे लेखक है जिनके अधिकांश उपन्यास हवाबाजी के नहीं होते बल्कि वे यथार्थ से जुड़े वे उपन्यास होते है जिनके पात्रों और घटना के चश्मदीदों से वे स्वयं मिल चुके होते हैं। इस उपन्यास मे गुनाशिवपुरी के सुदूर क्षेत्र के एक खदान ठेकेदार राजाराम और उसकी पत्नी की कथा है जो इनकी चर्चा से आरंभ होकर समयानुसार उनके और दीगर लोगों के रिश्तों , चालाकियों मक्कारियों तक कुल एक सौ सत्तर पेज में विस्तार पाती है।
राजाराम की पत्नी को भगा कर बेच देने की साजिश रच रहे सरपंच हरकिसन सिंह का छल और धूर्तता भारतीय गांवों में ऐनकेनप्रकारेण चुन लिए गऐ जन प्रतिनिधियों की वास्तविकता को प्रकट करता है। उपन्यास में याकूब चचा खदान मजदूरों और खनबरियों को संगठित करने की पहल करता है जो कि सदियो ंसे खदान ठेकेदार के शोशण के शिकार हैं। याकूब की यह पहल खदान ठेकेदारों के सीने मे ंकांटे की तरह चुभती है जिसका परिणाम यह होता है कि उनकी हत्या कर दी जाती है।
इस उपन्यास की एक खासियत यह हे कि इसमें एक कुत्ता झबरा भी एक चरित्र है जिसको लेखक ने बहुत रूच रूच कर लिखा है। सीता के चरित्र के गई शेड इस उपन्यास में आते हैं तो राजाराम के भी बहुत से रूप इसमें मौजूद है। अन्य चरित्रों में कजरी, पंचोली, तुलसी ऐसे विविधवर्णी जीवन्त चरित्र हैं जो कि हमको हमारे आसपास यत्र तत्र मिल जायेंगे। याकूब का चरित्र भी लेखक ने अपने भीतर पलते सिद्धांतों और बेदाग छबियों के सहारे बहुत ताकतवर तरीके से गढ़ा है।
यह उपन्यास एक ऐसे क्षेेत्र की कहानी है जो कि आम भारतीय जन की नजर से ओझल है। खनिज विभाग से पट्टा लेकर पत्थर निकालनेवाले ठेकेदारोें , मजदूर से उठ कर एकाध खदान पा कर ठेकेदार बन चुके खनबरिया लोगों, खदान पर मंडराते सरकारी तंत्र यानि पुलिस दारोगा, कांस्टेबुल, राजनैतिज्ञ भाऊ साहब की उपकथाओं को कहती राजाराम की कथा कहता यह उपन्यास हिन्दी के विरल क्षेत्र की गाथा है। इसमें पत्थर खदान से जुड़े मजदूरों का दर्द बहुत गहराई से उभर के आता है।
भाषा के नजरिए से पुन्नीसिंह की रचनाओं को देखा जाए तो हम पाते हैं कि वे बहुत सहज सरल भाषा और स्थानीय शब्दों को अपने संवादों में लाते हैं। लोकोक्ति, मुहाविरे और अपनी दिलचस्प किस्सागोई के कारण इनकी कथा रचनाऐं सदा ही पाठकों को सुगम और सहज लगती रही हैं। प्रेमचंद की दिलचस्प किस्सागोई की याद दिलाता पुन्नीसिंह का यह उपन्यास समाप्त हो जाने के बाद भी पाठक के मनोजगत में अपनी दास्तान को जीवित रखता है।