Benzir - the dream of the shore - 30 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 30

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 30

भाग - ३०

जब रात एक बजे हम निकले तो पूरे मोहल्ले में सन्नाटा था। निकलने से पहले मैं ज़ाहिदा-रियाज़ को देखना नहीं भूली। अब उस दरवाजे के पास वह बड़ा बक्सा नहीं था, जिस पर बैठकर मैं उनके कमरे में, उनको झांका-देखा करती थी। आखिरी बार खड़े-खड़े ही देख रही थी। हमेशा की तरह लाइट जल रही थी। बेटा सुरक्षित दिवार की तरफ सो रहा था। वह दोनों भी बहुत ज्यादा रोशनी की ही तरह बहुत ज्यादा बेपरवाह थे। ज़ाहिदा लेटी थी। रियाज़ अधलेटा था उसी के बगल में। चेहरे से चेहरा मिलाकर दोनों कुछ बातें कर रहे थे। रियाज़ का एक हाथ ज़ाहिदा की छातियों पर कुछ खेल-तमाशे कर रहा था। और एक हाथ बहुत बड़े गुम्बद से उभर आए पेट पर कुछ चित्रकारी कर रहा था। मुझे देर हुई तो बुलाने मुन्ना आ गया। आहट सुनते ही मैं तेज़ी से मुड़कर उस तक पहुंची।

बड़ी हसरत से घर को देखा, ताला लगाया, उसे चूमा और बस में बैठ गई। मुन्ना के यहां से केवल उसके भाई बस तक आए थे। वह सबसे मिलकर आया था। और कोई भी घर से बाहर नहीं आया। बस चलने लगी, तो सारे भाई एक बार फिर गले मिले। मुझे भी दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया।

मैंने भरी-भरी आंखों से दो बार पीछे मुड़ कर घर को देखा कि, जिसमें एक समय इतने लोग थे कि, रहने को जगह कम पड़ती थी, और आज आलम यह है कि, कोई रहने वाला नहीं रह गया। यह घर मुझसे कम बदनसीब नहीं है। इसने कभी किसी का एक पल को भी साथ नहीं छोड़ा। हमेशा सबका साथ दिया, एक मैं ही अकेली बची थी। आज मैं भी इसे अकेला छोड़ हमेशा के लिए जा रही हूं। बस ज्यों-ज्यों स्पीड पकड़ रही थी, मेरे आंसुओं की लड़ियाँ भी गालों को छू-छू कर नीचे बढ़ती जा रही थीं। मुन्ना ने अचानक ही मेरी हिचकी सुनी, तो मेरे सिर को अपने कंधे पर झुका लिया।

उसे धीरे-धीरे सहलाता रहा। वह सारी बातें समझ रहे थे। इसलिए बोलने के बजाए मूक सांत्वना देते रहे। वह समझ रहे थे कि, बात करने पर मैं और भावुक होऊँगी। हम दोनों एकदम पीछे वाली लंबी सीट पर बैठे थे। हमारे अलावा बस में ड्राइवर और क्लीनर एकदम आगे थे। मैं अपना घर, बचपन, जवानी की यादें पीछे और पीछे छोड़ते हुए खुशियों का अपना एक नया घर बनाने काशी की ओर बढ़ी जा रही थी। जहाँ मुझे उन स्थितियों का भी सामना करना था, जिनके विषय में मैंने सोचा भी नहीं था।'

बेनज़ीर फिर कहीं खोने लगीं, तो उन्हें अपने ही साथ बनाए रखने के उद्देश्य से मैंने बात जारी रखते हुए कहा, 'अपने परिवार से हमेशा के लिए बिछुड़ने जैसा दुखदायी होता है, उस घर-स्थान, मोहल्ले को छोड़ना, जहां जन्म से लेकर युवावस्था तक लंबा समय बीता हो। क्योंकि इतने लम्बे समय में, इन सबसे भी एक गहरा भावनात्मक रिश्ता बन जाता है। उसे छोड़ कर हमेशा के लिए अन्यत्र जाना, एक तरह से रिश्ते को तोड़ना होता है। इस टूटने की पीड़ा इतनी तीखी होती है कि, मन-चीत्कार करने लगता है। रोम-रोम रो उठता है, इतना कि आंसूओं का दरिया बहने लगता है। जिसे पार कर निकलना, दहकते अंगारों पर चल कर निकलने जैसा होता है। और आप पूरी बहादुरी से निकलीं। यह बहुत बड़ी बात थी।'

मेरा प्रयास सफल रहा, वह बात जारी रखती हुई बोलीं, 

'अगले दिन करीब दस बजे सुबह हम अपनी मंजिल चेतगंज के करीब पहुंचे तो खिड़की से बाहर मेरी नजर सामने से आ रहे एक जोड़े पर पड़ी । जो एक झोले में घर-गृहस्थी का कुछ सामान लिए हंसते-बतियाते सामने से चले आ रहे थे। उसे देखकर मैं घबरा उठी। धड़कने बढ़ गई। घबराहट में उस ओर इशारा करते हुए मुन्ना से कहा, 'उधर देखो।'

'उन्हें देख कर उन्होंने कहा, यह तो अपने मोहल्ले के एडवोकेट दीक्षित का बेटा है।'

'अब...अब क्या होगा?'

मैं घबरा कर बोली, 'लखनऊ छोड़कर यहां आए, यहां भी वहीं के लोग पहले से हैं।'

'अरे पगली कुछ नहीं होगा। देख नहीं रही हो दोनों मियां-बीवी कितने खुश हैं। अपने में मस्त किसी की परवाह नहीं। हमें भी किसी की परवाह नहीं करनी है। बहुत कर लिया। हम भी अपनी दुनिया में इससे ज्यादा खुश रहेंगे, मस्त रहेंगे। दुनिया अपना काम करेगी। हम अपना काम करेंगे। बस इतनी सी बात है। ये दोनों तो हम दोनों से बहुत आगे हैं। हमारे पथ के प्रथम पथिक हैं। इतनी सी ही बात में छिपी है अपनी दुनिया। अपनी खुशी।'

इतना कहकर उन्होंने मुझे बगल में और करीब सटा लिया। बस हमारी मंजिल से मात्र पन्द्रह मिनट की दूरी पर थी कि, तभी न जाने क्या हुआ कि गाड़ियों और लोगों की रफ्तार एकदम धीमी हुई, फिर एकदम से ठहर गई। जो जहां था वहीं खड़ा का खड़ा रह गया। देखते-देखते जाम इतना लंबा हो गया कि, आगे-पीछे जहां तक नजर जाती थी वहां तक सिर्फ ट्रैफिक ही ट्रैफिक दिखता था।

मैंने मुन्ना से पूछा, 'यह अचानक क्या हो गया? क्यों रुक गए सब।'

'पता नहीं, ड्राइवर से पूछता हूं, यहीं का है। उसे आइडिया होगा।'

'मुन्ना ने ड्राइवर से पूछा, लेकिन वह भी कुछ बता नहीं पाया। उसने भी यही कहा, 'मालूम नहीं आगे क्या चल रहा है।'

तभी क्लीनर बोला, 'कऊनो नेता-वेता का जुलूस होगा। सालों के पास आदमी तो होते नहीं, दर्जनभर लोगों को लेकर जानबूझकर ऐसे टाइम पर, ऐसे ढंग से सड़क पर निकलेंगे कि रास्ता जाम हो जाए और पेपर, टीवी में फोटो में छपे कि, पूरी सड़क पर सब इन्हीं की ही भीड़ चल रही थी। सड़क पर यह सब के सब इन्हीं के चेला हैं। भड़वे सालों की तो...।'

क्लीनर ने इसके साथ ही अपनी ठेंठ बनारसी स्टाइल में कई गालियां दे डालीं। ऐसे बोला जैसे शाबासी दे रहा हो।

कुछ पता नहीं चला तो वो मेरे पास आकर बैठ गए। जाम बढ़ते जाने के कारण गाड़िओं के इंजन, हॉर्न, लोगों का शोर बढ़ता ही जा रहा था। मुन्ना ने कहा, 'अजीब बेवकूफ लोग हैं, जब जाम लगा हुआ है, एक कदम भी आगे बढ़ने की जगह नहीं है। तब भी हॉर्न बजाए जा रहे हैं।'

उसे सबसे ज्यादा उस कार वाले पर गुस्सा आ रही थी जो बस के ठीक पीछे था और बार-बार हॉर्न दे रहा था। उसने खिड़की से सिर बाहर करके आते-जाते कई लोगों से पूछा कि, जाम क्यों है? लेकिन कोई कुछ नहीं बता सका। देखते-देखते आधा घंटा निकल गया।

अब हम दोनों बहुत ज्यादा परेशान होने लगे। हमारी आशंका बढ़ने लगी कि, यहां कोई लड़ाई -झगड़ा तो नहीं हो गया। फसाद में सबसे पहले लोग गाड़ियों को ही निशाना बनाते हैं। मुझे गंगाराम द्वारा बताया गया मदनपुरा का दंगा याद आ गया, जिसमें उसके बाबूजी की बड़ी निर्ममता से हत्या कर दी गई थी।

मेरे चेहरे पर पसीना देखकर मुन्ना ने बाहर देखते हुए कहा, 'परेशान ना हो, पुलिस आ गई है।' तभी लोगों और गाड़ियों का शोर भी बढ़ गया। लोग इधर-उधर भागने लगे। बस के सामने की तरफ से लोगों का ज्यादा आना शुरू हो गया। हर तरफ भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई थी। फुटपाथ, गाड़ियों के बीच उन्हें जहां भी जगह मिल रही थी, वो वहीं से आगे भागे जा रहे थे। जितना तेज़ हो सकता था, उतना तेज़ निकल रहे थे। मैंने पूछा, 'अब क्या होगा?'

तभी थोड़ी ही दूर कहीं फायर की आवाज आई। साथ ही चीख-चिल्लाहट और तेज़ हो गई। मैं बेहद डर कर बोली, 'सुनो सब इधर-उधर भाग रहे हैं। आगे खतरा है। चलो हम लोग भी उतर कर चलते हैं। आगे ना जाने कितना बड़ा फसाद हो रहा है।'

'तुम भी कैसी बातें करती हो। इतना सामान लेकर कहां भागेंगे। देख रही हो निकलना मुश्किल हो रहा है।'

हमारी बातों के बीच ही दो फायर और हो गए। मैं रुआंसी हो गई। मैंने कहा, 'मुझे डर लग रहा है। सामान छोड़ दो यहीं। इनका नंबर है ही। जिंदा रहेंगे तो संपर्क करके ले लेंगे।' मेरी बात क्लीनर ने सुन ली, वह ड्राइवर से पीछे निकासी वाले दरवाजे से लगी सीट के पास खड़ा था। बाहर की हालत देख कर, उसने मुड़कर मेरी तरफ देखते हुए कहा, 'बहन जी आप परेशान ना होइए। बाहर मुश्किल में पड़ जाएंगी। पुलिस आ गई है। यह हंगामा बस खत्म ही समझिए।'

उसकी बातों से मैंने थोड़ी राहत महसूस की। लेकिन जब मैंने देखा कि, कार या बाइक जैसी गाड़ियों के जो भी लोग थे, वह अपनी-अपनी गाड़ी छोड़-छोड़ कर भाग रहे हैं। बस के ठीक पीछे वाली कार के जो लोग कुछ देर पहले तक हॉर्न बजा-बजाकर आफत किए हुए थे, वह भी भाग गए हैं, तो मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई कि, मुन्ना को कहना पड़ा, 'इतना डरने से काम नहीं चलता। जो होगा, देखा जाएगा।'

क्लीनर ने भी अपनी ही सीट से फिर चिल्लाकर कहा, 'अरे बहनजी नाहक परेशान हो रही हैं। कहा ना कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।'

लेकिन उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि, एक के बाद एक फिर कई फायर हुए, फिर जो भगदड़ मची वह मैंने और निश्चित ही मुन्ना ने भी जीवन में पहली बार देखी थी। अब ड्राइवर, क्लीनर भी परेशान दिखने लगे। मुन्ना भी सहम उठे कि, बस में ही रुके रहें या अन्य लोगों की तरह यहां से भागें। चारों तरफ एक नजर डालकर उन्होंने कहा, 'परेशान मत हो। यह दोनों जब-तक बस में हैं, तब-तक हम भी हैं। अगर यह निकलेंगे तो हम भी यहां से चल देंगे। सामान यहीं पड़ा रहेगा। बस सुरक्षित रहेगी, तो सामान भी सुरक्षित मिल जाएगा, नहीं तो समझ लेंगे कि, हम खाली हाथ ही लखनऊ से आए थे।'

'वहां पहुँचते ही बड़ी कठिन, निराशाजनक स्थितियों से सामना करना पड़ा।'

'हाँ, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। मुन्ना ने इसके बाद ड्राइवर, क्लीनर से पूछा कि, 'रुके रहना ठीक है या यहां से निकलेंगे।'

ड्राइवर ने बड़ी दृढ़ता से कहा, 'भाई साहब जब-तक गाड़ियों, सड़क पर एक भी आदमी है, तब-तक हम बिलकुल नहीं जाएंगे। अगर सब गए तो हम भी निकलेंगे। आप लोग भी निकल लेना।'

'आप लोग यहां से निकलकर किधर जाएंगे?'

' पीछे ही जायेंगे, जहां बवाल नहीं होगा, वहीं जाकर रुकेंगे। पहली बात तो भाई साहब जब तक दंगाई गाड़ी में आग-जनी नहीं करने लगेंगे तब-तक तो मैं यहाँ से हिलने वाला नहीं। भाई सहाब मेरा प्राण है, मेरी यह गाड़ी। अभी किस्तें भी पूरी नहीं भर पाया हूँ। इसलिए जब-तक जान पर नहीं बन जाएगी तब-तक तो छोड़ नहीं जाऊंगा ।

आपसे भी यही कहूंगा कि, घबराइए नहीं, पुलिस कार्यवाई कर रही है। जल्दी ही यह कंट्रोल हो जाएगा। यहां से चेतगंज अब ज्यादा दूर नहीं है। इसलिए जल्दबाजी करना ठीक नहीं है। आप ऐसा करें, चेतगंज में आपके जो भी रिश्तेदार, परिचित हैं, उनसे पता करें कि वहां क्या हाल है। मैं भी अपने लोगों को फोन करता हूं, पता करता हूं कि, कहां पर क्या हाल है। जैसा होगा फिर वैसा ही करेंगे।'

मुन्ना ने मकान मालिक से बात की तो उन्होंने बताया कि, 'इधर ऐसा कुछ नहीं है।' तब जाकर मुन्ना को राहत मिली। तब-तक क्लीनर ने भी दो-चार लोगों से बात कर ली थी।

पता चला कि, आगे लहुराबीर के पास जो गर्ल्स कॉलेज है, वहां की छात्राओं के साथ कुछ लफंगों ने छेड़छाड़ कर दी थी, जिससे छात्राओं ने विरोध स्वरूप रास्ता जाम कर दिया। उनके समर्थन में कुछ और कॉलेजों के स्टूडेंट भी आ गए, जिससे हंगामा ज्यादा हो गया। इस हंगामें का कुछ अराजक तत्वों ने फायदा उठाते हुए देसी हथियारों से फायर करके माहौल बिगाड़ने की कोशिश की, जिन्हें पुलिस ने सख्ती से लाठियां भांज कर दौड़ा लिया। छात्रों का जाम लफंगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के आश्वासन के बाद खत्म हो चुका है। जल्दी ही रास्ता खुल जाएगा।

यह जानकर हमने बड़ी राहत महसूस की। लेकिन रास्ता खुलते-खुलते आधा घंटाऔर लग गया। रास्ते में तमाम गाड़ियों के शीशे टूटे हुए मिले। गनीमत यह रही कि जब बलवा शुरू हुआ तब हमारी बस वहां से दूर थी। करीब होती तो वह भी छात्रों, अराजक तत्वों के हमले का शिकार हो जाती।

जब हम चेतगंज पहुंचे तो दिन काफी चढ़ चुका था। झुकती दोपहरी में मकान मालिक पत्नी के साथ गेट पर ही मिले। उन्होंने कहा, 'हमें चिंता हो रही थी कि, कहीं आप परेशानी में ना पड़ जाएं। भोलेनाथ की कृपा आप पर रही, सही सलामत आ गए।'

माथे पर तिलक लगाए मकान मालिक मुझे भले आदमी लगे और उनकी पत्नी भी। गाड़ी से सामान उतारकर पहली मंजिल पर पहुंचाने में ड्राइवर, क्लीनर, मकान मालिक तीनों ने मदद की। कुछ ही देर में सब कुछ आसानी से पहुंच गया। ड्राइवर ने बहुत अच्छे से बात की। मुन्ना ने गंगाराम की तरह उसका भी नम्बर ले लिया।'

'एक बात बताइये, रहने के लिए तो आपने लल्लापुरा को चुना था, फिर चेतगंज क्यों ?'

'हाँ, लेकिन मुन्ना जब यहाँ कई बार आये तो, उन्हें लगा कि रहने के लिए चेतगंज ज्यादा सही है।'

'जो भी हो, आपके मुन्ना जी जीवन में बहुत ही फ्लेक्सिबल हैं, कहने भर को भी कोई कमी महसूस हुई नहीं कि, पहले की योजना में तुरंत संसोधन के लिए तत्पर हो जाते हैं।'

'जी हाँ, यह तो है। इसे मैं उनकी एक ताकत मानती हूँ। उनका काम करने का तरीका ही निराला है। चेतगंज पहुँचने से पहले मैं सोच रही थी कि, वहां सबकुछ मेंटेन करने के लिए दो-तीन दिन बहुत काम करना पड़ेगा। लेकिन मकान मालिक के नीचे जाते ही मुन्ना ने मुझे पूरा मकान दिखाया। दो बड़े कमरे, लॉबी, एक बॉलकनी, नए ढंग का बना किचन, बॉथरूम मुझे बहुत अच्छे लगे। किचन से लेकर बेडरूम, ड्रॉइंग रूम सब जगह जरूरत की सारी चीजें लगी हुई थीं। गृहस्थी का सारा सामान था।

उसे देखकर मैंने पूछा, 'तुमने तो सोफा, बेड, किचेन, फ्रीज, टीवी सारी गृहस्थी पहले ही जमा कर रखी है। इतना सब कर डाला बताया तक नहीं। आकर दोनों ही मिलकर साथ करते। मैं तो सोच-सोच कर परेशान रही हूं कि, अकेले तुम कितना परेशान हुए होगे। कैसे किया होगा तुमने, ऐसा क्यों किया?'

'क्यों कि मैं नहीं चाहता था कि, मेरी बीवी आए तो यहां घर को सजाने-संवारने में थक जाये। मैंने सोचा कि, जब तुम आओ तो सब कुछ तैयार मिले, इसलिए सब कर डाला।'

उनकी बातों से मैं एकदम भावुक हो, उन्हें बाहों में भर लिया। मुन्ना ने भी मुझे कस लिया। ऐसे ही लिए-लिए बेड पर लेट गए। रास्ते भर सफर से हम दोनों बहुत थक गए थे, तो हमें बड़ा आराम मिल रहा था।

मेरा सिर, आधा शरीर मुन्ना की छाती पर था। मेरी आंखें बंद थीं। मुन्ना के दोनों हाथ मेरी पीठ कमर को घेरे हुए थे । उनकी भी आंखे बंद थीं। पांच मिनट भी ना बीता होगा कि, मकान मालिक एकदम से हाथों में ट्रे लिए आ गए। हम एकदम हकबका कर उठ बैठे। मैं शर्म से दोहरी होकर मुन्ना के पीछे खड़ी हो गई। मुन्ना ने कहा, 'आइये, आइए।'