Benzir - the dream of the shore - 29 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 29

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 29

भाग - २९

' मैं जानती हूँ कि, तुम मेरा ख्वाब पूरा कराने में मेरा साथ जरूर दोगे । एक तुम ही हो जो अब मेरे जीवन में मेरे ख्वाबों को सजाओगे-संवारोगे। सुनो इसी से जुड़ी एक और बात कहना चाहती हूं।'

'क्या, बताओ।'

'देखो तुम काशी में कह रहे थे कि, अपने काम-धाम के हिसाब से लखनऊ से ज्यादा मुफीद काशी है।'

' हाँ, कहा था।'

'तो मैंने यह तय किया है कि, अब हम यहां से काशी ही जाकर बसेंगे। वहीं नए सिरे से अपना काम-धाम शुरू करेंगे, वहीं शादी करके...।' मैं इतना कहकर चुप हो गई। बात अधूरी छोड़ दी।

'तो मुन्ना ने मेरी बात पूरी करते हुए कहा, 'हाँ, बोलो-बोलो शादी करके...।'

वह जानबूझ कर मेरे मुंह से बच्चों की बात कहलवाना चाहते थे। मुझे शर्म आ रही थी। तो मैंने कहा, 'धत्त.. मालूम तो है सब, मेरे मुंह से क्यों कहलवाना चाहते हो?'

'नहीं मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं।'

'नहीं मैं नहीं कहूँगी। आधी बात मैंने कही, आधी तुम पूरी करो।'

'ठीक है, तो मैं पूरी करता हूं, शादी करके ढेरों बच्चे पैदा करेंगे। हर साल एक।'

'नहीं-नहीं ढेर सारे बिल्कुल नहीं। बस दो ठीक हैं। मैं भी इंसान हूं। बच्चे पैदा करने वाली मशीन बिल्कुल नहीं बनूंगी।'

'ठीक है, दो तुम्हारे मन के, दो हमारे मन के।'

'ठीक है, आखिर अपनी बात मनवा ही लेते हो। हो गए ना ढेर सारे।'

'नहीं, ढेर सारे तब होंगे जब दर्जन भर होंगे। एक काम और तुम्हारे मन का है कि, हर साल नहीं तीसरे साल पैदा करेंगे।'

'ठीक है।जब मन हो तुम्हारा तब पैदा करूंगी। अब सबसे जरूरी बात सुनो।'

'सुनाओ।'

'देखो मैं डेढ़-दो महीने में ही यहां से छोड़कर काशी चल देना चाहती हूं। वहां जाकर मकान का इंतजाम करने की बात तो अम्मी की तबीयत के चलते रुक गई थी। अब वहां जा कर सारा इंतजाम कर लो। फिर यहां से चल देंगे।'

'और यहां सामान, मकान इनका क्या करोगी?'

'मैंने यह सब सोच लिया है। यहां एक कमरा बंद करके अपने पास रखूंगी। बाकी में दो किराएदार रखूंगी। रियाज का किराया आज के हिसाब से बढ़ा दूंगी, देता है तो ठीक है, नहीं तो कह दूँगी कि खाली कर दो। नया किरायदार रखूँगी। काम का जितना सामान आसानी से लेकर चला जा सकेगा, उतना ही ले चलेंगे, बाकी सब यही बेच देंगे। जो पैसा मिलेगा, उससे वहां खरीद लेंगे। हर महीने यहां जो किराया मिलेगा, उससे वहां मकान का किराया निकल आएगा। फिर आगे जब पैसा इकट्ठा कर लेंगे, तब वहां मकान बनवा लेंगे।'

'अरे वाह, तुम तो सारे काम का प्लान बनाए बैठी हो। बड़ी तेज़ निकलीं।'

'मैं कई सालों का पूरा प्लान तैयार किए बैठी हूं। इतने दिन में तुम्हारे साथ कुछ तो सीख ही लिया है। एक बात और सुनो, मेरे पास करीब दो लाख रुपये हैं। तुमने अम्मी का सारा खर्चा उठाया, मुझसे एक पैसा नहीं लिया, कहा बाद में देखेंगे, तो अब जो हैं वही ले लो। काम जल्दी से जल्दी करो।'

'क्या तुम बार-बार पैसे की बात करती हो, मियां-बीवी के बीच कुछ बंटा होता है क्या?'

'अरे नहीं-नहीं, मैं वह बात नहीं कह रही थी, मेरा मतलब है कि, अम्मी के इलाज में दसियों लाख रुपये खर्च हो गए। पैसों की तंगी होगी। इसलिए ये पैसे लेकर काम चलाते रहो।आगे जो होगा, देखा जाएगा।'

'चलो जैसी जरूरत होगी, देखेंगे। कोशिश करता हूं कि, डेढ़ महीने में सारा इंतजाम कर लूं।ठीक है।'

'लेकिन मकान लल्लापुरा में ही लेना। वह जगह मुझे अच्छी लगी। अपने काम-धाम के लिए भी मुफीद है।'

मैंने अपनी बात खत्म करके एक गहरी सांस ली। गला सूखने पर पानी पिया कुछ देर बैठी रही जमीन पर ही, अपने कपड़े भी पहले ही की तरह सामने दीवार पर दे मारी थी। अब ना जाने क्यों, अपने कमरे में रात होते ही कपड़े बदन को चीरते हुए से लगते थे।

अम्मी के जाने के बाद मैंने उनका कमरा साफ-सुथरा करके बंद कर दिया था। उनकी बड़ी सी फोटो भी फ्रेम करवा कर लगा दी थी दीवार पर। जिसे मैंने काशी जाते समय मोबाइल से खींचा था। एक और फोटो उसी के सामने वाली दीवार पर लगाई थी, जिसमें मैं अम्मी के साथ थी। यह भी मैंने मोबाइल से सेल्फी ली थी। जिसमें हम दोनों हंस रही थी। मां के हाथ में वो ट्रॉफी थी जिसे, मैंने बाराबंकी में जीता था। वहां से लौटने के अगले ही दिन यह फोटो खींची थी। उसी समय मैंने उन्हें जीवन में पहली बार हंसते हुए देखा था।

कमरे में उस समय मुझे अम्मी की बेतरह याद आ रही थी। रात डेढ़ बज रहे थे। आंखें भारी हो रही थीं। लेकिन सो नहीं पा रही थी। पिछले कई दिनों की तरह फिर से अम्मी से गुफ्तगू शुरू हो गयी थी। ख्यालों में ही। मुझे लगता जैसे वो मुझे एकदम देख सुन रही हैं। मेरे होंठ फड़कने लगे थे। मैं धीरे-धीरे बुदबुदाई, 'अम्मी एक काम अधूरा छोड़कर तुम अचानक ही बिन बताए चली गई। मैं इंतजार करती रही कि तू ठीक होगी, आंखें खोलेगी, मेरे निकाह का मसला हल करेगी। मगर नहीं, न जाने क्या जल्दी थी तुझे, पहले तो तुझे कभी किसी काम में जल्दबाजी करते नहीं पाया था। इसलिए मैं निश्चिंत थी कि तू ठीक हो कर घर जरूर आएगी। घर जरूर लौटेगी। मगर नहीं लौटी। ना जाने क्या था तेरे मन में जो नहीं लौटी। अब तू ही बता मैं मुन्ना से निकाह के लिए किससे सलाह-मशविरा करूं, तुझसे। बोल ना। चुप क्यों है?' मेरे होंठ बार-बार फड़क रहे थे। आंखें आंसूओं से भरी हुई थीं।

कुछ पलों के अंतराल पर वह पारदर्शी मोती बन टपकते भी जा रहे थे। पहले वह आंखों की पलकों की बाऊंड्री फलांग कर मेरे गालों पर कूदते और फिर बिना एक पल गवाएं, पलक झपकते ही कूद जाते थे मेरी छातियों पर। उन्हें भिगोकर मानो मेरे हृदय में जल रही आग को शांत करने में जुटे हुए थे। सांत्वना दे रहे थे कि, 'नहीं बेंज़ी, जाने वालों के लिए आंसू नहीं बहाया करते। उनकी आत्मा को ऐसे कष्ट देने से क्या फायदा। वह जाने से पहले तुझे अपने पैरों पर खड़ा होने, आगे बढ़ने, अपने हिसाब से अपनी बहुरंगी दुनिया बनाने, जीने की कूवत तो दे ही गई हैं। वह तो अपने हिस्से की जिम्मेदारियां पूरी करके गईं। फिर नाहक ही उन्हें क्यों परेशान करना चाहती हो।'

मेरे होंठ फड़कते ही जा रहे थे। गुफतगू बढ़ती रही कि, 'अम्मी मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अगर तू होती, मैं मुन्ना से निकाह की इजाजत मांगती, तो तू क्या करती, क्या कहती, एक बार मन कहता है कि, तू बिना किसी हील-हुज्जत के कहती कि, तू उसके साथ खुश रह सकती है, तो यही सही। जो नसीब में लिखा है मेरे-तेरे वही हो रहा है।

जिस तरह तुम मुन्ना के साथ बाराबंकी से लेकर काशी तक जाने-आने दे रही थी, जिस तरह उनके साथ काम करने दे रही थी, उनके सारे परिवार के साथ जाना-आना बनाये हुए थी उससे तो मैं यही मानती हूं।

अम्मी मन के किसी कोने में यह भी तो जरूर है कि, तू मुन्ना से निकाह की बात सुनते ही भड़क उठती। आग-बबूला होकर मुझे दुनिया भर की लानत-मलामत भेजती। और तब, तब मैं तुझ से गुजारिश करते हुए कहती कि, 'अम्मी आधा जीवन तो बीत गया है, यही सब करते- देखते। और तेरी, बड़ीअम्मी और दोनों छोटी अम्मियों की तबाह हुई, तिल-तिल कर तल्ख हुई ज़िंदगी को देखते-देखते। तुम बताओ ना तलाक की आग में झुलसी तीनों अम्मियां कहां है? उनके बच्चे कहां है? किस हाल में हैं?अम्मी आज भी आसिफ, नसीब मेरे दोनों प्यारे छोटे भाई मुझे याद आते हैं।

बड़ी अम्मी के यह दोनों बेटे मुझे कितना प्यार करते थे। सगे वाले तो मारने-पीटने के अलावा कभी दो बोल भी प्यार से नहीं बोलते थे। जिस दिन भी आसिफ या नसीब में से कोई भी मुझे छू लेता था, बात कर लेता था उस दिन भाई लोग उनको बहाने से मारे-पीटे बगैर चैन से बैठते नहीं थे। अम्मी क्या तुम भूल गईं कि, किस तरह ठिठुरती अंधेरी रात में अब्बू ने बड़ी अम्मी को तीन पल में तलाक देकर आसिफ, नसीब सहित घर से दुत्कार कर बाहर कर दिया था। फिर तब से आज तक उनका पता नहीं है। मुझे बिरंजी कहकर प्यार करने, चिढाने वाले मेरे दोनों भाई कहां है?बताओगी। अम्मी, अम्मी, मेरी प्यारी अम्मी, मेरी गुजारिश मान ले। मैंने थोड़ी सी ही बची ज़िंदगी के लिए जो खुशी ढूंढी है अपने लिए, वह मुझसे न छीन। मैं पक्का यकीन दिलाती हूं कि, मेरी यह खुशी कभी मुझे धक्के मार कर ठिठुरती रात में सड़क पर नहीं फेंकेगी।

मैं पूरे यकीन से कहती हूं अम्मी कि, तू जाने की जल्दबाजी ना करती तो मैं अगले कुछ ही महीनों में तेरी गोद में एक खूबसूरत सा महकता फूल देती। जिसकी खुशबू से मेरी, तेरी दुनिया महक उठती। तेरे बचपने से उदास-उदास, उजाड़ इस घर की दरो-दिवार खिलखिला उठती। दुनिया की यह सबसे बेस-कीमती खुशी हम दोनों के बीते दिनों के सारे दुखों पर भारी पड़ती। मगर मेरी बदकिस्मती देख अम्मी कि, तू जल्दबाजी कर गई और मैंने भी घबराहट, जल्दबाजी, में अपने दिल के टुकड़े को, दुनिया जहां के सबसे खूबसूरत फूल को खिलने से पहले ही बेदर्दी से तोड़कर, मसल कर फेंक दिया। हमें इसकी सजा भी तो भुगतनी पड़ेगी ना।'

खुद से ख्यालों में ही हो रही हमारी बातें इतनी परवान चढ़ीं कि, आखिरकार बुदबुदाते हुए मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। यह भी ख़याल नहीं किया कि, बरसों के मेरे दुश्मन, दरवाजे केउस पार सुन रहे होंगे। क्या हैरानी जो मेरी ही तरह दरवाजे पर आँखें गड़ा, मुझे इस हालत में देखने लगें। रोते-रोते किस समय नींद में खो गई, मुझे कुछ पता नहीं था । जमीन पर ही रात भर पड़ी रही।'

'आपकी यह स्थिति तो बेहद खतरनाक थी। आप उन्हें बताती थीं, तो वो क्या कहते थे ?'

'मैं उन्हें नहीं बताती थी। सोचती कि वह और ज्यादा परेशान होंगे।'

'आप बताती तो निश्चित ही वह, आपको किसी डॉक्टर के पास ले जाते, क्योंकि आप डीप डिप्रेशन की स्टेज में पहुँच रही थीं।'

'उस समय इतना कहां सोचती थी। मुन्ना मुझे मनोचिकित्सक के पास ले जाते, यह कहने में आप इतना संकोच क्यों कर गए।'

मैंने हंसकर बेनज़ीर की यह बात टाल दी तो वह आगे बोलीं, 'अगला पूरा डेढ़ महीना मेरा और मुन्ना का काशी प्रस्थान की तैयारियों में निकल गया। मुन्ना को कई बार वहां जाना पड़ा। ज़ाहिदा को मकान खाली करने के लिए कहा तो उसने कहा तीन महीने में अपने दूसरे बच्चे की मां बनने वाली है। ऐसे में कहां इधर-उधर भटकेंगे, तो मैंने मुन्ना से सलाह-मशविरा करके उसे छः महीने के लिए मोहलत दे दी। मैं किराया बढ़ाना चाहती थी। लेकिन मुन्ना ने कहा, 'यहअच्छी बात नहीं होगी। ऐसे समय में हम उसे मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम कोई समस्या भी ना पैदा करें।' उन्होंने काशी चलने से पहले दो और किरायेदारों का इंतजाम भी कर दिया।

काशी के लिए हमारी सारी तैयारियां हो गईं। हमारी कोशिश कम से कम सामान ले चलने की थी। हर कोशिश के बाद भी हम दोनों का सामान बहुत ज्यादा हो गया था। जबकि मैंने काम भर के अलावा बाकी सारा सामान एक-एक करके बेच डाला था। मुझे अम्मी के उस बक्से में से सोने-चांदी के बहुत सारे गहने मिले। जिसे मैंने कभी भी अम्मी को खोलते हुए नहीं देखा था। बहनों की शादी के थे, जो शादी के टूटने के बाद धरे के धरे रह गए थे। कुछ पुराने भी थे जो अम्मी के रहे होंगे।

बहुत से सामानों को बेचते, कबाड़ी वाले को देते हुए मेरी आंखें बार-बार भर आई थीं। बड़ी-बड़ी तकलीफों के समय इन्होंने घर की मदद की थी और उतनी ही ज्यादा तकलीफों के साथ उन्हें खरीदा या जुगाड़ करके लाया गया था। लेकिन मेरे सामने और कोई रास्ता नहीं था।

ज्यादा से ज्यादा सामान निकालने के बाद जो बचा, देखकर मुन्ना ने कहा, 'इतना सामान लेकर ट्रेन या बस से चल नहीं सकते और इतना भी नहीं है कि, मिनी ट्रक भी की जाए।'

'तो कैसे करोगे?'

'देखता हूँ, चलना तो है ही चाहे जैसे।'

दो दिन की दौड़-धूप के बाद मुन्ना को एक तीस सीटर ट्रैवलर बस मिल गई। जो किसी पार्टी को छोड़ कर वापस जा रही थी। कुछ घंटे बाद ही काशी के लिए रवाना होने वाली थी। उसी को तय कर लिया। जिसमें सारा सामान आराम से जा सकता था, और देर रात तक निकलने के लिए तैयार भी हो गया था। मुन्ना और मैं नहीं चाहते थे कि, दिन में मोहल्ले वाले इकट्ठा होकर दुनिया भर की कथा-कहानी कहें, सुनें, सुनाएं।