Benzir - the dream of the shore - 28 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 28

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 28

भाग - २८

मैं सबेरे चाय-नाश्ता लेकर पहुंची, तो देखा कि रोज जल्दी उठने वाली अम्मी लेटी हुई हैं और कराह रही हैं। पूछा तो बड़ी मुश्किल से इतना ही बता सकीं कि, छाती में बड़ा दर्द हो रहा है। मैंने जल्दी से उन्हें दवा खिलाई, लेकिन वह उसके बाद पानी भी पी नहीं सकीं, बेहोश हो गईं। मैं घबरा उठी कि क्या करें। हर बार की तरह इस बार भी मुन्ना, उनके परिवार को याद किया। सब ने हमेशा की तरह मदद की। हॉस्पिटल में एडमिट करवाने के बाद मुन्ना ने कहा, ' इन्हें सीवियर हार्टअटैक पड़ा है। हालत बहुत गंभीर है। डॉक्टर बता रहे हैं कि ओपन हार्ट सर्जरी ही एकमात्र रास्ता है। एज ज्यादा होने के कारण और भी ज्यादा हाई रिस्क सर्जरी है। तुम्हें तुरंत फैसला करना है कि, सर्जरी करानी है या नहीं। सर्जरी से उनके ठीक होने की संभावना ज्यादा है। वहीं ना कराने पर कोई उम्मीद नहीं है।'

'तुम ही बताओ क्या करें, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। एक अम्मी ही तो रह गई हैं मेरे साथ, वह भी ना रहेंगी तो मैं क्या करूंगी, किसके साथ रहूंगी।' कहते-कहते मैं रोने लगी । तब उन्होंने चुप कराते हुए कहा, 'देखो, तुम्हें हमेशा की तरह ही इस समय भी बहादुरी से काम लेना है। फैसला तुम्हें ही करना है। मैं हर मदद के लिए, हर कदम पर तैयार हूं। हर समय तुम्हारे साथ हूं। तुम यह भी देख रही हो कि, मेरा पूरा परिवार साथ है। मगर तुम्हारी अम्मी हैं, इसलिए फैसला तुम्हारा ही होगा। समय नहीं है बिल्कुल, इसलिए जल्दी करना होगा । प्राइवेट हॉस्पिटल है। यहां पैसा जरूर ज्यादा लगता है, लेकिन ट्रीटमेंट बहुत अच्छा होता है।'

'जो डॉक्टर कहें वही करो। मगर इस समय तो मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। इतना बड़ा हॉस्पिटल है। यहां पैसा तो बहुत लगेगा, कहां से लाऊँगी।'

'चिंता ना करो, पहले उनकी जान बचाना ज्यादा जरूरी है। पैसे की व्यवस्था मैं कर लूंगा।' मुन्ना की बातों ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि, मैंने तुरंत सर्जरी के लिए हां कर दी। उनका परिवार जिस मजबूती के साथ मेरी मदद कर रहा था, उससे मेरी हिम्मत और बढ़ गई। मैं इस हिम्मत के साथ अम्मी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गई।

इस हालत में मुझे कई बार अपना परिवार बहुत याद आया। लेकिन सोचा, क्या सोचना ऐसे परिवार को जो गैरों से भी ज्यादा गैर हैं। देखूं तो सही मायने में मुन्ना और उनका परिवार ही असली परिवार है। किस तरह रुपए-पैसे, जी-जान से लगें हैं। उनकी मदद ही है कि देखते-देखते शहर के सबसे बढियाँ, सबसे महंगे हॉस्पिटल में सर्जरी हो गई। मगर मेरी बदकिस्मती भी मेरे दामन से चिपकी रही। सर्जरी के तीन दिन बाद भी अम्मी को होश नहीं आया। लगातार वेंटिलेटर ही सहारा बना हुआ था। मेरा धैर्य जवाब दे रहा था। अम्मी की सेहत के साथ-साथ मुझे लगातार हॉस्पिटल के बढ़ते बिल की चिंता भी परेशान कर रही थी।

मैं चौबीसों घंटे हॉस्पिटल में रहती। और मुन्ना घर, बाहर, बिजनेस हर जगह हाथ-पैर मार रहे थे। उनके घर वाले बराबर साथ ना देते, तो उनके लिए बहुत बड़ी मुसीबत थी। जब वह आते तो मैं दो-तीन घंटे सो पाती। देखते-देखते दो हफ्ता बीत गया। लेकिन हालात जस के तस बने हुए थे। मैं उनसे पैसे की बात करती तो वह कहते इंतजाम हो जाएगा।

पन्द्रहवें दिन मैं उनसे हॉस्पिटल में मिलते ही रो पड़ी। मेरा रोना देखकर मुन्ना के चेहरे पर ऐसे भाव आए, मानो पूछ रहे हों अम्मी सलामत तो हैं? मैंने कहा, 'कुछ राहत नहीं मिली है। हालत जैसी थी वैसी बनी हुई।'

'फिर क्यों रो रही हो? क्या बात है?'

'कई बार पूछने पर मैंने पेट पर हाथ रखते हुए कहा, लगता है कि...।

'उन्होंने ने मेरा इशारा समझते हुए पूछा कि, 'तुम्हें कंफर्म है।'

'मुझे लग ऐसा ही रहा है। तीन बार प्रेग्नेंसी किट के जरिए टेस्ट किया तो हर बार पॉजिटिव ही आया।'

हम दोनों परेशान हो गए कि इस हालत में क्या करा जाए। बड़ी उधेड़बुन के बाद मुन्ना ने कहा, ' इन हालात में एक ही रास्ता है कि, अबॉर्शन करवा दिया जाए।'

'लेकिन मैं बच्चे को खोना नहीं चाहती। यह हमारी जान है।'

'तुम्हारी ही नहीं हमारी भी जान है। लेकिन जरा सोचो, तुम्हारी अम्मी की जो हालत है उसे देखते हुए तीन-चार महीने उनसे बात की ही नहीं जा सकती। बल्कि बाद में भी नहीं। क्योंकि ठीक होने के बाद भी इस रिश्ते को स्वीकार कर पाएंगी कि नहीं यह कहना मुश्किल है। हम अपने लिए उनकी जान खतरे में नहीं डाल सकते ना। दूसरे तुम बता रही हो कि दूसरा महीना भी निकल चुका है। तीन के बाद तो कानूनन भी नहीं करा पाएंगे। ऐसे में जब पेट बढ़ जाएगा तो दुनिया पूछताछ करेगी । एक बार सब ठीक हो जाए फिर आगे से करेंगे।'

'मगर कैसे होगा सब?'

'घबराओ नहीं, । इस हॉस्पिटल के बगल वाले हॉस्पिटल में मेटरनिटी सेंटर है। जहां तक मुझे मालूम है तो बात दिनभर की ही है। तुम्हें एक दिन ही रखेंगे। बहुत हुआ तो तुम्हें दो दिन तकलीफ झेलनी पड़ेगी।'

'अम्मी को, मुझे, दोनों जगह कैसे करोगे?'

'तुम घबराओ नहीं। मैं यहां, वहां दोनों जगह संभाल लूँगा। नहीं हो पायेगा तो अम्मा को मदद के लिए बुला लूंगा।'

'वो गुस्सा हुईं तो।'

'मुझे यकीन है, ऐसी स्थिति में वह कुछ नहीं कहेंगी। अगर कहा भी तो कहूंगा कि हालात नॉर्मल हो जाए तब बात करूंगा।'

मुन्ना की अथक कोशिशों के चलते मैं तीन-चार दिन में ही काफी संभल गई। हालांकि मेरा दिल बराबर रोया। आंखों के आंसू कई दिन तक नहीं सूखे। अपनी जान को अपने से जुदा करने के बाद मुन्ना भी बहुत उदास रहे।'

'एक तरह से उन्होंने आपकी अम्मी, आपके लिए अपनी पहली ही संतान को बलिदान कर दिया। मुझे नहीं लगता कि इससे बड़ा कोई और त्याग हो सकता है।'

'सही कह रहे हैं आप, इससे बड़ा बलिदान और हो ही नहीं सकता, लेकिन किस्मत में तो पहले से ही कुछ और लिखा था, हमारा बलिदान भी उसे बदल नहीं सका, हालात ने हमारे लिए कोई और रास्ता छोड़ा ही नहीं था। अम्मी के लिए मुझे यह करना ही था, क्योंकि उनके अलावा मेरे पास और कोई नहीं था। जिस अम्मी की सेहत के लिए हमने अपने बच्चे को भी कुर्बान कर दिया, वह भी दो महीने बाद ही दुनिया से कूच कर गईं। हमारे बच्चे ही की तरह बिनाआंखें खोले, मुझसे दो बोल बोले बिना ही, कि 'अरे बेंज़ी काहे मेरे लिए परेशान हो रही है।' वह होश में होतीं तो निश्चित ही यही कहतीं। लेकिन उनसे कैसे कहूं कि बिन बोले ऐसे तन्हा छोड़, जुदा हो कर तो तुमने मुझे हमेशा के लिए परेशानी में डाल दिया है।'

यह कहते-कहते बेनज़ीर की आंखों से आंसू निकलने लगे। वह अपना रोना मेरे सामने रोक नहीं सकीं। उनका यह दर्द सुनकर मैं भी भावुक हो गया था। उनके टपकते आंसूओं को कुछ देर देखने के बाद आखिर मैंने शांत होने के लिए कहा। सांत्वना दी। मुझे लगा कि अब इस माहौल में और आगे बात करना अच्छा नहीं। यह अमानवीय कृत्य होगा। मैंने कहा, 'बेनज़ीर जी, मेरी वजह से आप काफी दुखी हुईं, मुझे बेहद अफसोस है। आगे की बातें हम लोग फिर कभी कर लेंगे।'

'नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। यह बातें जब शुरू हो जाती हैं, तो खुद-ब-खुद आंसू आ जाते हैं। इनके बह जाने के बाद कुछ रिलेक्स भी कर रही हूं। हां, आपको कोई प्रॉब्लम ना हो, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं। मैं आज ही सब कुछ कह सकती हूं।'

'रियली यू आर अ ब्रेव लेडी। मैं भी सुनने को तैयार हूं। एक माहौल सा बन गया है।'

मेरी बात पर बड़ी मंद सी मुस्कान के साथ वह बोलीं, 'माहौल बना लेने के भी आप बड़े खिलाड़ी लगते हैं, वैसे मैं यह कह रही थी कि, मैं आत्महत्या कर लेती, अगर मुन्ना और उनका परिवार उस समय साए की तरह मेरे साथ खड़ा नहीं होता। सभी इस तरह मेरे साथ लगे रहे कि, जैसे मेरे ही सगे हैं। मेरे ही परिवार के लोग हैं।

पहले दिन जब रात में मैं अकेली ही रही घर पर तो उनकी अम्मा ने आधी रात सोते-सोते तक कई बार फोन कर कहा, 'बेटा चिंता, संकोच मत करना। कोई जरूरत हो तो तुरन्त फोन करना। हम आ जायेंगे। उनकी बातों से मुझे बड़ा बल मिला। नहीं घर में अम्मी के जाने के बाद मैं अकेले खौफ से ही मर जाती। मुन्ना के बारे में बताने की जरूरत नहीं। वह रात भर जागा ।

वीडियो कॉलिंग करके बराबर मेरे साथ बना रहा। पूरे परिवार से हद दर्जे तक रुपये-पैसे, जज्बाती सारी मदद मिलने के बावजूद अम्मी के इंतकाल ने मुझे तोड़कर रख दिया। मैं एकदम खोखली हो गई। काम-धंधा अस्त-व्यस्त हो गया। मुन्ना बड़ी मुश्किल से अपना काम चलाए रख पा रहा था क्योंकि परिवार साथ था। ऐसे में मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या आ खड़ी हुई कि, हॉस्पिटल का लाखों का जो बिल मुन्ना ने अपने घर वालों से छिपा कर दिया है, उसे कैसे वापस करूं। मेरे पास तो मुश्किल से दो लाख ही मिले थे। इंतकाल के बाद जितना खर्चा हुआ, वह सब भी उन्होंने ही किया। पूरे परिवार ने हर स्तर पर सहयोग किया था।

मैयत, कब्रिस्तान ले जाने तक रियाज-ज़ाहिदा बस दिखाने भर को आए। गुसल के वक्त जरूर ज़ाहिदा ने साथ दिया था। और जो चार.छः लोग आए उन्हें चेहरे से इतना ही जानती थी कि मोहल्ले के हैं। नाम तो किसी का पता ही नहीं था। दिलासा देने, कहने को दर्जन भर चाचियां आईं। दिलासा भी अल्लाहताला करके खूब दी। जाते-जाते कह गईं कि, 'तुम परेशान ना हो, हम सब तेरा ख्याल रखेंगे। हमारे लिए जैसे मेरी बिटिया वैसे ही तुम।'

सभी ऐसे ही अपनी-अपनी बेटियों के बराबर मुझे दर्जा देकर हमेशा मददगार बने रहने की बात करके चली गईं। फिर लौट कर कभी, किसी ने एक बार को भी चेहरा नहीं दिखाया।

मैं तो भूखों ही मर जाती, अगर मुन्ना की अम्मा खाना ना भिजवातीं। मुझे फोन कर करके कहतीं कि, 'बेटा तुम्हें बनाने की जरूरत नहीं। यहां सबके साथ तुम्हारा भी बनता रहेगा। जब तुम्हारी तबियत संभले तो बनाना।'

खाना नौकरानी से ही भिजवातीं। लड़कों को नहीं भेजतीं कि, कहीं कोई कानाफूसी ना हो। आखिर संकोच के चलते मैंने खाना बनाना शुरू कर दिया। जबकि घर में ही रह रहे ज़ाहिदा रियाज मैयत जाने के बाद बस एक बार आए। ऊपर से ना रात देखें ना दिन, जब देखो तब पलंग तोड़ते रहते थे। पहले देखने-सुनने की कोशिश करने पर ही मालूम होती थी बेशर्मों की खुराफात। आम्मी का डर था, लेकिन उनके बाद तो लगता, जैसे मुझे सुना-सुना कर बेशर्मी करते हैं। अब-तक पानी नाक नहीं सिर के ऊपर चला गया था। मैंने सोचा अगले महीने खाली कर देने के लिए बता देती हूं। इन स्वार्थियों को अब बाहर करके रहूंगी। मैं कई दिन बड़ी ग़मगीन सोचती रही थी किअब क्या करें।

जहां बरसों पहले खड़ी थी, अब तो हालात उस से बदतर हो गए हैं। पहले माली हालत जो भी थी, कम से कम अम्मी तो थीं। अब तो काम-धंधा सिफर हो गया है। आगे पीछे कोई बचा नहीं। इतना बड़ा मकान, अब गुंडे-बदमाशों की नजर लगते देर नहीं लगेगी। पहले तो अम्मी हर कदम पर बताने-समझाने वाली थीं। अब कौन? मुन्ना। अब हर बात पर यही नाम दिमाग में गूंजता।आखिर मैंने क्या करें, क्या ना करें, काम-धंधा कैसे फिर से खड़ा करें। इन मसलों पर मुन्ना से बात करने की सोची। मोबाइल उठाया उन्हें बुलाने के लिए, लेकिन तुरंत ही रख दिया। यह सोच कर कि, मोहल्ले वाले चार बातें करेंगे। वह अभी अपने काम-धाम में लगे-होंगे। रात मोबाइल पर ही सलाह-मशविरा करूंगी।

रात को मैंने मुन्ना से बड़ी लंबी बातचीत की। अपनी सारी परेशानी बताई। कहा, 'अम्मी को गए दो महीना हो गया है। अब मैं जल्द से जल्द काम-धंधा शुरू करना चाहती हूं।'

मुन्ना बार-बार कहते कि, 'तुम क्यों परेशान हो रही हो कि, तुम्हारा जीवन कैसे कटेगा। तुम्हारा जीवन, अब-सब कुछ मेरी जिम्मेदारी है। तुम मेरी बीवी हो। शादी नहीं की तो क्या? पति-पत्नी तो हैं ही। तन-मन से एक हैं ही। तुम्हें फिर भी अगर कहीं से शक-सुबह है, तो परेशान ना हो, कुछ समय और हो जाने दो, फिर जल्दी ही रस्मों-रिवाज को भी निभाएंगे। जैसे कहोगी उस तरह से शादी कर लेंगे।'

उनका जवाब मैं जानती थी। मैंने कहा, ' शक-सुबह की बात मैं सोचती ही नहीं, ऐसा मेरे मन में कुछ नहीं है। मैं सिर्फ इतना चाहती हूं किऔर बहुत सी खवातीनों की तरह मैं घर की चारदीवारी में कैद होकर खाली चौका-बर्तन, झाड़ू-पोंछा में अपना जीवन ना खपा दूं। मैं तुमसे बार-बार पहले भी कहती रही हूँ कि, मैं जीवन में बहुत बड़ा काम करना चाहती हूं। इतना कि लोग इंदिरा नुई, किरण मजूमदार की तरह मेरी मिसाल दें कि देखो बेनज़ीर ने कितना बड़ा काम किया है। लोग मेरा नाम लेकर अपनी बच्चियों से कहें कि देखो बेनज़ीर की तरह अपने मां-बाप का नाम रोशन करो। मैं तुम्हारे साथ इतनी दूर तक, इतना आगे जाना चाहती हूं कि दुनिया का हर आदमी-औरत हम दोनों के जितना आगे जाने की कोशिश करे। वैसा ही बनने का ख्वाब देखे।'

'ठीक है, अभी कुछ दिन और इंतजार कर लो, फिर कदम बढाते हैं।'